पाराशर सिद्धांतों के 42 सूत्रों का वर्णन: 1. फल कहते हैं- नक्षत्रों की दशा के अनुसार ही शुभ-अशुभ फल कहते हैं। इस ग्रंथ के अनुसार फल कहने में विंशोत्तरी दशा ही ग्रहण करनी चाहिए। अष्टोत्तरी दशा यहां ग्राह्य नहीं है। 2. ज्योतिष शास्त्र- सामान्य ग्रंथों पर से भाव, राशि इत्यादि की जानकारी ज्योतिष शास्त्रों से जाननी चाहिए। इस ग्रंथ में जो विरोध संज्ञा है वह शास्त्रम के अनुरोध से कहते हैं। 3. ग्रह का स्थान- सभी ग्रह जिस स्थान पर बैठे हों, उससे सातवें स्थान को देखते हैं। शनि तीसरे व दसवें, गुरु नवम व पंचम तथा मंगल चतुर्थ व अष्टम स्थान को विशेष देखते हैं। 4. त्रिषडाय के स्वामी- कोई भी ग्रह त्रिकोण का स्वामी होने पर शुभ फलदायक होता है। (लगन, पंचम और नवम भाव को त्रिकोण कहते हैं) तथा त्रिषडाय का स्वामी हो तो पाप फलदायक होता है (तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव को त्रिषडाय कहते हैं।) 5. त्रिषडाय को अशुभ फल - सिद्धांत 4 में निहित स्थिति के बावजूद त्रिषडाय के स्वामी अगर त्रिकोण के भी स्वामी हो तो अशुभ फल ही आते हैं। 6. सौम्या ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र और पूर्ण चंद्र) यदि केन्द्रों के स्वामी हो तो शुभ फल नहीं देते हैं। 7. क्रूर ग्रह (रवि, शनि, मंगल, क्षीण चंद्र और पापग्रस्तय बुध) यदि केन्द्र के अधिपति हो तो वे अशुभ फल नहीं देते हैं। ये अधिपति भी उत्तरोतर क्रम में बली हैं। (यानी चतुर्थ भाव से सातवां भाव अधिक बली, तीसरे भाव से छठा भाव अधिक बली) 8. स्व स्थान ना होने पर रिजल्ट- लग्न से दूसरे अथवा बारहवें भाव के स्वामी दूसरे ग्रहों के सहचर्य से शुभ अथवा अशुभ फल देने में सक्षम होते हैं। इसी प्रकार अगर वे स्व स्थान पर होने के बजाय अन्य भावों में हो तो उस भाव के अनुसार फल देते हैं। (इन भावों के अधिपतियों का खुद का कोई आत्मनिर्भर रिजल्ट नहीं होता है।) 9. लग्नेश होने पर शुभ फल- आठवां भाव नौंवे भाव से बारहवें स्थान पर पड़ता है, अत: शुभफलदायी नहीं होता है। यदि लग्नेश भी हो तभी शुभ फल देता है (यह स्थिति केवल मेष और तुला लग्न में आती है) 10. केन्द्राधिपति ग्रह- शुभ ग्रहों के केन्द्राधिपति होने के दोष गुरु और शुक्र के संबंध में विशेष हैं। ये ग्रह केन्द्राधिपति होकर मारक स्थान (दूसरे और सातवें भाव) में हो या इनके अधिपति हो तो बलवान मारक बनते हैं। 11. सूर्य और चंद्रमा को अष्टमेश दोष नहीं- केन्द्राधिपति दोष शुक्र की तुलना में बुध का कम और बुध की तुलना में चंद्र का कम होता है। इसी प्रकार सूर्य और चंद्रमा को अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता है। 12. मंगल दशमेश होने से देगा अशुभ फल - मंगल दशम भाव का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। किंतु यही त्रिकोण का स्वामी भी हो तभी शुभफलदायी होगा। केवल दशमेश होने से नहीं देगा। (यह स्थिति केवल कर्क लग्न में ही बनती है) 13. राहु और केतु जिन-जिन भावों में बैठते हैं, अथवा जिन-जिन भावों के अधिपतियों के साथ बैठते हैं तब उन भावों अथवा साथ बैठे भाव अधिपतियों के द्वारा मिलने वाले फल ही देंगे। (यानी राहु और केतु जिस भाव और राशि में होंगे अथवा जिस ग्रह के साथ होंगे, उसके फल देंगे)। फल भी भावों और अधिपतियों के मुताबिक होगा। 14. केन्द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति - ऐसे केन्द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति जिनकी अपनी दूसरी राशि भी केन्द्र और त्रिकोण को छोड़कर अन्य स्थानों में नहीं पड़ती हो, तो ऐसे ग्रहों के संबंध विशेष योगफल देने वाले होते हैं। 15. बलवान त्रिकोण और केन्द्र के अधिपति खुद दोषयुक्त हों, लेकिन आपस में संबंध बनाते हैं तो ऐसा संबंध योगकारक होता है। 16. धर्म और कर्म स्थान के स्वामी अपने-अपने स्थानों पर हों अथवा दोनों एक दूसरे के स्थानों पर हों तो वे योगकारक होते हैं। यहां कर्म स्थान दसवां भाव है और धर्म स्थान नवम भाव है। दोनों के अधिपतियों का संबंध योगकारक बताया गया है। 17. राजयोग कारक - नवम और पंचम स्थान के अधिपतियों के साथ बलवान केन्द्राधिपति का संबंध शुभफलदायक होता है। इसे राजयोग कारक भी बताया गया है। 18. योगकारक ग्रहों (यानी केन्द्र और त्रिकोण के अधिपतियों) की दशा में बहुधा राजयोग की प्राप्ति होती है। योगकारक संबंध रहित ऐसे शुभ ग्रहों की दशा में भी राजयोग का फल मिलता है। 19. योगज फल - योगकारक ग्रहों से संबंध करने वाला पापी ग्रह अपनी दशा में तथा योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में जिस प्रमाण में उसका स्वयं का बल है, तदानुसार वह योगज फल देगा। (यानी पापी ग्रह भी एक कोण से राजयोग में कारकत्व की भूमिका निभा सकता है।) 20. यदि एक ही ग्रह केन्द्र व त्रिकोण दोनों का स्वामी हो तो योगकारक होता ही है। उसका यदि दूसरे त्रिकोण से संबंध हो जाए तो उससे बड़ा शुभ योग क्या हो सकता है। 21. राहु अथवा केतु यदि केन्द्र या त्रिकोण में बैठे हों और उनका किसी केन्द्र अथवा त्रिकोणाधिपति से संबंध हो तो वह योगकारक होता है। 22. राजयोग भंग - धर्म और कर्म भाव के अधिपति यानी नवमेश और दशमेश यदि क्रमश: अष्टमेश और लाभेश हों तो इनका संबंध योगकारक नहीं बन सकता है। (उदाहरण के तौर पर मिथुन लग्न) । इस स्थिति को राजयोग भंग भी मान सकते हैं। 23. मारक स्थान - राजयोग भंग जन्म स्थान से अष्टम स्थान को आयु स्थान कहते हैं। और इस आठवें स्थान से आठवां स्थान आयु की आयु है अर्थात लग्न से तीसरा भाव। दूसरा भाव आयु का व्यय स्थान कहलाता है। अत: द्वितीय एवं सप्तम भाव मारक स्थान माने गए हैं। 24. जातक की मृत्यु - द्वितीय एवं सप्ताम मारक स्थानों में द्वितीय स्थान सप्तम की तुलना में अधिक मारक होता है। इन स्थानों पर पाप ग्रह हो और मारकेश के साथ युक्ति कर रहे हों तो उनकी दशाओं में जातक की मृत्यु होती है। 25. मृत्यु का संकेत- यदि उनकी दशाओं में मृत्यु की आशंका न हो तो सप्तमेश और द्वितीयेश की दशाओं में मृत्यु होती है। 26. मारकत्व गुण - मारक ग्रहों की दशाओं में मृत्यु ना होती हो तो कुण्डली में जो पापग्रह बलवान हो उसकी दशा में मृत्यु होती है। व्ययाधिपति की दशा में मृत्यु न हो तो व्ययाधिपति से संबंध करने वाले पापग्रहों की दशा में मरण योग बनेगा। व्ययाधिपति का संबंध पापग्रहों से न हो तो व्ययाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों की दशा में मृत्यु् का योग बताना चाहिए। ऐसा समझना चाहिए। व्ययाधिपति का संबंध शुभ ग्रहों से भी न हो तो जन्म लग्न से अष्टम स्थान के अधिपति की दशा में मरण होता है। अन्यथा तृतीयेश की दशा में मृत्यु होगी। (मारक स्थानाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों को भी मारकत्व का गुण प्राप्त होता है।) 27. मारक ग्रहों की दशा में मृत्यु न आए तो कुण्डली में जो बलवान पापग्रह हैं उनकी दशा में मृत्यु की आशंका होती है। ऐसा विद्वानों को मारक कल्पित करना चाहिए। 28. शनि ग्रह- पापफल देने वाला शनि जब मारक ग्रहों से संबंध करता है तब पूर्ण मारकेशों को अतिक्रमण कर नि: संदेह मारक फल देता है। इसमें संशय नहीं है। 29. शुभ अथवा अशुभ फल - सभी ग्रह अपनी अपनी दशा और अंतरदशा में अपने भाव के अनुरूप शुभ अथवा अशुभ फल प्रदान करते हैं। (सभी ग्रह अपनी महादशा की अपनी ही अंतरदशा में शुभफल प्रदान नहीं करते) 30. दशानाथ जिन ग्रहों के साथ संबंध करता हो और जो ग्रह दशानाथ सरीखा समान धर्म हो, वैसा ही फल देने वाला हो तो उसकी अंतरदशा में दशानाथ स्वंय की दशा का फल देता है। 31. दशानाथ के संबंध रहित तथा विरुद्ध फल देने वाले ग्रहों की अंतरदशा में दशाधिपति और अंतरदशाधिपति दोनों के अनुसार दशाफल कल्पना करके समझना चाहिए। (विरुद्ध व संबंध रहित ग्रहों का फल अंतरदशा में समझना अधिक महत्वपूर्ण है) 32. केन्द्र का स्वामी और त्रिकोणेश - केन्द्र का स्वामी अपनी दशा में संबंध रखने वाले त्रिकोणेश की अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है। त्रिकोणेश भी अपनी दशा में केन्द्रेश के साथ यदि संबंध बनाए तो अपनी अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है। यदि दोनों का परस्पर संबंध न हो तो दोनों अशुभ फल देते हैं। 33. राज्याधिकार से प्रसिद्धि- यदि मारक ग्रहों की अंतरदशा में राजयोग आरंभ हो तो वह अंतरदशा मनुष्य को उत्तरोतर राज्याधिकार से केवल प्रसिद्ध कर देती है। पूर्ण सुख नहीं दे पाती है। 34. राज्य से सुख और प्रतिष्ठा - अगर राजयोग करने वाले ग्रहों के संबंधी शुभग्रहों की अंतरदशा में राजयोग का आरंभ हो तो राज्य से सुख और प्रतिष्ठा बढ़ती है। राजयोग करने वाले से संबंध न करने वाले शुभग्रहों की दशा प्रारंभ हो तो फल सम होते हैं। फलों में अधिकता या न्यूनता नहीं दिखाई देगी। जैसा है वैसा ही बना रहेगा। 35. योगकारक ग्रहों के साथ संबंध करने वाले शुभग्रहों की महादशा के योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में योगकारक ग्रह योग का शुभफल देते हैं। 36. राजयोग रहित शुभग्रह - राहु केतू यदि केन्द्र (विशेषकर चतुर्थ और दशम स्थान में) अथवा त्रिकोण में स्थित होकर किसी भी ग्रह के साथ संबंध नहीं करते हो तो उनकी महादशा में योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में उन ग्रहों के अनुसार शुभयोगकारक फल देते हैं। (यानी शुभारुढ़ राहु केतु शुभ संबंध की अपेक्षा नहीं रखते। बस वे पाप संबंधी नहीं होने चाहिए तभी कहे हुए अनुसार फलदायक होते हैं।) राजयोग रहित शुभग्रहों की अंतरदशा में शुभफल होगा, ऐसा समझना चाहिए। 37. महादशा के स्वामी - यदि महादशा के स्वामी पापफलप्रद ग्रह हों तो उनके असंबंधी शुभग्रह की अंतरदशा पापफल ही देती है। उन महादशा के स्वामी पापी ग्रहों के संबंधी शुभग्रह की अंतरदशा मिश्रित (शुभ एवं अशुभ) फल देती है। 38. पापी दशाधिप से असंबंधी योगकारक ग्रहों की अंतरदशा अत्यंत पापफल देने वाली होती है। 39. मारक ग्रहों की महादशा में उनके साथ संबंध करने वाले शुभ ग्रहों की अंतरदशा में दशानाथ मारक नहीं बनता है। परन्तु उसके साथ संबंध रहित पापग्रह अंतरदशा में मारक बनते हैं। 40. शुक्र और शनि अपनी-अपनी महादशा और अंतरदशा में शुभ फल देते हैं। यानि शनि महादशा में शुक्र की अंतरदशा हो तो शनि के फल मिलेंगे। शुक्र की महादशा में शनि के अंतर में शुक्र के फल मिलेंगे। इस फल के लिए दोनों ग्रहों के आपसी संबंध की अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। 41. दशम स्थान का स्वामी लग्न में और लग्न का स्वामी दशम में, ऐसा योग हो तो वह राजयोग समझना चाहिए। इस योग पर विख्यात और विजयी ऐसा मनुष्य होता है। 42. नवम स्थान का स्वामी दशम में और दशम स्थान का स्वामी नवम में हो तो ऐसा योग राजयोग होता है। इस योग पर विख्यात और विजयी पुरुष होता है।