*संतान उत्पत्ति में पितरों का योगदान* ✍️अन्न से उत्पन्न मन चंद्रमा का अंश होने के कारण दिव्य होता है। इसका संबंध धूलोक से रहता है। ओज वायु के रस से उत्पन्न होता है,अंतरिक्ष से जुड़ता है। चंद्रमा के तीन मनोता - रेत (वीर्य), श्रद्धा एवं यश है। इनमें शुक्र अनेक प्रकार की औषधियों को पैदा करके जीवन का आधार बनाते है। शुक्र सदा चंद्रमा की किरणों में रहता है। यह सोमरस अन्न के द्वारा शरीर मे प्रविष्ट होकर प्राणों का पोषक होता है। जन्म नक्षत्र से प्रारंभ होकर 27 नक्षत्रों तक ये भिन्न भिन्न भाव कलाएं सोम कलाएं सहस (सह:) कहलाती है। 28 दिन में अतिसूक्ष्म कलारूप ये सोमरस 28 कलाओं से युक्त *पिंड* भाव बन जाता है। वर्ष के 360 दिनों में इन 28 दिनों के चंद्रमासो की संख्या 13 होती है। अतः मरणोपरांत एक वर्ष में 13 मासिक पिंड दिये जाते है। इनके अलावा 6-6 मास के दो तथा वार्षिक एक पिंड दिया जाता है। कुल *16 पिंड* एक संवत्सर में दिए जाते है। नए मासिक पिंड के आने पर उसके पूर्व-पूर्व के पिंड क्षीण होते जाते है। शुक्र में अनुगत तेज़ के क्षीण हो जाने पर भी प्रत्येक मास के चंद्रोदय योग से अन्य 28 कला संपन्न,चंद्ररस पिंड नए उत्पन्न होते रहते है। अतः यह जीव प्रतिक्षण 16 मासिक पिंड भावो से संपन्न रहता है। शुक्र में इस पिंड रस का पतन भाव रहता है। इसमें भी अधः स्त्रोत दो प्रकार का माना गया है,एक पत्य भाव मे दूसरा अपत्य भाव में। स्त्री के शरीर मे शोणितमय अग्नि में आहूत होने वाला यह सोममय शुक्र अष्टम संतान तक पुत्र भाव में, अपत्य कहा जाता है। अष्टम पुरुष तक विस्तार पाकर पृथ्वी पर पुरुष भाव मे स्थायी हो जाता है, तब यह स्त्रोत भाव क्षीण हो जाता है। तब भी चंद्रलोक में रहने वाले पितरो के कुछ अंश श्रद्धा रूप सूत्र से बंधे हुए संतान रूप में पृथ्वी पर रहते है। इस कारण *उनसे सहारा पाकर वे पितृ चंद्रलोक से नीचे नही गिरते* उनको समर्पित 28 कलायुक्त पितरो के पिंड भाव संतान में रहते है,उनका सपिंडीकरण रूप श्राद्ध विधान के द्वारा चंद्रलोक स्थित पितरों को पुनः समर्पित कर दिया जाता है। अतः 28 पिण्ड पितरों को पुनः प्राप्त हो जाने के कारण उनके पिण्ड पतन की क्षतिपूर्ती हो जाती है। ऐसे 28 पिंडो का दान करने वाले भी आठ संतान अपत्य कहे जाते है। क्योंकि इनके कारण पूर्व पितर पतित नही होते। *पिंडमय पितर ही संतान रूप में नीचे पृथ्वी पर उत्पन्न होते है* संतान न होने पर तो पितरो के रूप पतन योग्य हो जाते है। जिन पितरो को सात कला मात्रा,उनके रूप की रक्षा के लिए बची रह जाती है,उनकी संतान द्वारा किये गए सपिंडीकरण से पुनः 28 कलाओं की पूर्ण संभव नही हो पाती। संतान न होने पर यह अधः प्रवाही शुक्र प्रत्येक मास प्रतीत होकर नष्ट हो जाता है। इसको पत्य माना जाता है। प्रत्येक पुरुष 84 कलाओं से सम्पन्न होता है,इनमें 56 कला पितरों की होती है, और 28 स्वयं की होती है। वृद्धप्रपितामह आदि चार पूर्व पितर लेपमात्र के ग्राही होते है और पिता,पितामह,प्रपितामह यह तीन पितर पिण्ड भागी होते है। सप्तम संतान तक पिण्ड दान का अधिकार होता है। इन 84 कलाओं में से 28 स्वयं की उपार्जित, 56 कला छः पितरो द्वारा प्रदत्त अग्रीम सर्जन क्रिया की होती है। उनमे पिता से 21 कला, पितामह से 15, प्रपितामह से 10 वृद्धप्रपितामह से 6 ,अतिवृद्धप्रपितामह से 3 तथा वृद्धतिवृद्ध पितामह से 1 कला प्राप्त होती है। इनमें पिता,पितामह,प्रपितामह की 21,15 एवं 10 कला होती है उनमें पदार्थों की अधिकता के कारण *पिण्ड* शब्द का प्रयोग होता है। आगे अल्पता के कारण लेप शब्द आता है। प्रत्येक पुरुष में 84 कला नित्य रहती है। 28 कला रूप निज की।पिण्ड संपत्ति में जो छः पुरुष संबंधी पितृ पिण्ड रसों का आवपन होता है वह पुरुष की जीवन यात्रा का निर्वाहक होता है। इस प्रकार प्रत्येक पुरुष का यह पैतृक ऋण हो जाता है। ऋण रूप आया यह *56* कला भाव भी अपने निज पिण्ड के समान दो प्रकार का होता है । स्वयं में रहने वाला भाव तथा जीवन आधार चंद्रमा का रस को ग्रहण करने में लिए सात ग्रह भाव इस आत्मा के सात धातु रूप बनते है। (प्रारंभिक स्वरूप में) इसी से 84 चंद्र रसमयी यश नामक कला नित्य आत्मा में स्थिर रहती है। इनको उक्थ कला कहते है। इनमें प्रथम छः भाग तो पितृ संबंधी होते है , सातवाँ एक स्वयं का। यही सात ग्रह है। यही महान आत्मा का स्वरूप है। यह महान आत्मा 28 कला युक्त होता है। शेष 56 कला युक्त पुत्र (तन्य) होता है। वहाँ भी 21 कला रूप उसकी संपत्ति होती है। शेष 35 कला में से 5 पितृ संबंधी धन माने जाते है। ये सब संतान के लिए होते है अतः संतान उत्पत्ति के द्वारा उनसे ऋणमुक्त होना चाहिए। पितृ पिण्ड संतान विभाग ..…............................ पिण्ड भाग- पितृ पिण्ड -पुत्र पिण्ड 1. बीजी पुरुष 28 7 21 2. पुत्र 21 6 15 3. पौत्र 15 5 10 4. प्रपौत्र। 10 4 6 5. वृद्ध प्रपौत्र 6 3 3 6. अतिवृद्ध प्रपौत्र 3 2 1 7. वृद्धतिवृद्धा प्रपौत्र 1 1 0 8. अरुपिण्ड सौदक 0 0 0 सपिंड सप्त पुरुष 84 28 56 वर्तमान में समाज में यह महसूस किया जा रहा है कि चंद लोगो की श्रद्धा पितरों के ओर्द्धदैहिक कर्म के प्रति कम होती जा रही है,जबकि स्पष्ट है संतान उत्पत्ति में पितरों का बहुत बड़ा योगदान होता है। *अतः हमें पितरों के कर्म में वित्तशाठ्य न करते हुए शास्त्रोक्त विधि से उनका कार्य सम्पन्न करना चाहिए।* ✍️ एस्ट्रोलॉजर प्रवीण उपाध्याय प्रोफेशनल वैदिक एस्ट्रोलॉजर इंदौर