दशा अन्तर्दशा दशा अन्तर्दशा के अनुसरा फल कहने के सूत्र प्रत्येक ग्रंथ में कारक ग्रह एवं मारक ग्रह के आधार पर विशे, रूप से कहे हैं। वैसे तो प्रत्येक ग्रह अपनी शुभता और अशुभता प्रकट करता है, किंतु जातक के जन्मांग में उस की स्थिति व अवस्थाके आधार पर महादशा व अन्तर्दशा का फलादेश किया जाना चाहिए। 1. अवस्था – ग्रहों की उच्च, नी. आदि स्थिति के अनुसकार विभिन्न अवस्थाएँ कही गई हैं जैसे दीप्त, मुदित, शांत, हीन, दुख, विकल, खल और कोप। यदि जातक की जन्म पत्रि में कोई ग्रह इन अवस्थाओं के आधार पर स्थित है तब शुभ ग्रह होने के बाद भी व अवस्थानुसार फल देगा। जैसे दीप्त अवस्था का शुभ फल, मुदित का शुभ फल, दुख का क्लेशकारी फल, विकल अवस्था का बेचैनी भरा समय। 2. पूर्व जन्म में अर्जित कर्मों का फल – पूर्व जन्म में कर्मों द्वारा अर्जित किए गए फल इस जन्म में ग्रहों की दशा भुक्ति के द्वारा जाने जाते हैं। अतः आवश्यक रुप से दशा भुक्ति को ज्ञात कर उसके फलों को जाना जाए। व अनिष्ट आदि की शांति कराई जाए जिससे इष्ट फल प्राप्त हो सके। 3. प्रत्येक ग्रह अपनी आधार भूत गुणों के अनुसार फल देता है। किन्तु वह अन्य किसी ग्रह से प्रभावित या दूषित हो जाता है या पाप भाव का स्वामी हो जाता है तो उसी के आधार पर वह अपनी महादशा का फल देता है। जैसे सूर्य महादशा में सूर्य यदि शुभ है और शुभ भावों में स्थित है तब पुत्र, धन, यश, पुरुषार्थ, ईश्वर कृपा की प्राप्ति, आत्म ज्ञान, पिता से सुख, राजा (सरकार) से सुख आदि फल देता है। किन्तु यदि सूर्य अशुभ है तो धन-यश-पुत्र नाश, पिता को कष्ट शत्रु से पीड़ा, दुर्बलता, पुरुषार्थ की असफलता, आँख के रोग देता है। 4. राहु और केतु यदि पंचम व नवम भाव में स्थित हैं और मारकेश से युक्त हैं तो वे अपनी महादशा-अंतर्दशा में मृत्यु और यदि राहु-केतु द्वितीय या सप्तम स्थान में स्थित हों और नवम पंचम के स्वामी से युत हों तो अपनी महादशा में धन देते हैं। 5. राहु यदि शुभ होता है तो अपनी महादशा में महान राज्य देता है, सब प्रकार की भलाई, धन प्राप्ति व पुण्य तीर्थों की यात्रा व ज्ञान देता है। यदि राहु अशुभ है तो अपनी महादशा में सर्प, विष, अग्नि से भय देता है। नीच लोगों से विरोध, ऊँचाई से गिरना व शत्रु पीड़ा देता है। दशा गोचर फल विचार - फलित विकास के आधार पर फल विचार निम्नानुसार है 1. जो ग्रह जन्म समय में संधि स्थान में हो उसकी दशा व पाप ग्रह की अन्तर्दशा रोग कारक होती है। 2. यदि कोई ग्रह भाव संधि के अंतिम अंश पर है तो मारक बन जाता है। 3. जो ग्रह जन्म के समय 6-8 भावों में स्थि हो कर शत्रु ग्रहे से दृष्ट हो, पाप ग्रह की राशि में स्थि हो जन्म के समय ग्रह युद्ध में पराजित हो, उसकी दशा मारक होती है। 4. राहु, मंगल को 5वीं, गुरु की 6वीं, शनि की 4थी दशा मारकप्रद होती है। 5. जन्म के समय नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री ग्रह की तिपद दशा, प्रत्याहारी दशा मारक होती है। साधारणतया छिद्र ग्रहों की श्रेणी में आने वाले सर्वाधिक बली ग्रही की दशा मारक होती है। 6. जिस भाव मे द्वितीयेश, सप्तमेश की दशा आती है तब-तब उस भाव के फल का नाश करती है। 7. अष्टम भाव द्रेषकोण व नवांशेश जिस राशि में हो उससे जब गोचर करते हैं तो मृत्युप्रद होते हैं। अष्टमेश, अष्टम द्रेष्कोण व नवांशेश की राशि में दशा में शनि का गोचर भी मारक होता है। 8. जीव मृत्यु व देह की स्पष्ट राश्यांश योग के तुल्य राशि में गोचर वश जब शनि आता है तब धन की हानि होती है। यदि त्रिकोण में आए तो शरीर और धन हानि और उस योग के तुल् नवांश में आए तो मृत्यु। • लग्नस्पष्ट को 5 से गुणा करें और गुलिक स्पष्ट को उसमें जोड़ दें तब जीव स्पष्ट प्राप्त होता है। • राशि सहित स्पष्ट चन्द्र को 8 से गुणा करें और गुलिक स्पष्ट उसमें जोड़ दें तब देह स्पष्ट प्राप्त होता है। • राश्यादि, स्पष्ट गुलिक को 7 से गुणा करे और सूर्य स्पष्ट को उसमें जोड़ दें तब मृत्यु स्पष्ट प्राप्त होगा। • इन तीनों को जोड़ने के बाद जो राशि प्राप्त हो उसमें शनि का गोचर धन हानि, उससे त्रिकोण में शनि का गोचर धन और शरीर हानि। इस योग तुल्य राशि की नवांश राशि में शनि को गोचर मृत्यु देता है। दशा विचार भाग्य भाव के विचार में जो ग्रहों की शुभ व पाप संज्ञा कही गई है उसका प्रयोजन यह है कि शुभ ग्रहों की दशा में द्रव्य की प्राप्ति व पाप संज्ञक ग्रहों की दशा में द्रव्य की हानि होती है। योग कारक ग्रह की दशा में भाग्य वृद्धि व अष्टम भाव से संबंधित ग्रहों की दशा में कष्ट कहा गया है। सभी ग्रह अपनी दशा में जिस भाव के स्वामी होते हैं जिस भाव में बैठे होते हैं उसका स्वामी इस सभी ग्रहों की स्थिति से महादशा का फल निकालना चाहिए या विचार करना चाहिए।