सूर्य दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा फल

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Astro Rakesh Periwal 25th Jan 2019

 

सूर्य दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा फल 

सूर्य मे सूर्य - सूर्य उच्च, स्वराशि  का हो और 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव में हो तो उसकी अन्तर्दशा मे धन लाभ, राज सम्मान, कार्य सिद्धि, विवाह, रोग, यश प्राप्ति होती है। यदि सूर्य नीच या अशुभ या अन्य भाव मे हो तो प्रभाव माध्यम होते है। यदि सूर्य द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो अपमृत्यु भी हो सकती है। जातक के मन मे अशांति, खिन्नता, द्वन्द रहता है।

 

सूर्य मे चंद्र - चंद्र लग्न, केंद्र, त्रिकोण मे हो तो धनवृद्धि, घर, खेत और वाहन मे वृद्धि होती है। चन्द्रमा उच्च, स्वग्रही हो तो स्त्री सुख, धन प्राप्ति, पुत्र लाभ, राजा से समागम होता है। क्षीण या पापयुक्त हो तो धन-धान्य का नाश, स्त्री पुरुष को कष्ट, भृत्य नाश और राज विरोध होता है। 6 । 8 । 12 हो तो जल से भय, मानसिक चिंता, बंधन (कारावास, नजरबन्द, अपहरण या अन्य) रोग, पीड़ा, मूत्रकच्छ, स्थानभ्रंस होता है। यदि दशनाथ  1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 वे हो तो संतोष, स्त्री- पुत्र की वृद्धि, राज्य से लाभ, विवाह, रोग मुक्ति, द्रव्यलाभ और सुख होता है।  दशानाथ 6। 8। 12 वे भाव मे  हो तो धन हानि, रोग कष्ट, झंझट होती है।

 

सूर्य मे मंगल - उच्च या स्वग्रही 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो इस दशाकाल में भूमि लाभ, धन प्राप्ति, मकान लाभ (नव निर्माण) पराक्रम वृद्धि, सेना मे उच्च पद, शासन से सम्बन्ध और भाइयो की वृद्धि, शत्रु नाश, मानसिक शांति होती है।  दशेश सूर्य से मंगल  8। 12  हो या पापग्रह युक्त हो तो धन हानि, चिंता, भाइयो से विरोध, जेल, क्रूर बुद्धि, मानसिक रोग, उद्यमो मे असफलता आदि फल होते है। यदि मंगल नीच या बलहीन या पापग्रह से युत हो तो राज कोप के कारण धन नाश होता है।  यदि मंगल द्वितीय भाव या सप्तम भाव का स्वामी हो तो रोग मुक्ति, आयु वृद्धि, रोमांच मे सफलता सम्भव होती है।

 

सूर्य मे राहु -   राहु 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 12 वे भाव मे हो तो धन हानि, चोरी, सर्पदंश का भय, स्त्री-पुत्रो को कष्ट होता है। यदि राहु 3। 6 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो राजमान्य, राजोन्नति, विदेश यात्रा, धनलाभ, भाग्यवृद्धि, स्त्री-पुत्रो को कष्ट होता है। दशा के स्वामी से राहु 8 । 12 वे भाव मे हो तो बंधन, स्थाननाश, कारावास, क्षय, अतिसार आदि रोग, सर्पदंश या घाव का भय होता है। यदि राहु द्वितीय या सप्तम मे हो तो अल्पमृत्यु हो सकती है। बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार यदि लग्न से राहु केंद्र या त्रिकोण मे हो तो पहले दो माह मे अर्थ हानि, चोर भय, सर्प, धावो का आघात, स्त्री-बच्चो को कष्ट होता है किन्तु दो माह बाद प्रतिकूल प्रभाव विलीन हो जाते है और आनंद और आराम, अच्छा स्वास्थ्य, संतुष्टि, राजा और सरकार आदि के पक्ष मे अनुकूल प्रभाव होगे।

 

सूर्य मे गुरु -  गुरु उच्च या स्वराशि या स्ववर्ग का 1। 4 । 5 । 7 । 9 ।10 । 11 वे भाव मे हो तो इस दशा काल मे विवाह, पदोन्नति, पुत्रोत्पत्ति, मंगलकार्य, पुत्र-पुत्री विवाह, अधिकार प्राप्ति, महपुरुषो के दर्शन, धन-धान्य की प्राप्ति, सरकार से सहयोग, इछाओ की पूर्ति होती है। दशेश यानि दशा के स्वामी से 6। 8 वे भाव मे नीच या पापग्रह से युत या अस्त या वक्री हो तो राजकोप, स्त्री-पुत्र को कष्ट, रोग, धननाश, शरीरनाश, मानसिक चिंताऐ रहती है। गुरु नवमेश या दशमेश हो तो विशेष शुभ और सुखकारी होता है। 

 

 सूर्य मे शनि - उच्च, स्वक्षेत्री, मित्रराशि 1 । 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे शनि हो तो शत्रुनाश, विवाह, पुत्रलाभ और धन प्राप्ति होती है। यदि दशेश से 8।12 वे भाव मे नीच या पापग्रह से युति हो तो धननाश, पापकर्मरत, कलह और दर्द, रूमेटिज्म, पेचिस, जेल, उद्यमो से हानि, नानारोग, सहयोगी और दावेदारों से विवाद, झगडे होते है। यदि शनि द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो अल्पमृत्यु भी हो सकती है। बृहत्पराशर होराशास्त्र अनुसार यदि शनि नीचस्थ हो तो दशा प्रारम्भ मे मित्रो से विछोह, मध्य मे अच्छे प्रभाव और अंत मे कष्ट होता है इनके आलावा शनि नीच का हो तो अन्य दुष्प्रभाव, अभिभावक से अलग होना, आवारागर्दी होती है। 

 

 सूर्य मे बुध - स्वगृही ;;या उच्चराशि या मित्रराशि बुध 1 ।  4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो यह दशाकाल उत्साहवर्धक, सुखदायक, जीवंतता, तीर्थयात्रा, धनलाभ कराने वाली होती है। यदि शुभ राशि में हो तो सम्मान, पुत्र लाभ, विवाह आदि होते है।  यदि  6 । 8 । 12  वे भाव मे हो या दशा स्वामी से 12  वे भाव मे हो तो पीड़ा, आर्थिक संकट, राजभय होता है। बुध दशा स्वामी से  6 । 8 वे भाव मे नही हो सकता है। यदि बुध द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो ज्वर, अर्श आदि रोग होते है। बुध यदि नवम भाव के स्वामी से युत है तो बहुत लाभकारी होता है। यदि नवम, पंचम, दशम भाव मे हो तो पुत्रजन्म लोगो के बीच सम्मान और लोकप्रियता, धार्मिक कर्मों और धार्मिक स

 

ंस्कारो का प्रदर्शन, भक्त और देवताओं की भक्ति, धन और अनाज मे वृद्धि, शुभ प्रभाव होते है।

 

 सूर्य मे केतु - केतु की अन्तर्दशा मे मनसन्ताप, मानसिक व्यथा, आपसी झगड़े, राजकोप, कुटम्बियो से वैमनस्य, शत्रुभय, धनहानि, पदच्युत, नेत्र रोग होते है। दशानाथ से केतु 8 । 12 वे भाव मे हो तो दन्त रोग, मूत्रकच्छ, स्थानभ्रंश, पिता की मृत्यु, शत्रुपीड़ा, परदेशगमन आदि फल होते है।  द्वितीय या सप्तम स्थान का स्वामी केतु हो तो अल्पमृत्यु हो सकती है। यदि 2 । 3 । 6 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो शुभ, सुखदायक होता है। बृहत्पराशर होराशास्त्र अनुसार यदि केतु लग्न के स्वामी से युत हो तो दशा के प्रारम्भ मे कुछ ख़ुशी मध्य मे कष्ट और अंत मे मृत्यु के समाचार मिलते है। 

 

सूर्य मे शुक्र - शुक्र स्वक्षेत्री, उच्चराशि, मित्रराशि या उच्च के वर्ग में हो अथवा 1 । 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो इस दशा काल मे संपत्ति लाभ, राज लाभ, यश लाभ और नाना प्रकार के सुख, विवाह, खुशी, दूसरे स्थानों की यात्रा, महानता और महिमा प्राप्त होते है। यदि शुक्र  6 । 8 या दशानाथ से 12 वे भाव हो तो राजकोप,

चित्त मे क्लेश, स्त्री पुत्र धन की हानि होती है। शुक्र यदि लग्न से 12 वे भाव में हो तो विशेष धन दाता होता है। आठवे स्थान मे शुक्र हो तो बदनामी होती है। बृहत्पराशर होराशास्त्र अनुसार शुक्र यदि  6 । 8  भाव के स्वामी से युत हो तो अपमृत्यु होती है। अन्तर्दशा प्रारम्भ मे प्रभाव मध्यम, मध्य मे प्रभाव अच्छे और अंत मे बुरे प्रभाव जैसे बदनामी, प्रतिष्ठा की हानि, रिश्तेदारो से दुश्मनी, आराम मे नुकसान होता है।

 

चंद्र दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा फल 

चंद्र मे चंद्र - चन्द्रमा उच्च या स्वक्षेत्री या 1 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे स्थान मे हो या भाग्येश या कर्मेश से युत हो तो इस दशाकाल मे धनधान्य की प्राप्ति, यशलाभ, राजसम्मान, राजोन्नति, कन्याप्राप्ति, कन्या विवाह, अक्षयकीर्ति, पुस्तक लेखन, मंगल कार्य आदि फल मिलते है। इसमें उत्तम व्यक्तियो से परिचय होता है। पापयुक्त चन्द्रमा हो या नीच का हो या 6 । 8 वे स्थान मे हो तो धननाश, स्थानच्युत, संताप, आलस्य, खिन्नता, रोग, माता को कष्ट या मृत्यु, राजकोप, कारावास और भार्या को कष्ट होता है। यदि चंद्र द्वितीय या सप्तमेश हो या अष्टमेश या व्ययेश से युत हो तो अल्पायु या दुर्घटना होती है।   

 

चंद्र मे मंगल - चंद्र मे मगल की अन्तर्दशा उत्तम रहती है। मंगल 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो इस दशा काल मे सौभाग्य वृद्धि, राज्य से सम्मान, घर-क्षेत्र मे वृद्धि आदि फल होते है।  3 । 6 । 11 वे भाव मे हो या उच्च या स्वगृही हो  तो राज्यवृद्धि, पदवृद्धि, समाजसम्मान, कार्यलाभ, सुखप्राप्ति, धनागम होता है। यदि मंगल 6 । 8 । 12  वे भाव मे हो या पापयुक्त या पापदृष्ट 6 । 8 भाव मे हो या  दशानाथ से 12 वे हो तो इसकी अंतर दशा मे घर-क्षेत्र की हानि, बन्धुओ से वियोग, कृषि हानि, व्यापार लेनदेन मे नुकसान, प्रतिद्वंदता, कर्मचारियो (नौकरो) और राजा से प्रतिकुल सम्बन्धो के कारण नुकसान, गर्म स्वभाव,अनेक कष्ट होते है। 

 

चंद्र मे राहु - चंद्र मे राहु की अन्तर्दशा होने पर शत्रुपीड़ा, चोर-सर्प-राज  भय, बांधवो का नाश, मित्रो से हानि, दुःख, संताप, अर्थक्षय, चिन्ता होती है।  यदि राहु शुभग्रह से दृष्ट हो या कारक ग्रह से युत हो  या 3 । 6 । 10 । 11 भाव मे हो तो कार्यसिद्धि, दक्षिण-पश्चिम दिशा मे लाभ, उद्यमाे मे सफलता होती है। दशेश से  8 । 12 वे स्थान पर हो तो स्थान भ्रंश, दुःख, पुत्र क्लेश, भय, स्त्री को कष्ट होता है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र अनुसार दशानाथ से  राहु केंद्र, त्रिकोण, तीसरे या ग्यारहवे हो तो पवित्र तीर्थ स्थलो की यात्रा, आलोकिक मंदिरो की यात्रा, लाभ, दान कार्य की ओर झुकाव होता है। द्वितीय या सप्तम मे हो तो शरीर पीड़ा होती है। 

 

चंद्र मे गुरु - चंद्र मे गुरु की अन्तर्दशा श्रेष्ट व्यतीत होती है। गुरु उच्च या स्वगृही हो या लग्न से 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10  वे भाव मे हो तो शासन से सम्मान, धनप्राप्ति, पुत्रलाभ, कीर्ति, मांगलिक उत्सव, इष्ट देवता का लाभ,  राजकीय सहयता और लाभ, सभी उद्यमो में सफलता आदि फल होते है। यदि 6 । 8 । 12  वे भाव मे हो या अस्त, नीच या शत्रु क्षेत्री हो तो अशुभ फल की प्राप्ति, गुरुजन अथवा पुत्र नाश, स्थानच्युत, कलह, दुःख आदि होते है। यदि दशा स्वामी यानि चन्द्र से 1। 3 । 4।  5 । 7 । 9 । 10  वे भाव मे हो तो धैर्य, पराक्रम, विवाह, धन लाभ व अन्य लाभ होते है। यदि दशानाथ से 6 । 8 । 12 हो तो जातक अल्पायु होता है। यदि दशानाथ से गुरु  3। 11 हो तो मवेशियो की वृद्धि, धान्य, ख़ुशी, भाइयो से ख़ुशी, संपत्ति, बहादुरी, धैर्य, दायित्व, उत्सव, विवाह जैसे अनुकूल प्रभाव होते है। अन्तर्दशा प्रारम्भ मे अच्छे प्रभाव और अंत मे दुष्प्रभाव होते है।  

 

चंद्र मे शनि - शनि 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11 वे भाव मे हो या स्वगृही या उच्च का हो या शुभ ग्रह से धृष्ट या युत हो या स्वनवांश मे हो तो 

 

इस दशाकाल मे पुत्र-धन मित्र की प्राप्ति, व्यवसाय मे लाभ, घर-खेत आदि की वृद्धि, शुद्रो से व्यापार मे लाभ राज्य कृपा से धन और महिमा, मित्रता  होती है। यदि 6 । 8 । 12  वे भाव मे हो या अस्त, नीच या शत्रु क्षेत्री या द्वितीय भाव मे  हो तो  पुण्य क्षेत्र मे स्नान, पूजा अर्चना, कष्ट, उदार पीड़ा, शूल, शस्त्र पीड़ा होती है। यदि दशानाथ से शनि केंद्र या त्रिकोण मे हो तो एक समय पर अर्थ लाभ तथा आराम और दूसरे समय पर विरोध तथा पत्नी व बच्चो से मनमुटाव होता रहता है। 

 

चंद्र मे बुध - बुध उच्च या 1। 4 । 5 । 7 । 9 ।10 । 11 वे भाव मे हो तो राजा से आदर, विद्या लाभ, धन प्राप्ति, ज्ञान वृद्धि, संतान प्राप्ति, संतोष, व्यवसाय दूर प्रचुर लाभ, ननिहाल से धन लाभ, विवाह, पशु लाभ, लेखन, परीक्षा या प्रतियोगिता मे सफलता आदि फल होते है। यदि दशेश से बुध 2। 11 वे स्थान मे हो या केन्द्र या त्रिकोण मे हो तो निश्चय विवाह, धारासभा सदस्य, आरोग्य व सुख की प्राप्ति, यज्ञ, दान, धार्मिक कृत्य, विद्वान पुरुषो से सामाजिक संपर्क, राजा से निकट सम्बन्ध, रत्नो का संचय, सोमरस या अन्य स्वादिष्ट पेयो का आनन्द, होता  है। यदि बुध 6 । 8 । 12  वे भाव मे हो या अस्त, नीच या शत्रु क्षेत्री हो तो बाधा, कष्ट, भूमिनाश, कारावास, स्त्री-पुत्र को कष्ट होता है। यदि बुध द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो ज्वर से पीड़ा होती है। 

 

चन्द्र मे केतु - यदि केतु केंद्र या त्रिकोण या सहज भाव या बलवान हो तो धन प्राप्ति, पत्नी-बच्चो की ख़ुशी, भोग-उपभोग, धार्मिक झुकाव आदि होता है। अन्तर्दशा के प्रारम्भ मे थोड़ी अर्थ हानि होती है जो बाद मे ठीक हो जाती है। यदि दशा स्वामी से केतु केन्द्र या लाभ भाव या सहज भाव या त्रिकोण मे हो तो  धन सुख, मवेशी की प्राप्ति होती है। अन्तर्दशा के अंत मे धनहानि होती है। यदि पापग्रह से युत या दृष्ट या 8 वे  भाव मे हो या दशेश से 12  वे भाव मे हो तो कलह, दुश्मनो और झगड़ो के कारण उद्यमो मे बाधा होती है। यदि द्वितीय या सप्तम भाव मे  हो तो आरोग्य की हानि होती है।

 

चंद्र मे शुक्र -  शुक्र केन्द्र या लाभ स्थान या त्रिकोण मे हो या उच्च या स्वक्षेत्री हो तो इस दशा काल मे राज्य शासन मे अधिकार, मन्त्री या अधिकारी, ख्याति, स्त्री-पुत्र की वृद्धि, नवीन गृह निर्माण, सुख, रमणीय स्त्री का लाभ, विविध भोग, आरोग्य, मिष्ठान, इत्र-फुलेल आदि फल होते है। यदि शुक्र चंद्र की युति हो तो देहसुख, सुविख्यात, सुख-सम्पत्ति, घर खेत की वृद्धि आदि होती है। यदि  6 । 12 भाव मे हो तो विशेष धन लाभ होता है। यदि नीच या अस्तगत हो या पापग्रह से युत या धृष्ट हो तो धन भूमि पुत्र मित्र, पत्नी का नाश, दोषारोपण, संताप, व्याधि, कलह होता है। यदि शुक्र धनेश या उच्च या स्वग्रही हो तो निधि लाभ होता है। दशेश से  6 । 8 । 12 हो तो परदेश वास से दुःखी होता है। यदि द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो अल्पायु भय होता है। 

 

चंद्र मे सूर्य - सूर्य उच्च या स्वग्रही या 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11 वे भाव मे हो तो राज सम्मान, धन लाभ, गृह सुख, मित्र और राजा के सहयोग से ग्राम या भूमि अधिग्रहण, संतान सुख, व्यापार वृद्धि,खोया धन व राज्य, उन्नति का सुयोग मिलता है। यदि  8 । 12 हो तो चोर-सर्प-राज से भय, नेत्र पीड़ा, पिता की मृत्यु, परदेश गमन आदि फल होते है।  यदि 2  । 7 भाव का स्वामी हो या अंतरदशा दस अंत मे  तन्द्रा, ज्वर बाधा होती है। 

 

मंगल दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा फल 

मंगल मे मंगल -  मंगल 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 वे भाव मे हो लग्नेश से युत हो त्रिकोणेश या 2, 3 भाव मे हो इसकी दशा काल में वैभव की प्राप्ति, धनलाभ, पुत्रप्राप्ति, सुखप्राप्ति होती है। यदि उच्च या स्वगृही हो तो घर- खेत की वृद्धि या धनलाभ, भूमि क्रय-विक्रय से लाभ, पुलिस या सेना मे हो तो पदलाभ होता है। यदि 8 । 12 हो तो मूत्रकच्छ, रोग, धाव, फोड़ा-फुंसी, सर्प चोर भय, राज्य से पीड़ा आदि होते है। यदि द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो शारीरिक कष्ट होता  है। 

➧ मतान्तर अनुसार मंगल मे मंगल की अन्तर्दशा काल मे गृह कलह, परिवार मे विरोध, राजयचिंता, नौकरी मे मुअत्तली या पदावनति, काम बिगड़ना, शारीरिक गर्मी, क्रोध का आधिक्य, चिन्ता जैसे अशुभ फल होते है। 

 

 मंगल मे राहु - राहु उच्च, मूलत्रिकोण, शुभ ग्रह से दृष्ट या 3 । 6 । 11 वे स्थान मे हो तो इस दशा काल मे राजा से सम्मान, धर खेत का लाभ, व्यवसाय मे असाधारण लाभ, परदेश गमन आदि फल होते है। यदि पापग्रह युत 8 । 12  स्थान मे हो तो चोर सर्प राज भय, वात-पित्त- कफ विकार, क्षयरोग, जेल आदि फल होते है। राहु द्वितीय भाव मे हो तो धन नाश और सप्तम मे हो तो असमय मरण हो सकता है। 

 

मंगल मे गुरु - गुरु 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11 वे भाव मे हो या उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण या स्वनवांश मे हो तो इस दशा मे अच्छी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि, यश लाभ, देश मे मान्य, धन-धान्य की वृद्धि, शाशन मे अधिकार, लाभ, उच्च कोटि का ग्रन्थ लेखन, पुत्र लाभ, विवाह, परिवार और जाति मे सम्मान होता है। यदि दशानाथ से गुरु 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11 वे भाव मे हो कृषिभूमि, मकान आदि की वृद्धि, आरोग्य लाभ, यश प्राप्ति, व्यापार मे लाभ, उद्यम मे सफलता, ऐश्वर्य आदि फल होते है। यदि 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो, अस्त, नीच, पापग्रह से युत या दृष्ट हो तो घर में चोरी, पित्त  विकार, राज्य से हानि, पदावनति, भातृ नाश, उन्मत्तता होती है।  

 

मंगल मे शनि - शनि स्वक्षेत्री या उच्च या मूलत्रिकोण मे हो तो ही शुभ फलदायक होकर राज सुख, यश वृद्धि पुत्र-पौत्र की प्राप्ति देता है। अन्य स्थतियो मे या नीच या अस्तगत या शत्रुक्षेत्री या 8 । 12 वे स्थान मे हो तो स्त्री बाधा, संतान पीड़ा, शारीरिक कष्ट, मुकदमे मे पराजय, धन हानि, स्थानांतरण, जेल, रोग, चिंता, कष्ट आदि अशुभ फल होते है। 

➧ बृहत्पाराशर होराशास्त्र अनुसार यदि शनि लग्न के स्वामी या शुभ ग्रह से युत हो तो शुभ फल दशा काल मे शनिवार को विशेषकर मिलते है इसी प्रकार शनि यदि द्वितीय या सप्तम के स्वामी या पापग्रह से युत हो तो महा खतरा, जीवन की हानि, राजा का क्रोध, मानसिक पीड़ा, चोरों और आग से खतरा, राजा द्वारा दंड, सह-जन्म के नुकसान, परिवार के सदस्यों मे असंतोष, मवेशियों का नुकसान, मृत्यु का डर, पत्नी और बच्चों को परेशानी, कारावास इत्यादि प्रभाव महसूस होते है । दशानाथ से शनि केन्द्र या ग्यारहवे या पांचवे स्थान मे हो तो विदेशी भूमि की यात्राऐ, प्रतिष्ठा का नुकसान, हिंसक कार्य, कृषि भूमि की बिक्री से हानि, स्थिति मे कमी, पीड़ा, युद्ध मे हार, मूत्र संबंधी परेशानी इत्यादि होते है।

 

मंगल मे बुध - बुध लग्न से केन्द्र या त्रिकोण मे हो तो धार्मिक और पवित्र लोगो से सहयोग, दान, धार्मिक संस्कारों का सम्मान, प्रतिष्ठा का लाभ, कूटनीति की ओर झुकाव, राजा के पुनरुत्थान मे अधिकार का सम्मान, कृषि परियोजनाओ मे सफलता, सुन्दर कन्या का जन्म, यश लाभ, धर्म में रुची, न्याय से प्रेम होता है तथा स्वादिष्ट व्यजनो की प्राप्ति होती है। नीच अस्त वक्री या 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो तो हृदय रोग, पैरो मे बेड़ी का पड़ना, असंतोष, गृह कलह, स्त्री मरण, पुत्र मरण, बंधुओ का नाश, नाना कष्ट होते है। यदि दशेश से बुध 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो या पापग्रह से युत हो तो मानहानि व्याधि, पाप पूर्ण सोच, कठोर भाषण, चोरो, आग और राजा से खतरे, कारणो के बिना झगड़ा होता है। 

➧ बृहत्पाराशर होराशास्त्र अनुसार यदि बुध दशा के स्वामी से युत हो तो विदेशी भूमि की यात्रा, दुश्मनो की संख्या में वृद्धि, कई प्रकार की बीमारियो के साथ दुःख, राजा के साथ विरोध होता है। यदि दशानाथ से केन्द्र या त्रिकोण या उच्च राशि मे हो तो सभी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति, धन और अनाज का लाभ, राजा द्वारा मान्यता, राज्य का अधिग्रहण, कपड़े और गहने का लाभ, कई प्रकार के संगीत वाद्ययंत्रो से जुड़ाव, सेना के कमांडर की स्थिति की प्राप्ति, शास्त्रो और पुराण पर चर्चाएं, पत्नी और बच्चो के लिए धन का लाभ और देवी लक्ष्मी का लाभ बहुत शुभ परिणाम होते है। 

 

मंगल मे केतु - मंगल में केतु की अन्तर्दशा मे पेट रोग, बंधुओ से विग्रह, दुष्टो से शारीरिक क्षति, अग्नि से संपत्ति नाश, व्याधि, भय, कष्ट अदि होते है। केतु शुभग्रह से धृष्ट या युत हो तो धन भूमि पुत्र का लाभ, यशवृधि, सेनापति, सम्मान आदि होता है। यदि केतु दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो या पापग्रह से युत हो तो व्याधि, भय, अविश्वास, कष्ट आदि होता है। यदि केतु धन या युवती मे है तो बीमारिया, अपमान, पीड़ा और धन की हानि होगी। यदि केन्द्र या त्रिकोण के स्वामी से युति है तो कुछ शुभ फल होगे। 

 

मंगल मे शुक्र - शुक्र 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 वे भाव मे हो या उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण या 6।12 भाव मे हो तो इस दशा काल मे राज्य लाभ, राज्य सम्मान, आभूषण प्राप्ति, सुख प्राप्ति होती है। यदि लग्नेश से युत हो तो पुत्र-स्त्री आदि की वृद्धि, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। इस दशा मे प्रेम सम्बन्धो मे वृद्धि होती है, जातक भावुक, मनमौजी, कल्पनाशील, शानशौकत पर खर्चीला हो जाता है। यदि दशा के स्वामी से 5 । 9 । 11 । 2 वे भाव मे हो लक्ष्मी की प्राप्ति, संतान सुख, सुख की प्राप्ति, नृत्य गीत का होना, तीर्थ यात्रा आदि होता है। यदि शुक्र कर्मेश से युत हो तो जातक तालाब, कुंवा, धर्मशाला आदि परोपकारी कार्य करता है। दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो तो कष्ट, झंझट, संतान चिंता, धन नाश, मिथ्यापवाद, कलह आदि होते है।

 

मंगल मे सूर्य - सूर्य उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण, केंद्र या त्रिकोण मे हो या कर्म या लाभ के स्वामी के साथ हो तो धन लाभ, यश प्राप्ति, पुत्र लाभ, धन-धान्य की वृद्धि, परिवार मे सुखद वातावरण, व्यापार मे असाधारण लाभ, शक्ति होती है। दशानाथ से 

 

6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो या पापग्रह से धृष्ट या युत हो तो पीड़ा, संताप, धन नाश, कष्ट,कार्य बाधा होती है।

 

मंगल मे चन्द्र - चंद्र उच्च या मूलत्रिकोणी या स्वग्रही या शुभयुक्त केन्द्र या त्रिकोण मे हो या नवम, चतुर्थ, दशम, लग्न के स्वामी के साथ हो तो इस दशा काल मे राज्य लाभ, मंत्रिपद, सम्मान, उत्सवो का होना, विवाह, स्त्री-पुत्र का सुख, माता-पिता का सुख, मनोरथ सिद्धि, अधिक साम्राज्य का अधिग्रहण, जलाशयो का निर्माण, शुभ कार्यों के जश्न, संपत्ति के अधिग्रहण से लाभ संप्रभु, वांछित परियोजनाओ मे सफलता आदि फल होता है। चन्द्रमा वृद्धिगत (शुक्लपक्ष) हो तो प्रभाव पूरी तरह होते है और क्षीण चंद्र (कृष्णपक्ष) हो तो प्रभाव कुछ कम हद तक होते है। दशेश या लग्न से 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो या नीच या शत्रु राशि मे हो तो स्त्री-पुत्र की हानि, पशु और धान्य का नाश, मृत्यु, चोर भय, भूमि का नुकसान आदि होते है। यदि द्वितीय या सप्तम का स्वामी हो तो समय से पहले मृत्यु, शारीरिक कष्ट, मानसिक पीड़ा की सम्भावना होती है। 

 

राहु की दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा  फल 

राहु मे राहु -  कर्क, वृषभ, वृश्चिक, धनु राशि का राहु हो तो सम्मान, शासन लाभ, व्यापार मे लाभ होता है। राहु  3 । 6 । 11 वे स्थान मे हो, शुभग्रह से दृष्ट या युत हो या उच्च का हो तो इसकी दशा मे राज्य शासन मे उच्च पद, उत्साह, कल्याण होता है। 8 । 12 वे स्थान मे पापग्रह से युत या दृष्ट हो तो कष्ट, हानि, बंधुओ का वियोग, झंझटे चिंताए आदि फल होते है।  सप्तम में हो तो रोग होते है। 

➧ मतान्तर - राहु दशा मे राहु की अंतर दशा काल मे स्वास्थ्य मे गिरावट, तनाव, चिंता, समय से पहले मृत्यु, स्थानांतरण, पदावनाति होती है। राहु सप्तम मे हो तो पत्नी का मरण, दूसरे  मे हो तो प्रचुर धन क्षय होता है।   

 

राहु मे गुरु - गुरु केन्द्र त्रिकोण मे हो या उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण स्वनवांश मे हो तो इस दशा काल मे शत्रु नाश, पूजा, ईश्वर अराधन, लेखन, यश, सम्मान, सवारी, स्वास्थ्य लाभ, रोग मुक्ति, धैर्य, दुश्मनो का विनाश, आनंद, राजा के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध, धन और संपत्ति मे नियमित वृद्धि, पश्चिम या दक्षिण-पूर्व की यात्रा, वांछित उद्यमो मे सफलता, देवताओ और ब्राह्मणो की भक्ति आदि होते है। गुरु यदि नीच, अस्त, शत्रु राशि लग्न या दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो तो धन हानि, विघ्न-बाधाओ का बाहुल्य, कष्ट, पीड़ा, बदनामी आदि होते है। यदि गुरु दशानाथ से केंद्र या त्रिकोण, ग्यारह या दूसरा या तीसरा और बलवान है तो भूमि लाभ, अच्छा भोजन, मवेशियों के लाभ इत्यादि, धर्मार्थ और धार्मिक कार्य के प्रति झुकाव होता है। 

 

राहु मे शनि - शनि केन्द्र त्रिकोण या एकादश भाब मे हो या उच्च, स्वक्षेत्री मूलत्रिकोणी हो तो उसकी दशा मे उत्सव, लाभ, सम्मान, बड़े कार्य, धर्मशाला, तालाब का निर्माण, आमदनी मे कमी, शूद्रो से धन वृद्धि, पश्चिम की यात्रा से राज्य द्वारा धन हानि आदि फल होते है। नीच शत्रुक्षेत्री होकर 8 । 12 वे भाव मे हो तो स्त्री-पुत्र का मरण, स्थानांतरण, विरोध, लड़ाई-झगड़ा, अनेक कष्ट आदि होते है। यदि 2। 7 का स्वामी हो तो असामयिक मृत्यु हो सकती है। यदि दशानाथ से शनि 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो तो हृदय रोग, मानहानि, झगड़े, दुश्मनो से खतरे, विदेशी यात्रा, गुल्म के साथ दिक्कत, अस्वास्थ्यकर भोजन और दुःख इत्यादि होते है।

 

राहु मे बुध - बुध केंद्र, त्रिकोण, उच्च, स्वगृही और बलवान हो तो कल्याण, व्यापार से लाभ व धन प्राप्ति, यश लाभ विद्या प्राप्ति, विवाहोत्सव, बिस्तर और महिलाओ के आराम, राज योग जैसे फल आदि होते है। यदि 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो या शनि की राशि मे हो या शनि से युत या दृष्ट हो या दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो तो कलह, संकट, राजकोप, पुत्र वियोग होता है। यदि बुध द्वितीय या सप्तम का स्वामी हो तो अकाल मृत्यु हो सकती है। यदि बुध दशा का स्वामी से केन्द्र या दशा स्वामी से 11। 3। 9।10 वे भाव मे हो तो अच्छा स्वास्थ्य, इष्ट सिद्धी, पुराणो और प्राचीन इतिहास पर प्रवचन श्रवण, विवाह, भाषण, दान, धार्मिक झुकाव और दूसरों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण होता है।

 

राहु मे केतु - राहु मे केतु मे अंतर मे वातज्वर, भ्रमण, मानहानि, पशुओ का मरण, स्वजन का विछोह, नाना प्रकार के उपद्रव और दुःख होता है। यदि शुभग्रह से केतु युति हो तो धन की प्राप्ति, सम्मान, भूमि लाभ, आनंद, राजा द्वारा मान्यता, सोने का अधिग्रहण होता है। यदि केन्द्र त्रिकोण या बारवे भाव में केतु हो तो इस दशा काल मे अधिक कष्ट होता है। यदि केतु आठवे स्थान के स्वामी से युत है तो शारीरिक परेशानी और मानसिक तनाव होगा। यदि लग्न के स्वामी से युत या दृष्ट है तो इष्ट सिद्धि, और धन लाभ होता है।

 

राहु मे शुक्र - शुक्र 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11।12 वे भाव मे हो तो उसकी दशा मे पुत्रोत्सव, राज सम्मान, वैभव प्राप्ति, विवाह, ब्राह्मणो से अर्थ प्राप्ति, राज्य से मान्यता व सरकार मे उच्च पद, आराम और सुख सुविधा आदि होते है। 6।8 भाव मे शुक्र नीच, शत्रु क्षेत्री, शनि या मंगल से युत हो तो रोग, कलह, वियोग, बंधु, हानि, स्त्री को पीड़ा, शूल रोग, बदनामी आदि फल होते है। यदि दशेश से 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो तो अचानक विपत्ति, झूठे दोषारोपण, प्रमेह-मधुमेह आदि रोग होते है। यदि दूसरे या सप्तम का स्वामी हो तो दुर्घटना या अकाल मृत्यु की संभावना होती है।

 

राहु मे सूर्य - सूर्य स्वक्षेत्री या उच्च का हो या केन्द्र या 5 । 9 । 11 भाव में हो तो धन-धान्य की वृद्धि, कीर्ति, परदेश गमन, राज्याश्रय से धन प्राप्ति, प्रसिद्धि और सम्मान, ग्राम मुखिया की सम्भावना होती है। सूर्य नीच राशि या लग्न या दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे नीच का हो तो ज्वर, अतिसार, कलह, राज द्वेष, नेत्र पीड़ा, अग्नि पीड़ा, झगड़े, राजा के साथ विरोध, यात्रा, दुश्मनो, चोरो, आग आदि से खतरे आदि फल होते है। यदि लग्न, धन, कर्म (1,2, 10) के स्वामियों की सूर्य पर दृष्टि हो तो सरकार द्वारा अच्छी प्रतिष्ठा और प्रोत्साहन और सहायता, विदेशी देशो की यात्रा, देश की संप्रभुता का अधिग्रहण, गहने, महत्वाकांक्षाओ की पूर्ति, बच्चों को खुशी आदि होते है। यदि 2 रे और 7 वे भाव स्वामी हो तो असाध्य रोग हो सकता है। 

 

राहु मे चन्द्र - बलवान चन्द्रमा केंद्र या त्रिकोण या 11 वे हो या स्वग्रही या मित्र राशि मे तो इस दशा काल मे ख़ुशी, धनागम, सम्पत्ति मे वृद्धि, सुख सम्रद्धि होती है। दशेश या लग्न से 6 । 8 । 12 वे या नीच का हो तो अनेक प्रकार के कष्ट, धन हानि, मुकदमा आदि से कष्ट, विवाद होता है। देवी लक्ष्मी की लाभार्थ, पूरे दौर की सफलता, धन और अनाज मे वृद्धि, अच्छी प्रतिष्ठा और देवताओ की पूजा परिणाम होगा, यदि चन्द्र दशा स्वामी से 5 वे, 9 वे, केन्द्र मे या 11 वे स्थान पर हो। 

 

राहु मे मंगल - मंगल केन्द्र या त्रिकोण या 11 भाव, उच्च या स्वग्रही हो तो उसकी दशा मे खेत, घर की वृद्धि, संतान सुख, शरीरिक कष्ट, अकस्मात किसी प्रकार की विपत्ति, नौकरी मे परिवर्तन, उच्च पद की प्राप्ति, खोये हुए धन की वसूली, कृषि उत्पादन मे वृद्धि, घरेलू ईश्वर का आशीर्वाद, अच्छे भोजन का आनंद होता है। यदि मंगल दशा स्वामी से केन्द्र या त्रिकोण या 3, 11 वे भाव मे हो तो लाल रंग के वस्त्र, बच्चो वे नियोक्ता के कल्याण, राजा के दरबारी, सेना मे कमांडर पद पर पदोन्नति, उत्साह, रिश्तेदारो के माध्यम से धन होता है। दशेश से 6 । 8 । 12 वे या पापयुक्त हो तो सहोदर भाई को पीड़ा, हानि, अनेक प्रकार की झन्झटे आती है। मतान्तर से नाना प्रकार के उपद्रव, थकान, मानसिक चिंता, बाधा, स्मरण शक्ति का ह्रास, असफलता पदावनति होती है।


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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।