*॥ पृथ्वीपूजनम् ॥* मातृभूमि पूजन एवं सकल्प विधी

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*॥ पृथ्वीपूजनम् ॥* मातृभूमि पूजन एवं सकल्प विधी

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Ravinder Pareek 13th Jul 2020

*॥ पूजन॥* बायें हाथ की हथेली पर जल लेना, दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों को इकट्ठा करना, उन एकत्रित अँगुलियों को हथेली वाले जल में डुबाना। अब जहाँ- जहाँ मन्त्रोच्चार के सङ्केत हों, वहाँ पहले बायीं ओर फिर दाहिनी ओर के क्रम से स्पर्श करते हुए हर बार में एकत्रित अँगुलियाँ डुबाते और लगाते चलना, यह न्यास कर्म है। इसका प्रयोजन है- शरीर के अति महत्त्वपूर्ण अंगो में पवित्रता की भावना भरना, उनकी दिव्य चेतना को जाग्रत् करना। अनुष्ठान काल में उनके जाग्रत् देवत्व से सारे कृत्य पूरे करना तथा इसके अनन्तर ही इन अवयवों को, इन्द्रियों को सशक्त एवं संयत बनाये रहना। भावना करें कि इन्द्रियों- अंगो में मन्त्र शक्ति के प्रभाव से दिव्य प्रवृत्तियों की स्थापना हो रही है। ईश्वरीय चेतना हमारे आवाहन पर वहाँ विराजित होकर अशुभ का प्रवेश रोकेगी, शुभ को क्रियान्वित करने की प्रखरता बढ़ायेगी।  ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु। (मुख को)  ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)  ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)  ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)  ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)  ॐ ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)  ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु।  (समस्त शरीर पर) - *॥ पृथ्वीपूजनम् ॥* हम जहाँ से अन्न, जल, वस्त्र, ज्ञान तथा अनेक सुविधा- साधन प्राप्त करते हैं, वह मातृभूमि हमारी सबसे बड़ी आराध्या है। हमारे मन में माता के प्रति जैसी अगाध श्रद्धा होती है, वैसी ही मातृभूमि के प्रति भी रहनी चाहिए और मातृ ऋण से उऋण होने के लिए अवसर ढूँढ़ते रहना चाहिए। भावना करें कि धरती माता के पूजन के साथ उसके पुत्र होने के नाते माँ के दिव्य संस्कार हमें प्राप्त हो रहे हैं। माँ विशाल है, सक्षम है। हमें भी क्षेत्र, वर्ग आदि की संकीर्णता से हटाकर विशालता, सहनशीलता, उदारता जैसे दिव्य संस्कार प्रदान कर रही है। दाहिने हाथ में अक्षत (चावल, पुष्प, जल लें, बायाँ हाथ नीचे लगाएँ, मन्त्र बोलें और पूजा वस्तुओं को पात्र में छोड़ दें। धरती माँ को हाथ से स्पर्श करके नमस्कार करें।  ॐ पृथ्वि ! त्वया धृता लोका, देवि ! त्वं विष्णुना धृता।  त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम्॥    - *॥ सङ्कल्पः॥*  हर महत्त्वपूर्ण कर्मकाण्ड के पूर्व सङ्कल्प कराने की परम्परा है, उसके कारण इस प्रकार हैं- अपना लक्ष्य, उद्देश्य निश्चित होना चाहिए। उसकी घोषणा भी की जानी चाहिए। श्रेष्ठ कार्य घोषणापूर्वक किये जाते हैं, हीन कृत्य छिपकर करने का मन होता है। सङ्कल्प करने से मनोबल बढ़ता है। मन के ढीलेपन के कुसंस्कार पर अंकुश लगता है, स्थूल घोषणा से सत्पुरुषों का तथा मन्त्रों द्वारा घोषणा से सत् शक्तियों का मार्गदर्शन और सहयोग मिलता है। सङ्कल्प में गोत्र का उल्लेख भी किया जाता है। गोत्र ऋषि परम्परा के होते हैं। यह बोध किया जाना चाहिए कि हम ऋषि परम्परा के व्यक्ति हैं, तदनुसार उनकी गरिमा के अनुरूप कार्यों को करने का उपक्रम उन्हीं के अनुशासन के अन्तर्गत करते हैं। सङ्कल्प बोलने के पूर्व मास, तिथि, वार आदि सभी की जानकारी कर लेनी चाहिए। बीच में रुक- रुककर पूछना अच्छा नहीं लगता। यहाँ जो सङ्कल्प दिया जा रहा है, वह किसी भी कृत्य के साथ बोला जा सकता है, इसके लिए ‘पूजनपूर्वकं’ के आगे किये जाने वाले कृत्य का उल्लेख करना होता है। जैसे गायत्री यज्ञ, विद्यारम्भ संस्कार, चतुर्विंशतिसहस्रात्मकगायत्रीमन्त्रानुष्ठान आदि। जिस कृत्य का सङ्कल्प करना है, उसे हिन्दी में ही बोलकर ‘कर्म सम्पादनार्थं’ के साथ मिला देने से सङ्कल्प की संस्कृत शब्दावली पूरी हो जाती है। वैसे भिन्न कृत्यों के अनुरूप सङ्कल्प, नामाऽहं के आगे भिन्न- भिन्न निर्धारित वाक्य बोलकर भी पूरा किया जा सकता है। सामूहिक पर्वों, साप्ताहिक यज्ञों आदि में सङ्कल्प नहीं भी बोले जाएँ, तो कोई हर्ज नहीं।  *ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये प्ररार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोेके, जम्बूद्वीपे, भारतवर्षे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते, .......... क्षेत्रे, ...... स्थले .......... विक्रमसंवत्सरे मासानां मासोत्तमेमासे .......... मासे .......... पक्षे .......... तिथौ .......... वासरे .......... गोत्रोत्पन्नः .......... नामाऽहं सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धनाय, दुष्प्रवृत्ति- उन्मूलनाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याणाय, वातावरण -परिष्काराय, उज्ज्वलभविष्यकामनापूर्तये च प्रबलपुरुषार्थं करिष्ये, अस्मै प्रयोजनाय च कलशादि- आवाहितदेवता- पूजनपूर्वकम् .......... कर्मसम्पादनार्थं सङ्कल्पम् अहं करिष्ये।* *॥ यज्ञोपवीत परिवर्तनम्॥* यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध भी कहते हैं। यह व्रतशील जीवन के उत्तरदायित्व का बोध कराने वाला पुण्य प्रतीक है। विशेष यज्ञ संस्कार आदि आयोजनों के अवसर पर उसमें भाग लेने वालों का यज्ञोपवीत बदलवा देना चाहिए। साप्ताहिक यज्ञों में यह आवश्यक नहीं। नवरात्रि आदि अनुष्ठानों के संकल्प के समय यदि यज्ञोपवीत बदला गया है, तो पूर्णाहुति आदि में फिर न बदला जाए। व्यक्तिगत संस्कारों आदि में प्रमुख पात्रों का, बच्चों के अभिभावकों आदि का यज्ञोपवीत बदलवा देना चाहिए। यदि वे यज्ञोपवीत पहने ही न हों, तो कम से कम कृत्य के लिए अस्थाई रूप से पहना देना चाहिए। वे चाहें, तो स्थाई भी करा लें।  यज्ञोपवीत बदलने के लिए यज्ञोपवीत का मार्जन किया जाए। यज्ञोपवीत संस्कार की तरह पाँच देवों का आवाहन- स्थापन उसमें किया जाए, फिर यज्ञोपवीत धारण मन्त्र के साथ साधक स्वयं ही पहन लें। पुराना यज्ञोपवीत दूसरे मन्त्र के साथ सिर की ओर से ही उतार दिया जाए। पुराने यज्ञोपवीत को जल में विसर्जित कर दिया जाता है अथवा पवित्र भूमि में गाड़ दिया जाता है।  *॥ यज्ञोपवीतधारणम्॥* निम्न मन्त्र बोलकर नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।  ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।  आयुष्यग्रयं प्रतिमुञ्च शुभं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।   - ॥ जीर्णोपवीत विसर्जनम्॥ निम्न मन्त्र पाठ करते हुए पुराना यज्ञोपवीत गले में से ही होकर निकालना चाहिए।  ॐ एतावद्दिनपर्यन्तं, ब्रह्म त्वं धारितं मया।  जीर्णत्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथा सुखम्॥  *॥ चन्दनधारणम्॥* मस्तिष्क को शान्त, शीतल एवं सुगन्धित रखने की आवश्यकता का स्मरण कराने के लिए चन्दन धारण किया जाता है। अन्तःकरण में ऐसी सद्भावनाएँ भरी होनी चाहिए, जिनकी सुगन्ध से अपने को सन्तोष एवं दूसरों को आनन्द मिले।  भावना करें कि जिस महाशक्ति ने चन्दन को शीतलता- सुगन्धि दी है, उसी की कृपा से हमें भी वे तत्त्व मिल रहे हैं, जिनके आधार पर हम चन्दन की तरह ईश्वर सान्निध्य के अधिकारी बन सकें।    इन भावनाओं के साथ यज्ञकर्त्ताओं एवं उपस्थित लोगों के मस्तक पर चन्दन या रोली लगाया जाए।  ॐ चन्दनस्य महत्पुण्यं, पवित्रं पापनाशनम्।  आपदां हरते नित्यम्, लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा॥ *॥ रक्षासूत्रम्॥* यह वरण सूत्र है। आचार्य की ओर से प्रतिनिधियों द्वारा बाँधा जाना चाहिए। पुरुषों तथा अविवाहित कन्याओं के दायें हाथ में तथा महिलाओं के बायें हाथ में बाँधा जाता है। जिस हाथ में कलावा बाँधें, उसकी मुट्ठी बँधी हो, दूसरा हाथ सिर पर हो। इस पुण्य कार्य के लिए व्रतशील बनकर उत्तरदायित्व स्वीकार करने का भाव रखा जाए।  ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।  दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते॥    - *॥ कलशपूजनम्॥* पूजा- पीठ पर कलश रखा जाता है। यह धातु का होना चाहिए। कण्ठ में कलावा बँधा, पुष्पों से सुसज्जित, जल से भरे कलश के ऊपर कटोरी में ऊपर की ओर मुख वाली बत्ती का दीपक जला कर रखें।  यह कलश विश्व ब्रह्माण्ड का, विराट् ब्रह्म का, भू पिण्ड (ग्लोब) का प्रतीक है। इसे शान्ति और सृजन का सन्देशवाहक कह सकते हैं। सम्पूर्ण देवता कलशरूपी पिण्ड या ब्रह्माण्ड में व्यष्टि या समष्टि में एक साथ समाये हुए हैं। वे एक हैं, एक ही शक्ति से सुसम्बन्धित हैं। बहुदेववाद वस्तुतः एक देववाद का ही एक रूप है। एक माध्यम में, एक ही केन्द्र में समस्त देवताओं को देखने के लिए कलश की स्थापना है। जल जैसी शीतलता, शान्ति एवं दीपक जैसे तेजस्वी पुरुषार्थ की क्षमता हम सबमें ओत- प्रोत हो, यही दीपयुक्त कलश का सन्देश है। दीप को यज्ञ और जल कलश को गायत्री का प्रतीक माना जाता है। यह दो आधार भारतीय धर्म के उद्गम स्रोत माता- पिता हैं। इसी से इनकी स्थापना- पूजा धर्मानुष्ठान में की जाती है। पूजन के मन्त्र बोलने के साथ- साथ कलश का पूजन किया जाए। कोई एक व्यक्ति ही प्रतिनिधि रूप में कलश पूजन करें, शेष सब लोग भावनापूर्वक हाथ जोड़ें।  ॐ तत्त्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानः, तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश œ, समानऽआयुः प्रमोषीः।     - ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य, बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं,  यज्ञ œ समिमं दधातु। विश्वेदेवासऽइह   मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ।। ॐ वरुणाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।           - तत्पश्चात् जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से कलश का पूजन करें।  गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।  ॐ कलशस्थ देवताभ्यो नमः।  तदुपरान्त निम्नलिखित मन्त्र से हाथ जोड़कर कलश में प्रतिष्ठित देवताओं की प्रार्थना करें।  *॥ कलश प्रार्थना॥*  ॐ कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।  मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृगणाः स्मृताः ॥ १॥  कुक्षौ तु सागराः सर्वे, सप्तद्वीपा वसुन्धरा।  ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः, सामवेदो ह्यथर्वणः    ॥ २॥ अंगैश्च सहिताः सर्वे, कलशन्तु समाश्रिताः।  अत्र गायत्री सावित्री, शान्ति - पुष्टिकरी सदा॥ ३॥  त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि, त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।  शिवः स्वयं त्वमेवासि, विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः॥ ४॥  आदित्या वसवो रुद्रा, विश्वेदेवाः सपैतृकाः।  त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि, यतः कामफलप्रदाः॥ ५॥  त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं, कर्तुमीहे जलोद्भव।  सान्निध्यं कुरु मे देव ! प्रसन्नो भव सर्वदा ॥ ६॥  *॥ दीपपूजनम् ॥* कलश के साथ दीपक भी पूजा- वेदी पर रखा जाता है। इसे सर्वव्यापी चेतना का प्रतीक मानकर पूजना चाहिए। वैज्ञानिक भी यह स्वीकार करने लगे हैं कि मूलतः चेतना से पदार्थ बना है, पदार्थ से चेतना नहीं। उस महाचेतन ज्योतिरूप, परम प्रकाश का पूजन- आराधन दीपक के माध्यम से करें।  ॐ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा। सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा। अग्निर्वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा। सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा। ज्योतिः सूर्य्यः सूर्य्यो ज्योतिः स्वाहा।      -३.९  *॥ देवावाहनम्॥*  देव शक्तियाँ- आदि शक्ति की, परब्रह्म की विभिन्न धाराएँ हैं। शरीर एक है, उसमें रक्त परिभ्रमण संस्थान, पाचन संस्थान, वायु संचार संस्थान, विचार संस्थान आदि अनेक संस्थान हैं। वे सब स्वतन्त्र हैं और आपस में जुड़े हुए भी। इसी प्रकार सृष्टि सन्तुलन व्यवस्था के लिए इस विराट् सत्ता की विभिन्न चेतन धाराएँ विभिन्न उत्तरदायित्व सँभालती हैं। उन्हें ही देव शक्तियाँ कहा जाता है। ईश्वरेच्छा, दिव्य योजना के अनुरूप हर कार्य में उनका सहयोग अपेक्षित भी है और वह प्राप्त भी होता है। इसलिए सत्कार्यों में देव शक्तियों के आवाहन पूजन का विधि- विधान सम्मिलित रहता है। साधकों के पुरुषार्थ के साथ वह दिव्य सहयोग भी जुड़ सके, इसके लिए श्रद्धा भाव युक्त देव पूजन किया जाता है।  सभी उपस्थित जनों से निवेदन किया जाए कि वे पूजा में सम्मिलित रहें। पूजन कृत्य भले ही एक प्रतिनिधि करें, परन्तु देवों की प्रसन्नता सबकी भावना के संयोग के बिना नहीं पायी जा सकती है। ‘भावे हि विद्यते देवाः तस्माद् भावो हि कारणम्’ के अनुसार भाव संयोग से ही पूजन में शक्ति आती है। सबका ध्यान आकर्षित करते हुए उन्हें भाव सूत्र में बाँधकर पूजन क्रम चलाया जाए। हर देवशक्ति का भाव चित्रण करके मन्त्र बोलें। मन्त्र के साथ पूजा करें, सभी भावनापूर्वक आवाहन, ध्यान एवं नमस्कार करते रहें।  यहाँ प्रत्येक मन्त्र के पूर्व उससे सम्बद्ध देवशक्ति का स्वरूप एवं महत्त्व समझाया गया है और अन्त में आवाहन- स्थापन का निवेदन किया गया है। बड़े यज्ञों में इस क्रम को चलाने से वातावरण अधिक प्रखर और भावभरा बनता है। यदि संक्षिप्त आयोजन है, तो उसमें संक्षिप्त हवन पद्धति के ढंग से केवल मन्त्र बोलते हुए आगे बढ़ा जा सकता है। समय और परिस्थितियाँ देखते हुए विस्तार या संक्षिप्तीकरण का निर्णय विवेकपूर्वक कर लेना चाहिए।  गुरु- परमात्मा की दिव्य चेतना का वह अंश जो साधकों का मार्गदर्शन और सहयोग करने के लिए व्यक्त होता है।  ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।  गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः               ॥ १॥  अखण्डमण्डलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।  तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः           ॥ २॥   -   मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका।  नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धा- प्रज्ञायुता च या    ॥ ३॥  ॐ श्री गुरवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।  गायत्री- वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता- सद्ज्ञान, सद्भाव की अधिष्ठात्री सृष्टि की आदिकारण मातेश्वरी। ॐ आयातु वरदे देवि! त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।  गायत्रिच्छन्दसां मातः, ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते     ॥ ४॥   - ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। ततो नमस्कारं करोमि।  ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्। आयुः प्राणं प्रजां पशुं, कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।           - अथर्व गणेश- विवेक के प्रतीक, विघ्नविनाशक प्रथम पूज्य—  ॐ अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं, पूजितो यः सुरासुरैः।  सर्वविघ्नहरस्तस्मै, गणाधिपतये नमः         ॥ ५॥  गौरी- श्रद्धा, निर्विकारिता, पवित्रता की प्रतीक मातृशक्ति—  सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये, शिवे सर्वार्थसाधिके!  शरण्ये त्र्यम्बके गौरि, नारायणि! नमोऽस्तु ते ॥ ६॥ हरि— हृदयस्थ सत्प्रेरणा के स्रोत खोलने वाले करुणानिधान—  शुक्लाम्बरधरं देवं, शशिवर्णं चतुर्भुजम्।  प्रसन्नवदनं ध्यायेत्, सर्वविघ्नोपशान्तये॥ ७॥  - सर्वदा सर्वकार्येषु, नास्ति तेषाममङ्गलम्।  येषां हृदिस्थो भगवान्, मङ्गलायतनो हरिः॥ ८॥ सप्तदेव — सप्तलोकों एवं सप्तद्वीपा वसुन्धरा का सन्तुलन रखने वाली सात महाशक्तियों का युग्म—  विनायकं गुरुं भानुं, ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान्।  सरस्वतीं प्रणौम्यादौ, शान्तिकार्यार्थसिद्धये॥ ९॥  पुण्डरीकाक्ष— कमल जैसी निर्विकार, निर्दोष भावना एवं अन्तर्दृष्टि देने वाले भक्तवत्सल—  मङ्गलं भगवान् विष्णुः, मङ्गलं गरुडध्वजः।  मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो, मङ्गलायतनो हरिः॥ १०॥  ब्रह्मा— सृष्टिकर्त्ता, निर्माण की क्षमता के आदि स्रोत—  त्वं वै चतुर्मुखो ब्रह्मा, सत्यलोकपितामहः।  आगच्छ मण्डले चास्मिन्, मम सर्वार्थसिद्धये॥ ११॥  विष्णु— पालन करने वाले, साधनों को सार्थक बनाने वाले प्रभु—  शान्ताकारं भुजगशयनं, पद्मनाभं सुरेशं,  विश्वाधारं गगनसदृशं, मेघवर्णं शुभाङ्गम्।  लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं, योगिभिर्ध्यानगम्यं,  वन्दे विष्णुं भवभयहरं, सर्वलोकैकनाथम्॥ १२॥  शिव— परिवर्तन, अनुशासन के सूत्रधार, कल्याण के दाता—  वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम्,  वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं, वन्दे पशूनाम्पतिम्।  वन्दे सूर्यशशाङ्कवह्निनयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् ,  वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवं शङ्करम् ॥ १३॥ त्र्यम्बक— बन्धन- मृत्यु से ऊपर उठाकर मुक्ति प्रदात्री सत्ता—  ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।  उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥ १४॥ -यजु० ३.६०  दुर्गा—सङ्गठन, सहकार, सत्साहस आदि की अधिष्ठात्री मातृशक्ति—  दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः,  स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।  दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या,  सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥ १५॥  सरस्वती— अज्ञान, नीरसता हटाने वाली, ज्ञान- कला की देवी माँ— शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमाम्, आद्यां जगद्व्यापिनीम्,  वीणापुस्तकधारिणीमभयदां, जाड्यान्धकारापहाम्।  हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं, पद्मासने संस्थिताम्,  वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं, बुद्धिप्रदां शारदाम्॥ १६॥  लक्ष्मी— साधनों तथा धन- वैभव की अधिष्ठात्री माँ—  आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेममालिनीम्।  सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो मऽआवह॥ १७॥  काली— अकल्याणकारी वृत्तियों का संहार करने में समर्थ चेतना— कालिकां तु कलातीतां, कल्याणहृदयां शिवाम्।  कल्याणजननीं नित्यं, कल्याणीं पूजयाम्यहम्॥ १८॥  गंगा— अपवित्रता एवं पापवृत्तियों का हरण तथा शमन करने वाली दिव्यधारा—  विष्णुपादाब्जसम्भूते, गङ्गे त्रिपथगामिनि।  धर्मद्रवेति विख्याते, पापं मे हर जाह्नवि ॥ १९॥  तीर्थ— मानवी अन्तःकरण में सत्प्रवृत्तियों, सदिच्छाओं का बीजारोपण एवं विकास करने में समर्थ दिव्य प्रवाह—  पुष्करादीनि तीर्थानि, गङ्गाद्याः सरितस्तथा।  आगच्छन्तु पवित्राणि, पूजाकाले सदा मम॥ २०॥  नवग्रह— विश्व की जड़- चेतन प्रकृति में तालमेल, सूत्रबद्धता प्रदान करने वाली सामर्थ्यों के प्रतीक—  ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारी, भानुः शशीभूमिसुतो बुधश्च।  गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः, सर्वेग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु ॥ २१॥  षोडशमातृका— अन्तरङ्ग एवं अन्तरिक्ष में विद्यमान १६ कल्याणकारी शक्तियों का युग्म—  गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया।  देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः ॥ २२॥  धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः, आत्मनः कुलदेवता।  गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥ २३॥  सप्तमातृका— सात महाशक्तियाँ, जिनका नियोजन मंगल कार्यों में करने से वे माता की तरह संरक्षण देती हैं—  कीर्तिर्लक्ष्मीर्धृतिर्मेधा, सिद्धिः प्रज्ञा सरस्वती।  माङ्गल्येषु प्रपूज्याश्च, सप्तैता दिव्यमातरः॥ २४॥  वास्तुदेव— वस्तुओं में अदृश्य रूप से सन्निहित चेतनाशक्ति—  नागपृष्ठसमारूढं, शूलहस्तं महाबलम्।  पातालनायकं देवं, वास्तुदेवं नमाम्यहम्॥ २५॥  क्षेत्रपाल— विभिन्न क्षेत्रों में देवत्व का संचार करने वाली सूक्ष्म सत्ता—  क्षेत्रपालान्नमस्यामि, सर्वारिष्टनिवारकान्।  अस्य यागस्य सिद्ध्यर्थं, पूजयाराधितान् मया॥ २६॥


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Chander Mukhi

Good article


Chander Mukhi

Thanks sir ji


Suman Sharma

very good knowledge


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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

न भारतीयो नववत्सरोSयं तथापि सर्वस्य शिवप्रद: स्यात् । यतो धरित्री निखिलैव माता तत: कुटुम्बायितमेव विश्वम् ।। *यद्यपि यह नव वर्ष भारतीय नहीं है। तथापि सबके लिए कल्याणप्रद हो ; क्योंकि सम्पूर्ण धरा माता ही है।*- ”माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या:” *अत एव पृथ्वी के पुत्र होने के कारण समग्र विश्व ही कुटुम्बस्वरूप है।* पाश्चातनववर्षस्यहार्दिकाःशुभाशयाः समेषां कृते ।। ------------------------------------- स्वत्यस्तु ते कुशल्मस्तु चिरयुरस्तु॥ विद्या विवेक कृति कौशल सिद्धिरस्तु ॥ ऐश्वर्यमस्तु बलमस्तु राष्ट्रभक्ति सदास्तु॥ वन्शः सदैव भवता हि सुदिप्तोस्तु ॥ *आप सभी सदैव आनंद और, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें*... *विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें,* ऐश्वर्य व बल को प्राप्त करें तथा राष्ट्र भक्ति भी सदा बनी रहे, आपका वंश सदैव तेजस्वी बना रहे.. *अंग्रेजी नव् वर्ष आगमन की पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं* ज्योतिषाचार्य बृजेश कुमार शास्त्री

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।