*श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)*

Share

Astro Rakesh Periwal 13th Jul 2021

*श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण)*
(तृतियोध्याय)
।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।
〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
सेनापतियोंसहित महिषासुर का वध

ध्यानम्

ॐ उद्यद्भानुसहस्त्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्त पयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्।

हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं
देवीं बद्धहिमांशुरलमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ॥
'ॐ' ऋषिरुवाच॥ १॥

जगदम्बा के श्रीअंगों की कान्ति उदयकाल के सहस्रों सूर्यों के समान है। वे लाल रंगकी रेशमी साड़ी पहने हुए हैं। उनके गले में मुण्डमाला शोभा पा रही है। दोनों स्तनों पर रक्त चन्दन का लेप लगा है। वे अपने कर-
कमलों में जपमालिका, विद्या और अभय तथा वर नामक मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। तीन नेत्रोंसे सुशोभित मुखारविन्द की बड़ी शोभा हो रही है। उनके मस्तक पर चन्द्रमा के साथ ही रत्नमय मुकुट बँधा है तथा वे कमल के आसन पर विराजमान हैं। ऐसी देवी को मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ।
ऋषि कहते हैं-॥ १ ॥ 

निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः।
सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धुमथाम्बिकाम् ॥ २॥

दैत्यों की सेना को इस प्रकार तहस-नहस होते देख महादैत्य सेनापति चिक्षुर क्रोध में भरकर अम्बिकादेवी से युद्ध करने के लिये आगे बढ़ा॥ २॥ 

स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः।
यथा मेरुगिरेः श्रृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः॥ ३॥

वह असुर रणभूमिमें देवीके ऊपर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगा, जैसे बादल मेरुगिरिके शिखरपर पानी की धार बरसा रहा हो॥ ३ ॥

तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान्।
जघान तुरगान् बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम् ॥ ४ ॥

तब देवी ने अपने बाणों से उसके बाण समूह को अनायास ही काटकर उसके घोड़ों और सारथि को भी मार डाला॥४ ॥

चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्रितम्।
विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः ॥ ५ ॥

साथ ही उसके धनुष तथा अत्यन्त ऊँची ध्वजा को भी तत्काल काट गिराया। धनुष कट जाने पर उसके अंगों को अपने बाणों से बींध डाला॥ ५ ॥

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथि: । 
अभ्यधावत तां देवीं खड्गचर्मधरोऽसुरः॥ ६॥

धनुष, रथ, घोड़े और सारथि के नष्ट हो जानेपर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवी की ओर दौड़ा ॥ ६॥

सिंहमाहत्य खड्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि ।
आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान् ॥ ७॥

उसने तीखी धारवाली तलवारसे सिंहके मस्तकपर चोट करके देवीकी भी बायीं भुजा में बड़े वेग से प्रहार किया॥ ७ ॥

तस्याः खड्गो भुरजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन।
ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचन: ॥ ८ ॥

राजन्! देवीकी बाँह पर पहुँचते ही वह तलवार टूट गयी, फिर तो क्रोध से लाल आँखें करके उस राक्षस ने शूल हाथ में लिया॥ ८ ॥

चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः ।
जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात् ॥ ९ ॥

और उसे उस महादैत्य ने भगवती
भद्रकाली के ऊपर चलाया। वह शूल आकाश से गिरते हुए सूर्यमण्डल की
भाँति अपने तेज से प्रज्वलित हो उठा।॥ ९ ॥

दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत। 
तच्छूलं* शतधा तेन नीतं स च महासुरः॥ १० ॥

उस शूल को अपनी ओर आते देख देवी ने भी शूल का प्रहार किया। उससे
राक्षस के शूल के सैकड़ों टुकड़े हो गये, साथ ही महादैत्य चिक्षुर की भी धज्जियाँ
उड़ गयीं। वह प्राणों से हाथ धो बैठा ॥ १०॥

हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ । 
आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशाद्दनः ॥ ११ ॥
सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम् । 
हुंकाराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम् ॥ १२ ॥

महिषासुर के सेनापति उस महापराक्रमी चिक्षुर के मारे जाने पर देवताओं को
पीड़ा देने वाला चामर हाथी पर चढ़कर आया । उसने भी देवी के ऊपर शक्ति का प्रहार किया, किंतु जगदम्बा ने उसे अपने हुँकार से ही आहत एवं निष्प्रभ करके तत्काल पृथ्वी पर गिरा दिया ॥ ११-१२॥

भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वतः। 
चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत् ॥ १३ ॥

शक्ति टूटकर गिरी हुई देख चामर को बड़ा क्रोध हुआ। अब उसने शूल चलाया, किंतु देवी ने उसे भी अपने बाणों द्वारा काट डाला।॥ १३ ॥

ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः ।
बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा ॥ १४॥

इतने में ही देवी का सिंह
उछलकर हाथी के मस्तक पर चढ़ बैठा और उस दैत्य के साथ खूब जोर लगाकर
बाहुयुद्ध करने लगा॥ १४॥

युद्धयमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ।
युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥ १५।।

वे दोनों लड़ते-लड़ते हाथीसे पृथ्वीपर आ गये और अत्यन्त क्रोध में भरकर एक-दूसरे पर बड़े भयंकर प्रहार करते हुए लड़ने
लगे॥ १५॥

ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा । 
करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक्कृतम्॥ १६॥

तदनन्तर सिंह बड़े वेग से आकाश की ओर उछला और उधर से गिरते समय उसने पंजों की मार से चाम रका सिर धड़ से अलग कर दिया॥ १६॥

उदग्रश्च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः।
दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः ॥ १७॥

इसी प्रकार उदग्र भी शिला और वृक्ष आदि की मार खाकर रणभूमि में देवी के हाथ से मारा गया तथा कराल भी दांतो, मुक्कों और थप्पड़ों की चोट से धराशायी हो गया॥ १७॥ 

देवी क्रुद्धा गदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम् ।
वाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम् ॥ १८॥

क्रोधमें भरी हुई देवी ने गदा की चोट से उद्धत का कचूमर निकाल डाला। भिन्दिपाल से वाष्कल को तथा बाणों से ताम्र और अन्धक को मौत के घाट उतार दिया॥ १८॥ 

उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम्। ल्लोगं
त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी ॥ १९ ॥

तीन नेत्रोंवाली परमेश्वरी ने त्रिशूल से उग्रास्य, उग्रवीर्य तथा महाहनु नामक दैत्यों को मार डाला॥ १९ ॥

बिडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः।
दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम् * ॥ २०॥

तलवार की चोट से विडाल के मस्तक को धड़ से काट गिराया। दुर्धर और दुर्मुख- इन दोनों को भी अपने बाणों से यमलोक भेज दिया॥ २० ॥

एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः।
माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान्॥२१॥

इस प्रकार अपनी सेना का संहार होता देख महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण करके देवी के गणों को त्रास देना आरम्भ किया॥ २१ ॥ 

कांश्चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान्।
लाङ्गूलताडितांश्चान्याञ्छृङ्गाभ्यां च विदारितान् ॥ २२॥
वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च।
निःश्वासपवनेनान्यान् पातयामास भूतले ॥ २३॥

किन्हीं को थूथुन से मारकर, किन्हीं के ऊपर खुरों का प्रहार करके, किन्हीं-किन्हीं को पूँछ से चोट पहुँचाकर, कुछ को सींगों से विदीर्ण करके, कुछ गणों को वेग से, किन्हीं को सिंहनाद से, कुछ को चक्कर देकर और कितनों को नि:श्वास-वायु के झोंके से धराशायी कर दिया॥ २२-२३॥

निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः ।
सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका ॥ २४॥

इस प्रकार गणों की सेना को गिराकर वह असुर महादेवी के सिंह को मारने के लिये झपटा। इससे जगदम्बा को बड़ा क्रोध हुआ॥ २४॥

सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतल:।
शृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च ॥ २५ ॥

उधर महापराक्रमी महिषासुर भी क्रोध में  भरकर धरती को खुरों से खोदने लगा तथा अपने सींगों से ऊँचे-ऊँचे पर्वतों को उठाकर फेंकने और गर्जने लगा॥ २५ ॥

वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत ।
लाङ्गूलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः ॥ २६॥

उसके वेग से चक्कर देने के कारण पृथ्वी क्षुब्ध होकर फटने लगी। उसकी पूँछ से टकराकर समुद्र सब ओर से धरती को डुबोने लगा॥ २६ ॥

धुतश्रृंङ्गविभिन्नाश्च खण्डं* खण्डं ययुर्घनाः ।
श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचला: ॥ २७ ॥

हिलते हुए सींगों के आघात से विदीर्ण होकर बादलों के टुकड़े-टुकड़े हो गये।
उसके श्वास की प्रचण्ड वायु के वेग से उड़े हुए सैकड़ों पर्वत आकाश से गिरने लगे॥ २७॥ 

इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम्।
दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत्॥ २८॥

इस प्रकार क्रोधमें भरे हुए उस महादैत्य को अपनी ओर आते देख चण्डिका ने उसका वध करने के लिये महान् क्रोध किया॥ २८॥

सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम्।
तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे ॥ २९ ॥

उन्होंने पाश फेंककर उस महान् असुर को बाँध लिया। उस महासंग्राम में बँध
जाने पर उसने भैंसे का रूप त्याग दिया॥ २९ ॥

ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः।
छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत ॥ ३० ।।

और तत्काल सिंह के रूप में वह प्रकट हो गया। उस अवस्था में जगदम्बा ज्यों ही उसका मस्तक काटने के लिये उद्यत हुईं, त्यों ही वह खड्गधारी पुरुष के रूप में दिखायी देने लगा॥ ३० ॥

तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकै: ।
तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः॥ ३१ ।।

तब देवी ने तुरंत ही बाणों की वर्षा करके ढाल और तलवार के साथ उस पुरुष को भी बींध डाला। इतने में ही वह महानु गजराज के रूप में परिणत हो गया॥ ३१ ॥

करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च।
कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत॥ ३२॥

तथा अपनी सूँड्से देवीके विशाल सिंह को खींचने और गर्जने लगा। खींचते समय देवी ने तलवार से उसकी सूँड़ काट डाली॥ ३२ ॥

ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः ।
तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम्॥ ३३॥

तब उस महादैत्य ने पुनः भैंसे का शरीर धारण कर लिया और पहले की ही भाँति चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों को व्याकुल करने लगा ॥ ३३ ॥

ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुक्तमम्। 
पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना ॥ ३४॥

तब क्रोध में भरी हुई जगन्माता चण्डिका बारंबार उत्तम मधु का पान करने और लाल आँखें करके हँसने लगीं॥ ३४॥

ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्धतः । 
विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान्॥ ३५॥

उधर वह बल और पराक्रम के मद से उन्मत्त हुआ राक्षस गर्जने लगा और अपने सींगों से चण्डी के ऊपर पर्वतों को फेंकने लगा॥ ३५ ॥

सा च तान् प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः। 
उवाच तं मदोद्धूतमुखरागाकुलाक्षरम् ॥ ३६॥

उस समय देवी अपने बाणों के समूहों से उसके फेंके हुए पर्वतों को चूर्ण करती हुई
बोलीं। बोलते समय उनका मुख मधु के मद से लाल हो रहा था और वाणी लड़खड़ा रही थी॥ ३६॥

देव्युवाच॥ ३७॥
देवीने कहा-॥ ३७॥

गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् । 
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ॥ ३८ ॥

ओ मूढ़ ! मैं जब तक मधु पीती हूँ, तब तक तू क्षणभर के लिये खूब गर्ज ले। मेरे हाथ से यहीं तेरी मृत्यु हो जाने पर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे ॥ ३८॥

ऋषिरुवाच॥ ३९॥
ऋषि कहते हैं-॥३९॥

एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम्। 
पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत् ॥ ४०॥

यों कहकर देवी उछलीं और उस महादैत्य के ऊपर चढ़ गयीं। फिर अपने पैर से उसे दबाकर उन्होंने शूल से उसके कण्ठ में
आघात किया॥ ४०॥

ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः ।
अर्धनिष्क्रान्त एवासीद् देव्या वीर्येण संवृत: ॥ ४१ ।।

उनके पैर से दबा होने पर भी महिषासुर अपने मुख से [दूसरे रूप में बाहर होने लगा] अभी आधे शरीर से ही वह बाहर निकलने पाया था कि देवी ने अपने प्रभाव से उसे रोक दिया॥ ४१ ॥

अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः।
तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातित: २ ॥ ४२॥

आधा निकला होने पर भी वह महादैत्य देवी से युद्ध करने लगा। तब देवी ने बहुत बड़ी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया ॥ ४२ ॥

ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत् ।
प्रहर्ष च परं जग्मुः सकला देवतागणाः ॥ ४३॥

फिर तो हाहाकार करती हुई दैत्यों की
सारी सेना भाग गयी तथा सम्पूर्ण देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये॥ ४३॥

तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः । 
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ॐ॥ ४४॥

देवताओं ने दिव्य महर्षियों के साथ दुर्गादेवी का स्तवन किया। गन्धर्वराज गाने लगे तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥ ४४॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः॥ ३॥।

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'महिषासुरवध' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥ ३॥


Like (1)

Comments

Post

Brajeshshastri

जय माता दी


Latest Posts

यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

न भारतीयो नववत्सरोSयं तथापि सर्वस्य शिवप्रद: स्यात् । यतो धरित्री निखिलैव माता तत: कुटुम्बायितमेव विश्वम् ।। *यद्यपि यह नव वर्ष भारतीय नहीं है। तथापि सबके लिए कल्याणप्रद हो ; क्योंकि सम्पूर्ण धरा माता ही है।*- ”माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या:” *अत एव पृथ्वी के पुत्र होने के कारण समग्र विश्व ही कुटुम्बस्वरूप है।* पाश्चातनववर्षस्यहार्दिकाःशुभाशयाः समेषां कृते ।। ------------------------------------- स्वत्यस्तु ते कुशल्मस्तु चिरयुरस्तु॥ विद्या विवेक कृति कौशल सिद्धिरस्तु ॥ ऐश्वर्यमस्तु बलमस्तु राष्ट्रभक्ति सदास्तु॥ वन्शः सदैव भवता हि सुदिप्तोस्तु ॥ *आप सभी सदैव आनंद और, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें*... *विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें,* ऐश्वर्य व बल को प्राप्त करें तथा राष्ट्र भक्ति भी सदा बनी रहे, आपका वंश सदैव तेजस्वी बना रहे.. *अंग्रेजी नव् वर्ष आगमन की पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं* ज्योतिषाचार्य बृजेश कुमार शास्त्री

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।

Top