Super Science Of Gayatri गायत्री महाविज्ञान से शक्तिकोश

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Super Science Of Gayatri गायत्री महाविज्ञान से शक्तिकोश

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Ravinder Pareek 26th Jun 2020

गायत्री महाविज्ञान गायत्री साधना से शक्तिकोशों का उद्भव पिछले पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि गायत्री कोई देवी- देवता, भूत- पलीत आदि नहीं, वरन् ब्रह्म की स्फुरणा से उत्पन्न हुई आद्यशक्ति है, जो संसार के प्रत्येक पदार्थ का मूल कारण है और उसी के द्वारा जड़- चेतन सृष्टि में गति, शक्ति, प्रगति- प्रेरणा एवं परिणति होती है। जैसे घर में रखे हुए रेडियो यन्त्र का सम्बन्ध विश्वव्यापी ईथर तरंगों से स्थापित करके देश- विदेश में होने वाले प्रत्येक ब्राडकास्ट को सरलतापूर्वक सुन सकते हैं, उसी प्रकार आत्मशक्ति का विश्वव्यापी गायत्री शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके सूक्ष्म प्रकृति की सभी हलचलों को जान सकते हैं; और सूक्ष्म शक्ति को इच्छानुसार मोड़ने की कला विदित होने पर सांसारिक, मानसिक और आत्मिक क्षेत्र में प्राप्त हो सकने वाली सभी सम्पत्तियों को प्राप्त कर सकते हैं। जिस मार्ग से यह सब हो सकता है, उसका नाम है- *साधना* । गायत्री साधना क्यों? कई व्यक्ति सोचते हैं कि हमारा उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति, आत्म- दर्शन और जीवन मुक्ति है। हमें गायत्री के, सूक्ष्म प्रकृति के चक्कर में पडऩे से क्या प्रयोजन है? हमें तो केवल ईश्वर आराधना करनी चाहिए। सोचने वालों को जानना चाहिए कि ब्रह्म सर्वथा निर्विकार, निर्लेप, निरञ्जन, निराकार, गुणातीत है। वह न किसी से प्रेम करता है, न द्वेष। वह केवल द्रष्टा एवं कारण रूप है। उस तक सीधी पहुँच नहीं हो सकती, क्योंकि जीव और ब्रह्म के बीच सूक्ष्म प्रकृति (एनर्जी) का सघन आच्छादन है। इस आच्छादन को पार करने के लिए प्रकृति के साधनों से ही कार्य करना पड़ेगा। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, कल्पना, ध्यान, सूक्ष्म शरीर, षट्चक्र, इष्टदेव की ध्यान प्रतिमा, भक्ति, भावना, उपासना, व्रत, अनुष्ठान, साधना यह सभी तो माया निर्मित ही हैं। *इन सभी को छोड़कर ब्रह्म प्राप्ति किस प्रकार होनी सम्भव है?* जैसे ऊपर आकाश में पहुँचने के लिए वायुयान की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति के लिए भी प्रतिमामूलक आराधना का आश्रय लेना पड़ता है। गायत्री के आचरण में होकर पार जाने पर ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। सच तो यह है कि साक्षात्कार का अनुभव गायत्री के गर्भ में ही होता है। इससे ऊपर पहुँचने पर सूक्ष्म इन्द्रियाँ और उनकी अनुभव शक्ति भी लुप्त हो जाती है। इसलिए मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति चाहने वाले भी ‘गायत्री मिश्रित ब्रह्म की, राधेश्याम, सीताराम, लक्ष्मीनारायण की ही उपासना करते हैं। निर्विकार ब्रह्म का सायुज्य तो तभी होगा, जब ब्रह्म ‘बहुत से एक होने’ की इच्छा करेगा और सब आत्माओं को समेटकर अपने में धारण कर लेगा। उससे पूर्व सब आत्माओं का सविकार ब्रह्म में ही सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य आदि हो सकता है। इस प्रकार गायत्री मिश्रित सविकार ब्रह्म ही हमारा उपास्य रह जाता है। उसकी प्राप्ति के साधन जो भी होंगे, वे सभी सूक्ष्म प्रकृति गायत्री द्वारा ही होंगे। इसलिए ऐसा सोचना उचित नहीं कि ब्रह्म प्राप्ति के लिए गायत्री अनावश्यक है। वह तो अनिवार्य है। नाम से कोई उपेक्षा या विरोध करे, यह उसकी इच्छा, पर गायत्री तत्त्व से बचकर अन्य मार्ग से जाना असंभव है। कई व्यक्ति कहते हैं कि हम निष्काम साधना करते हैं। हमें किसी फल की कामना नहीं, फिर सूक्ष्म प्रकृति का आश्रय क्यों लें? ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि निष्काम साधना का अर्थ भौतिक लाभ न चाहकर आत्मिक साधना का है। बिना परिणाम सोचे यदि चाहें तो किसी कार्य में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती; यदि कुछ मिल भी जाय, तो उससे समय एवं शक्ति के अपव्यय के अतिरिक्त और कुछ परिणाम नहीं निकलता। निष्काम कर्म का तात्पर्य दैवी, सतोगुणी, आत्मिक कामनाओं से है। ऐसी कामनाएँ भी गायत्री के प्रथम पाद के ह्रीं तत्त्व में सरस्वती भाग में आती हैं, इसलिए निष्काम भाव की उपासना भी गायत्री क्षेत्र से बाहर नहीं है। मन्त्र विद्या के वैज्ञानिक जानते हैं कि जीभ से जो शब्द निकलते हैं, उनका उच्चारण कण्ठ, तालु, मूर्धा, ओष्ठ, दन्त, जिह्वमूल आदि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं। इस फैलाव क्षेत्र में कई ग्रन्थियाँ होती हैं, जिन पर उन उच्चारणों का दबाव पड़ता है। जिन लोगों की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ रोगी या नष्ट हो जाती हैं, उनके मुख से कुछ खास शब्द अशुद्ध या रुक- रुककर निकलते हैं, इसी को हकलाना या तुतलाना कहते हैं। शरीर में अनेक छोटी- बड़ी, दृश्य- अदृश्य ग्रन्थियाँ होती हैं। योगी लोग जानते हैं कि उन कोशों में कोई विशेष शक्ति- भण्डार छिपा रहता है। सुषुम्ना से सम्बद्ध षट्चक्र प्रसिद्ध हैं, ऐसी अगणित ग्रन्थियाँ शरीर में हैं। विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रन्थियों पर अपना प्रभाव डालता है और इसके प्रभाव से उन ग्रन्थियों का शक्ति- भण्डार जाग्रत् होता है। मन्त्रों का गठन इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मन्त्र में २४ अक्षर हैं। इनका सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी २४ ग्रन्थियों से है, जो जाग्रत् होने पर सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती हैं। गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार २४ स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर- लहरी उत्पन्न होती है, जिसका प्रभाव अदृश्य जगत् के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों पर पड़ता है। यह प्रभाव ही गायत्री साधना के फलों का प्रभाव- हेतु है। *शब्द की शक्ति* :— शब्दों का ध्वनि प्रवाह तुच्छ चीज नहीं है। शब्द- विद्या के आचार्य जानते हैं कि शब्द में कितनी शक्ति है और उसकी अज्ञात गतिविधि के द्वारा क्या- क्या परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म की स्फुरणा कम्पन उत्पन्न करती है। वह कम्पन ब्रह्म से टकराकर ऊँ ध्वनियों के रूप में सात बार ध्वनित होता है। जैसे घड़ी का लटकन घण्टा पेण्डुलम झूमता हुआ घड़ी के पुर्जों में चाल पैदा करता रहता है, इसी प्रकार वह ऊँकार ध्वनि प्रवाह सृष्टि को चलाने वाली गति पैदा करता है। आगे चलकर उस प्रवाह में ह्रीं, श्रीं, क्लीं की तीन प्रधान सत्, रज, तममयी धाराएँ बहती हैं। तदुपरान्त उसकी और भी शाखा- प्रशाखाएँ हो जाती हैं, जो बीज मन्त्र के नाम से पुकारी जाती हैं। ये ध्वनियाँ अपने- अपने क्षेत्र में सृष्टि कार्य का संचालन करती हैं। इस प्रकार सृष्टि का संचालन कार्य शब्द तत्त्व द्वारा होता है। ऐसे तत्त्व को तुच्छ नहीं कहा जा सकता। गायत्री की शब्दावली ऐसे चुने हुए शृंखलाबद्ध शब्दों से बनाई गई है, जो क्रम और गुम्फन की विशेषता के कारण अपने ढंग का एक अद्भुत ही शक्ति प्रवाह उत्पन्न करती है। दीपक राग गाने से बुझे हुए दीपक जल उठते हैं। मेघमल्हार गाने से वर्षा होने लगती है। वेणुनाद सुनकर सर्प लहराने लगते हैं, मृग सुध- बुध भूल जाते हैं, गायें अधिक दूध देने लगती हैं। कोयल की बोली सुनकर काम भाव जाग्रत् हो जाता है। सैनिकों के कदम मिलाकर चलने की शब्द- ध्वनि से लोहे के पुल तक गिर सकते हैं, इसलिए पुलों को पार करते समय सेना को कदम न मिलाकर चलने की हिदायत कर दी जाती है। अमेरिका के डॉक्टर हचिंसन ने विविध संगीत ध्वनियों से अनेक असाध्य और कष्टसाध्य रोगियों को अच्छा करने में सफलता और ख्याति प्राप्त की है। भारतवर्ष में तान्त्रिक लोग थाली को घड़े पर रखकर एक विशेष गति से बजाते हैं और उस बाजे से सर्प, बिच्छू आदि जहरीले जानवरों के काटे हुए, कण्ठमाला, विषवेल, भूतोन्माद आदि के रोगी बहुत करके अच्छे हो जाते हैं। कारण यह है कि शब्दों के कम्पन सूक्ष्म प्रकृति से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को लेकर ईथर का परिभ्रमण करते हुए जब अपने उद्गम केन्द्र पर कुछ ही क्षणों में लौट आते हैं, तो उसमें अपने प्रकार की एक विशेष विद्युत् शक्ति भरी होती है और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त क्षेत्र पर उस शक्ति का एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। मन्त्रों द्वारा विलक्षण कार्य होने का भी यही कारण है। गायत्री मन्त्र द्वारा भी इसी प्रकार शक्ति का आविर्भाव होता है। मन्त्रोच्चारण में मुख के जो अगं क्रियाशील होते हैं, उन भागों में नाड़ी तन्तु कुछ विशेष ग्रन्थियों को गुदगुदाते हैं। उनमें स्फुरण होने से एक वैदिक छन्द का क्रमबद्ध यौगिक सङ्गीत प्रवाह ईथर तत्त्व में फैलता है और अपनी कुछ क्षणों में होने वाली विश्व परिक्रमा से वापस आते- आते एक स्वजातीय तत्त्वों की सेना साथ ले आता है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में बड़ी सहायक होती है। शब्द संगीत के शक्तिमान कम्पनों का पंचभौतिक प्रवाह और आत्म- शक्ति की सूक्ष्म प्रकृति की भावना, साधना, आराधना के आधार पर उत्पन्न किया गया सम्बन्ध, यह दोनों कारण गायत्री शक्ति को ऐसा बलवान बनाते हैं, जो साधकों के लिए दैवी वरदान सिद्ध होता है। गायत्री मन्त्र को और भी अधिक सूक्ष्म बनाने वाला कारण है साधक का ‘श्रद्धामय विश्वास’। विश्वास से सभी मनोवेत्ता परिचित हैं। हम अपनी पुस्तकों और लेखों में ऐसे असंख्य उदाहरण अनेकों बार दे चुके हैं जिनसे सिद्ध होता है कि केवल विश्वास के आधार पर लोग भय की वजह से अकारण काल के मुख में चले गये और विश्वास के कारण मृतप्राय लोगों ने नवजीवन प्राप्त किया। रामायण में तुलसीदास जी ने ‘भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ’ गाते हुए श्रद्धा और विश्वास को भवानी- शंकर की उपमा दी है। झाड़ी को भूत, रस्सी को सर्प, मूर्ति को देवता बना देने की क्षमता विश्वास में है। लोग अपने विश्वासों की रक्षा के लिए धन, आराम तथा प्राणों तक को हँसते- हँसते गँवा देते हैं। एकलव्य, कबीर आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे प्रकट है कि गुरु द्वारा नहीं, केवल अपनी श्रद्धा के आधार पर गुरु द्वारा प्राप्त होने वाली शिक्षा से भी अधिक विज्ञ बना जा सकता है। हिप्रोटिज्म का आधार रोगी को अपने वचन पर विश्वास कराके उससे मनमाने कार्य करा लेना ही तो है। तान्त्रिक लोग मन्त्र सिद्धि की कठोर साधना द्वारा अपने मन में कितनी अगाध श्रद्धा जमाते हैं। आमतौर पर जिसके मन में उस मन्त्र के प्रति जितनी गहरी श्रद्धा जमी होती है, उस तान्त्रिक का मन्त्र भी उतना काम करता है। जिस मन्त्र से श्रद्धालु तान्त्रिक चमत्कारी काम कर दिखाता है, उस मन्त्र को अश्रद्धालु साधक चाहे सौ बार बके, कुछ लाभ नहीं होता। गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में भी यह तथ्य बहुत हद तक काम करता है। जब साधक श्रद्धा और विश्वासपूर्वक आराधना करता है, तो शब्द विज्ञान और आत्म- सम्बन्ध दोनों की महत्ता से संयुक्त गायत्री का प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है और वह एक अद्वितीय शक्ति सिद्ध होती है। नीचे दिए हुए चित्र में दिखाया गया है कि गायत्री के प्रत्येक अक्षर का शरीर के किस- किस स्थान से सम्बन्ध है। उन स्थलों पर कौन यौगिक ग्रन्थिचक्र हैं, इसका परिचय इस प्रकार है— अक्षर ग्रन्थि का नाम उसमें भरी हुई शक्ति :- १. तत् तापिनी सफलता २. स सफला पराक्रम ३. वि विश्वा पालन ४. तुर् तुष्टि कल्याण ५. व वरदा योग ६. रे रेवती प्रेम ७. णि सूक्ष्मा धन ८. यं ज्ञाना तेज ९. भर् भर्गा रक्षा १०. गो गोमती बुद्धि ११. दे देविका दमन १२. व वराही निष्ठा १३. स्य सिंहनी धारणा १४. धी ध्याना प्राण १५. म मर्यादा संयम १६. हि स्फुटा तप १७. धि मेधा दूरदर्शिता १८. यो योगमाया जागृति १९. यो योगिनी उत्पादन २०. न: धारिणी सरसता २१. प्र प्रभवा आदर्श २२. चो ऊष्मा साहस २३. द दृश्या विवेक २४. यात् निरञ्जना सेवा गायत्री उपर्युक्त २४ शक्तियों को साधक में जाग्रत् करती है। यह गुण इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इनके जागरण के साथ- साथ अनेक प्रकार की सफलताएँ, सिद्धियाँ और सम्पन्नता प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है। कई लोग समझते हैं कि यह लाभ अनायास कोई देवी- देवता दे रहा है। कारण यह है कि अपने अन्दर हो रहे सूक्ष्म तत्त्वों की प्रगति और परिणति को देख और समझ नहीं पाते। यदि वे समझ पाएँ कि उनकी साधना से क्या- क्या सूक्ष्म प्रक्रियाएँ हो रही हैं, तो यह समझने में देर न लगेगी कि यह सब कुछ कहीं से अनायास दान नहीं मिल रहा है, वरन् आत्म- विद्या की सुव्यवस्थित वैज्ञानिक प्रक्रिया का ही यह परिणाम है। गायत्री साधना कोई अन्धविश्वास नहीं, एक ठोस वैज्ञानिक कृत्य है और उसके द्वारा लाभ भी सुनिश्चित ही होते हैं।


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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।

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