जय श्री महाकाल महाशिवरात्रि पर्व 4 मार्च 2019 सोमवार को है, महाशिवरात्रि पर्व सोमवार के दिन होने से विशेष महत्व हो गया है इस दिन लंकापति रावण के द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र के द्वारा भगवान शिव की आराधना करें और चमत्कार देखे । मान्यता है की अपने बल का प्रदर्शन करने के लिए रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले चलने को हठी हुआ तो भगवान शिव ने अपने अंगूठे से तनिक सा दबाया तो कैलाश पर्वत पुन: वही अवस्थित हो गया | जिससे शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह पीड़ित हो उठा और भगवान शंकर से क्षमा करें क्षमा करें बोल स्तुति करने लग गया जो कालांतर में शिवतांडव स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई | जिसमें 17 श्लोक हैं। शिवतांडव स्तोत्र जिसके माध्यम से आप न केवल धन सम्पति पा सकते हैं बल्कि जीवन में आने वाली समस्त बाधाओं को दूर भी किया जा सकता है | शिवतांडव स्तोत्र लंकाधिपति रावण द्वारा रचा गया है, इसकी कठिन शब्दावली और अद्वितीय काव्य रचना इसे अन्य स्तोत्रों से अलग बनाती है | इस स्तोत्र के द्वारा करे इस शिवरात्रि भूतनाथ की आराधना .
शिवतांडव स्तोत्र द्वारा भगवान शिव की स्तुति से होने वाले लाभ निम्न है :-
1) शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को धन सम्पति के साथ साथ उत्कृष्ट व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है | 2) आपके जीवन में किसी भी सिद्धि की महत्वकांक्षा हो तो इस स्तोत्र के जाप से आसानी से प्राप्त की जा सकती है |
3) इस स्तोत्र के नियमित पाठ से वाणी सिद्धि की भी प्राप्ति होती है |
4) नृत्य, चित्रकला, लेखन, योग, ध्यान, समाधी से जुड़े लोगों को शिवतांडव स्तोत्र का पाठ निश्चित लाभप्रद होता है |
5) शनि काल है और शिव महाकाल है अत: शनि से पीड़ित लोगों को इसके पाठ से लाभ मिलता है |
6) कालसर्प से पीड़ित लोगों को इस स्तोत्र के पाठ से काफी हद तक मुक्ति मिलती है |
*शिव ताण्डव स्तोत्र*
*जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।* *डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम्* ॥1॥
अर्थात- जिन शिव जी की सघन, वनरूपी जटा से प्रवाहित होकर गंगा जी की धाराएं उनके कंठ को प्रक्षालित होती हैं, जिनके गले में बड़े एवं लंबे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्यान करें।
*जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।* *धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम*
॥2॥ अर्थात- जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पूर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाएं धधक-धधक करके प्रज्जवलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढ़ता रहे।
*धराधरेंद्रनंदिनी *विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।* *कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि*
॥3॥ अर्थात- जो पर्वतराजसुता (पार्वती जी) के विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनंदित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूरन्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र समान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आनंदित रहे।
*जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।* *मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि*
॥4॥ अर्थात- मैं उन शिव जी की भक्ति में आनंदित रहूं जो सभी प्राणियों के आधार एवं रक्षक हैं, जिनकी जाटाओं में लिपटे सर्पों के फन की मणियों का पीले वर्ण प्रभा-समुह रूप केसर प्रकाश सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है और जो गजचर्म (हिरण की छाल) से विभुषित हैं।
*सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।* *भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः*
॥5॥ अर्थात- जिन शिव जी के चरण इन्द्रादि देवताओं के मस्तक के फूलों की धूल से रंजित हैं (जिन्हें देवतागण अपने सर के फूल अर्पण करते हैं), जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।
*ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्।* *सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः*
॥6॥ अर्थात- जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभी देवों द्वारा पूज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्धि प्रदान करें। *करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।* *धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम*
॥7॥ अर्थात- जिनके मस्तक से निकली प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव, पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर है (यहां पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो। *नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।* *निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः*
॥8॥ अर्थात- जिनका कण्ठ नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के समान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभी प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करें।
*प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।* *स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे*
॥9॥ अर्थात- जिनका कण्ठ और कंधा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खों को काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अंधकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यु को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूं।
*अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।* *स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे*
॥10॥ अर्थात- जो कल्यानमय, अविनाशी, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अंधकासुर के सहांरक, दक्ष यज्ञ विध्वंसक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूं।
*जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।* *धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः*
॥11॥ अर्थात- अतयंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढ़ी हूई प्रचण्ड अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।
*दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुह्रद्विपक्षपक्षयोः।* *तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे*
॥12॥ अर्थात- कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टुकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूं।
*कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।* *विमुक्तलोललोचनो* *ललामभाललग्नकः शिवेति* *मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्* *
॥13॥ अर्थात- कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करते हुए, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा।
*निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।* *तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः*
॥14॥ अर्थात- देवांगनाओं के सिर में गूंथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएं परमानंद युक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।
*प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।* *विमुक्त वाम लोचनो* *विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्
॥15॥* अर्थात- प्रचण्ड बड़वानल की भांति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएं।
*इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।* *हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम्*
॥16॥ अर्थात- इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढ़ने या सुनने मात्र से प्राणी पवित्र हो, परमगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।
*पूजावसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।* *तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः
॥17॥* अर्थात- प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिव ताण्डव स्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोड़ा आदि संपदा से सर्वदा युक्त रहता है।
॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम् ।। महाशिवरात्रि पर्वकाल मे इस स्तोत्र का पाठ करने स्थिर सुख सम्पत्ति की प्राप्ति होती है! ॐ नमः शिवाय, साक्षात् को षाष्टांग प्रणाम्... “ॐ नम: शिवाय” वह मूल मंत्र है, जिसे कई सभ्यताओं में महामंत्र माना गया है, इस महामंत्र का अभ्यास विभिन्न आयामों में किया जा सकता है, इन्हें पंचाक्षर कहा गया है, इसमें पांच मंत्र हैं, ये पंचाक्षर प्रकृति में मौजूद पांच तत्वों के प्रतीक हैं, और शरीर के पांच मुख्य केंद्रों के भी प्रतीक हैं, इन पंचाक्षरों से इन पांच केंद्रों को जाग्रत किया जा सकता है, ये पूरे तंत्र के शुद्धीकरण के लिये बहुत ही शक्तिशाली माध्यम हैं।