राशियों के गुण स्वरूप के अन्तर्गत चर, अचर और द्विस्वभाव प्रकृति को समझेंगे - चर राशि - मेष, कर्क, तुला और मकर अर्थात 1, 4, 7, 10 पहले चर राशि में 3 जोड़ते जाएंगे तो अन्य तीनों चर राशि का पता चल जाएगा । चर का अर्थ जिसके गुण-स्वरूप में परिवर्तन संभव हो । जिनके विचार परिवर्तनशील हो, जिसे आसानी से समझाया जा सके । अर्थात चर राशि के जातक हैं तो उनको समझाना आसान होता है और वो आपकी बातों को समझने का प्रयास भी करते हैं और जो विचार पीछे से अपने मन में बनाया होता है उसको बदलने में समक्ष भी होते हैं । चर राशि को ही धातु राशि कहते हैं इसको भी आज ही याद रखना है । इसकी विशेष व्याख्या प्रश्न शास्त्र में है । अचर राशि - बृष, सिंह, बृश्चिक और कुंभ अर्थात 2, 5, 8, 11 पहले अचर राशि में 3 जोड़ते जाएंगे तो अन्य तीनों अचर राशि का पता चल जाएगा । अचर का अपरिवर्तनशील अर्थात स्थिर । अंग्रजी में इसे फिक्स राशि कहते हैं । अचर राशि हो तो जातक परिवर्तनशील नहीं होता । ऐसे जातक को समझाना मुश्किल होता है । जातक अपने विचार बदलने का प्रयास भी नहीं करते अर्थात अपनी बातों पर अडिग रहते हैं जो भी निर्णय लिया हो सही हो या गलत हो उसमें परिवर्तन नहीं करना चाहते । अचर राशि को ही मुल राशि कहते हैं इसकी विशेष व्याख्या प्रश्न शास्त्र में है । द्विस्वभाव राशि - मिथुन, कन्या, धनु और मीन इसको अर्थात 3, 6, 9, 12 पहले द्विस्वभाव राशि में 3 जोड़ते जाएंगे तो अन्य तीनों द्विस्वभाव राशि का पता चल जाएगा । द्विस्वभाव राशि में चर-अचर दोनों गुण हाते हैं । जातक दुविधा में होते हैं । अंग्रजी में इसे कॉमन राशि कहते हैं । जातक स्वयं अपने निर्णय नहीं ले सकते कभी हां तो कभी ना की स्थिति बनी रहती है । किसी के समझाने पर मान जाना पुनः किसी और के समझाने पर अपने निर्णय को बदल लेना इनके स्वभाव में होता है । द्विस्वभाव राशि को ही जीव राशि कहते हैं इसको भी आज ही याद रखना है । आगे और अच्छी तरह समझेंगे लेकिन आज ही समझ लेते हैं कि लग्न या चन्द्रमा जिस राशि में हो जातक के गुण स्वरूप उसी राशि के अनुकुल होते हैं । यदि आपकी राशि चर है स्वभाव भी स्थिर नहीं होगा और स्थिर राशि है तो स्वभाव चर नहीं होगा द्विस्वभाव राशि होने पर स्वभाव भी द्विस्वभाव ही होगा ।