शिव महिम्न:-स्तोत्र!

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Ravinder Pareek 27th Oct 2020

*🚩भगवान शंकर का सिद्ध स्तोत्र शिव महिम्न:-स्तोत्र!!!!!!!!!*🙏
‘महेश से बढ़कर कोई देवता नहीं, शिव महिम्न:-स्तोत्र से बढ़कर कोई स्तोत्र नहीं है। अघोरमन्त्र से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है, गुरु से बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है।’
शिवभक्त गन्धर्वराज पुष्पदंत द्वारा रचित शिव महिम्न,स्तोत्र भगवान शिव की स्तुतियों में अत्यन्त विशिष्ट स्थान रखता है। शिव महिम्न: का अभिप्राय है–शिव की महिमा। शिवभक्त गंधर्वराज पुष्पदन्त के अगाध प्रेमभाव से ओतप्रोत यह शिवस्तोत्र भगवान शिव को बहुत प्रिय है। ४३ छन्दों के इस स्तोत्र में पुष्पदंताचार्यजी ने भगवान शिव को सम्बोधित करते हुए उनके दिव्य स्वरूप एवं सादगी का वर्णन किया है।

गन्धर्वराज पुष्पदंत की शिवाराधना
गन्धर्वराज पुष्पदन्त प्रतिदिन कैलाश पर जाकर भगवान शिव की सुन्दर पुष्पों से पूजा करते थे। वह एक राजा के उद्यान से प्रात:काल ही सुन्दर और सुगन्धित पुष्प तोड़ लेते थे। राजा पुष्पों को न पाकर मालियों को दण्ड दिया करते थे। मालियों ने फूल ले जाने वाले का पता लगाने का बहुत प्रयास किया। अंत में उन्होंने पाया कि फूल ले जाने वाला उद्यान में आते ही किसी विशेष शक्ति से अदृश्य हो जाता है।
राजा के मंत्रियों ने उपाय बतलाया कि उपवन के चारों ओर शिव-निर्माल्य (शिवलिंग पर चढ़े फूल व बेलपत्र आदि) फैला दिया जाए। शिव-निर्माल्य को लांघते ही चोर की अदृश्य होने की शक्ति (सिद्धि) नष्ट हो जाएगी। गन्धर्वराज पुष्पदन्त को पृथ्वी पर घटित इस घटना का कुछ पता नहीं था। जैसे ही पुष्पदन्त ने शिव-निर्माल्य का उल्लंघन किया, उसकी अदृश्य होने की शक्ति समाप्त हो गयी और मालियों ने उन्हें देख लिया। राजकर्मचारियों ने उन्हें बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया।
पुष्पदंत को जब यह पता चला कि मैंने शिव-निर्माल्य को लांघकर महान अपराध किया है, तब कारागार में भगवान आशुतोष को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने अत्यन्त दीन-हीन की तरह पूरी तरह विवश होकर भगवान आशुतोष को पुकारा और उनकी प्रसन्नता के लिए शिव महिम्न:-स्तोत्र रचा।
स्तुति किसे अच्छी नहीं लगती? भक्त ने सच्चे हृदय से पुकारा और भगवान शंकर भक्त की पुकार पर दौड़ पड़े। कारागार में दिव्य प्रकाश छा गया। कर्पूरवर्ण, नीलकण्ठ, गंगाधर, भुजगेन्द्रहारी, गजचर्मधारी भगवान शिव की सुन्दर छवि ऐसी लग रही थी मानो सारे संसार की सम्पदा उनके चरणों में लोट रही हो। पुष्पदंत ने भगवान शिव की चरणधूलि मस्तक पर चढ़ाकर कहा–’भगवन्! आपकी महिमा का पार न जानने से मेरा आपकी स्तुति करना अनुचित है, ब्रह्मा आदि की वाणी भी आपके यशोगान करने में थक चुकी है; क्योंकि आपकी महिमा का अंत कोई जान ही नहीं सकता। अनन्त का अंत कैसे जाना जाए? इसलिए स्तुति करने वाले पर कोई दोष नहीं लगता है।’
भगवान शिव ने कहा–’अपने आराध्य की स्तुति अपने श्रम से प्राप्त पदार्थ से करनी चाहिए। चोरी के पुष्पों से की गयी मेरी अर्चना मुझे पसन्द नहीं आती है। तुम्हारे द्वारा की गयी यह स्तुति सिद्धस्तुति हो गई है। इससे जो मेरा स्तवन करेगा, वह मुझे प्रिय होगा।’
भगवान शिव ने पुष्पदंत की आराधना से प्रसन्न होकर वात्सल्यवश उसे अपनी गोद में बिठा लिया और उन्हें शिवगणों का अधिपति बना दिया। पुष्पदंत को खोयी हुई सिद्धि पुन: प्राप्त हो गयी। भगवान शिव के साक्षात्कार से उनका अपराध मिट गया, उनके जन्म-जन्म के बंधन कट गए। जब भगवान शिव ने उन्हें मुक्त कर दिया तो राजा उनको कारागार में रखने का साहस कैसे कर सकता था!

शिव महिम्न:-स्तोत्र का भावार्थ
पाठकों की सुविधा के लिए यहां शिव महिम्न:-स्तोत्र का हिन्दी अर्थ दिया जा रहा है–

▪️हे पापों को हरने वाले शंकरजी ! मैं इस स्तोत्र के द्वारा आपकी वंदना कर रहा हूँ जो कदाचित आपके स्वरूप-वंदन के योग्य न भी हो, पर हे महादेव ! स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र का पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं। जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है; उसी प्रकार मैं भी अपने यथाशक्ति आपकी आराधना करता हूं।। १ ।।

▪️हे शिव ! आपकी महिमा मन और वाणी की पहुंच से परे है। आपकी महिमा का वेद भी आश्चर्यचकित होकर नेति-नेति कहकर वर्णन करते हैं अर्थात ‘ये भी नहीं’ और ‘वो भी नहीं’। आपका सम्पूर्ण गुणगान भला कौन कर सकता है? ये जानते हुए भी कि आप आदि-अंतरहित परमात्मा का गुणगान कठिन है; मैं आपका वंदन करता हूँ।। २ ।।

▪️हे वेद और भाषा के सृजक ! जब  स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा तो कहना ही क्या?  हे त्रिपुरारी ! अपनी सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना कर रहा हूँ कि इससे मेरी वाणी शुद्ध और पवित्र होगी तथा मेरी बुद्धि का विकास होगा।। ३ ।।

▪️हे वर देने वाले शिवजी ! आप इस संसार का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं–ऐसा तीनों वेद वर्णन करते हैं, तीनों गुण (सत-रज-तम) आपसे ही प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ जडबुद्धि प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फ़ैलाने का प्रयास करते हैं, जोकि सर्वथा अनुचित है।। ४ ।।

▪️हे महादेव ! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वे कहते हैं कि अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इस सृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रममात्र हैं।  वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता।। ५ ।।
▪️हे परमपिता ! इस सृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक, महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)। इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य है कि वे जड़बुद्धि आप पर संशय करते हैं, अत: वे बड़े अभागी हैं।। ६ ।।

▪️हे जगदीश ! विभिन्न प्राणी सत्य तक पहुचने के लिय विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में जाकर समाहित हो जाती है; ठीक उसी प्रकार सभी मतानुयायी आपके पास ही पहुंचते हैं।। ७ ।।

▪️हे वरदानी शिव ! आपके कृपाकटाक्ष से ही इन्द्रादि देवताओं ने एेश्वर्य एवं संपदाओं को प्राप्त किया है; परन्तु आपके कुटुम्ब पालन की सामग्री सिर्फ बूढ़ा बैल, खटिए का पावा, फरसा, चर्म, भस्म, सर्प एवं कपाल मात्र हैं। अगर कोई संशय करे कि आप देवों के असीम ऐश्वर्य के स्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते? तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है कि आप इच्छारहित हैं तथा स्वयं में ही स्थित रहते हैं।। ८ ।।

▪️हे त्रिपुरारि ! इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है।अन्य इसे नित्यानित्य बताते हैं। इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुद्धि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ होती जा रही है।। ९ ।।

▪️हे गिरीश ! एक समय आपके लिंगाकार तेज का पूर्ण स्वरूप (ओर-छोर) जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: ऊपर एवं नीचे की दिशा में गए,  परन्तु  वे दोनों उसका पार पाने में असफल रहे। जब उन्होंने श्रद्धा और भक्ति से आपकी स्तुति की तो आप उन दोनों के समक्ष स्वयं प्रकट हो गए। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है? ।। १० ।।

▪️हे त्रिपुरारि ! दशमुख रावण तीनों भुवनों का निष्कंटक राज्य प्राप्त करके भी अपनी भुजाओं की युद्ध करने की खुजलाहट न मिटा सका। हे प्रभु ! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरणकमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था।। ११ ।।

▪️हे शिव ! एक समय उसी रावण ने मद में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता की। हे महादेव ! आपने अपने पैर के अंगूठे की नोंक से उसे दबा दिया। फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन कर उठा। वेदना ने पाताल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका। स्पष्ट है कि नीच व्यक्ति समृद्धि को पाकर मोह में फंस जाता है।। १२ ।।

▪️हे वरदानी शम्भो ! आपकी कृपा से ही बाणासुर, इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन गया तथा उसने तीनो लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है? अर्थात् आपके चरणों में सिर झुकाने से सबकी सब प्रकार की उन्नति होती है ।। १३ ।।

▪️हे त्रिनेत्र शंकर ! समुद्र-मंथन से उत्पन्न विष की विषम ज्वाला से ब्रह्माण्ड के नाश हो जाने के भय से चकित देवों और दानवों पर दया करके विषपान करने से आपके कण्ठ में जो नीला धब्बा है, वह क्या आपकी शोभा नहीं बढ़ा रहा है? हे नीलकंठ ! ये विकृति भी आपकी शोभा ही बढ़ाती है। कल्याण का कार्य सुन्दर ही होता है।। १४ ।।

▪️हे जगदीश ! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव हो। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आपकी ओर अपने पुष्पबाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठजनों (जितेन्द्रियों) का अपमान कल्याणकारी नहीं होता है।। १५ ।।

▪️हे ईश ! जब आप ताण्डव करते हैं तब आपके पैरों के आघात से पृथ्वी कांप उठती है; आकाश में ग्रह, नक्षत्र-तारे आपकी घूमती हुए भुजाओं से पीड़ित हो जाते हैं। स्वर्ग आपकी खुली व बिखरी जटाओं की चोट से व्याकुल हो जाता है। यद्यपि आप जगत की रक्षा के लिए ताण्डव करते हैं; फिर भी हे महादेव ! अनेकों बार आप कल्याणकरी कार्य में भी भय उत्पन्न करते हैं।। १६ ।।

▪️हे गंगाधर ! आकाश में फैले तारों के समान फेन वाला गंगाजल का प्रवाह आपके सिर पर जल की बूंद के समान दिखाई देता है और सिर से नीचे गिरने पर उसी जलबिन्दु ने समुद्ररूपी करधनी (गोले) में संसार को द्वीप के समान बना दिया। ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है।। १७ ।।

▪️हे परमेश्वर ! त्रिपुरासुर रूपी तिनके को जलाने के लिए आपने पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी,  सुमेरु पर्वत को धनुष, सूर्य-चन्द्र को दोनों पहिए एवं विष्णु को बाण बनाया; तो यह सब आडम्बर करने का क्या प्रयोजन था? आप उसे इच्छामात्र से जला सकते थे। आपके लिए तो संसारमात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता? ।। १८ ।।

▪️हे त्रिपुरारि ! जब भगवान विष्णु ने आपके चरणों में सहस्रनामों द्वारा सहस्त्र कमलों को चढ़ाना आरम्भ किया तो एक कमल कम पड़ गया। तब भक्तिभाव से उन्होंने अपना ही नेत्रकमल उखाड़ कर चढ़ा दिया। (भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर श्रीविष्णु को चक्र प्रदान कर दिया था)। बस यही भक्ति की पराकाष्ठा सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर त्रिभुवन की रक्षा के लिए सदैव जागरुक है।। १९ ।।

▪️हे देवाधिदेव ! आपने ही कर्मफल का विधान बनाया। आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है | आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी पुण्यात्मा लोग वैदिक कर्मो में आस्था बनाये रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं।। २० ।।

▪️हे शरणदाता शंकर ! यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तथापि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है। दक्ष प्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्ष प्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मलित हुए। फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ। आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही वह शुभकर्म के छद्मवेष में क्यों न हो? ।। २१ ।।

▪️हे स्वामिन् ! एक बार ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गये। जब उनकी पुत्री लज्जा से हिरनी बनकर भागी तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन बनकर उसका पीछा करने लगे। हे शंकर !  तब आपने शिकारी बनकर हाथ में धनुष लेकर बाण चला दिया। स्वर्ग में जाने पर भी ब्रह्मा आपके बाण से भयभीत हो रहे हैं। (ब्रह्मा लज्जित होकर मृगशिरा नक्षत्र हो गए तो रुद्र का बाण आर्द्रा नक्षत्र होकर आज भी उनका पीछा करता है।) ।। २२ ।।

▪️हे कामरिपु ! जब आपने माता पार्वती को अपने आधे शरीर में स्थान (अर्द्धनारीश्वर) दिया तो उन्हें आपके योगी होने पर शंका उत्पन्न हुई अर्थात् वे आपको स्त्रीभक्त जानती हैं। ये शंका निर्मूल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिश की तो आपने काम को तिनके की भांति जला कर भस्म कर दिया।। २३ ।।

▪️हे वरद शंकरजी ! आप स्मशान में क्रीडा करते हैं, भूत-प्रेत आपके साथी हैं, चिता की भस्म आपका अंगराग हैं, आप मुण्डमाल धारण करते हैं। इस प्रकार यह सब देखने में अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं फिर भी स्मरण करने वाले भक्तों के लिए तो आप मंगलमय ही हैं।। २४ ।।

▪️हे योगिराज !  मनुष्य नाना प्रकार की योगपद्धति जैसे स्वांस पर नियंत्रण (प्राणायाम), उपवास, ध्यान इत्यादि–इन योग क्रियाओं द्वारा जिस विलक्षण आनन्द को प्राप्तकर रोमांचित हो जाते हैं, उनकी आंखें आनन्दाश्रुओं से भर जाती हैं; वह निर्गुण आनन्दस्वरूप ब्रह्म वास्तव में आप ही हैं।। २५ ।।

▪️हे भगवन् ! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव ! मुझे तो विश्व में ऐसा कुछ भी तत्त्व ज्ञात नहीं जो आप न हों।। २६ ।।

▪️हे शरण देने वाले ! ओम्–यह शब्द अकार, उकार और मकार से तीनों वेद, तीनों अवस्था, तीनों लोक, तीनों देवता, तीनों शरीर (स्थूल, सूक्ष्म, कारण), तीनों रूप–के रूप में आपका ही प्रतिपादन करता है। ॐ आपके स्वरूप का ही निर्वचन करता है।। २७ ।।

▪️हे सदाशिव ! आपके जो आठ नाम–भव, शर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं ईशान हैं–वेदमन्त्र और पुराण आपके इन आठ नामों से वंदना करते है। समस्त जगत के आश्रय ! मैं भी आपको इन नामों से साष्टा&


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*🚩भगवान शंकर का सिद्ध स्तोत्र शिव महिम्न:-स्तोत्र!!!!!!!!!*🙏


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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।