*🙏ॐ श्री गणेशाय नमः🙏*
सनातन धर्म के अनुसार जन्म से मृत्यु पर्यन्त षोडश संस्कारो का उल्लेख मिलता है जिसमे यज्ञोपवीत (उपनयन संस्कार) की विशेष महत्ता है।
यज्ञोपवीत की सम्पूर्ण विधि ओर महत्व के बारे मे विस्तृत जानकारी .....
*यज्ञोपवीत (जनेऊ) के संबंध में ज्ञातव्य बातें* ✍️
यज्ञोपवीत उदात्त भावना संबंधी अंश से व्याप्त एक ऐसा सूत्र है जो हमारे जीवन को श्रुति स्मृत्यनुमोदित मार्ग पर चलाते हुए सम्पूर्ण उत्तरदायित्वों एवं कर्तव्यों का निर्वहन करते रहने के लिए हमें ईश्वर द्वारा सौंपा गया है। इसलिए शास्त्रकारों ने प्रत्येक यज्ञोपवीतधारी को यथासंभव सुतकातकर अपने हाथ के परिमाण से इसका निर्माण करने का विधान निर्धारित किया है। *महर्षि कात्यायन द्वारा प्रतिपादित निर्माण विधि* संध्यावंदन आदि नित्य कर्म करके एसे सुत से यज्ञोपवीत निर्माण करना चाहिए जो ब्राह्मण द्वारा,ब्राह्मण कन्या द्वारा अथवा सधवा ब्राह्मणी द्वारा कातकर तैयार किया गया हो। इस सूत को *भू:* का उच्चारण कर 96 अंगुल सहित चारो अंगुलियो के मूल पर लपेटे और उतारकर एक पलाश (खाकरे) के पत्ते पर रख देवे। अब *भुवः* शब्द का उच्चारण करते हुए उसी क्रिया को दोहराए और *स्व:* शब्द का उच्चारण करते हुए तीसरी बार क्रिया दोहराते हुए हाथ में लपेटकर "96 अंगुली" के परिमाण में अन्य दो तार तैयार कर पलाश पर रखे। अनंतर *"आपो हिष्टा....",शं नो देवी:..." तत्सवितु:..."* आदि तीन मंत्रो द्वारा उन तीन तारों को जल में अच्छी तरह भिगोकर बाएं हाथ मे लेकर तीन बार जोर से आघात करें,फिर तीन व्याहृतियों से उसे एक बट देकर एक रूप बना ले! अब इन्हीं मंत्रो से उसे त्रिगुणित करे और पुनः बटकर एक रूप बना ले पुनः उसे त्रिगुणित करके "प्रणव" से उसमें ब्रह्मग्रंथि लगाएं। इसके 9 तंतुओं में (1) ओंकार (2) अग्नि (3) अनंत (4) चंद्र (5)पितृगण (6) प्रजापति (7) वायु (8) यम (9) विश्वदेव , इन 9 देवताओं का क्रमशः आवाहन एवं स्थापन करे साथ ही ग्रंथि देवता "ब्रह्मा","विष्णु", "महेश" का आवाहन प्रतिष्ठा करे एवं *"उद्वयं तमसस्परि.."* मंत्र द्वारा सूत्र को सूर्य के सम्मुख करके निम्न मंत्र द्वारा धारण करे-
*मंत्र* *
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजम पुरस्तात।* *आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
* *यज्ञोपवीत कटि तक ही क्यों ?*
महर्षियों और शास्त्रकारों ने इस आधार पर यज्ञोपवीत का परिमाण निर्धारित किया है कि धारण करने पर वह पुरुष के बाएं कंधे के ऊपर से आता हुआ नाभि को स्पर्श कर कटि तक ही पहुँचे,इससे न तो ऊपर रहे और न ही नीचे। *"अत्यधिक छोटा यज्ञोपवीत आयु का तथा अधिक बड़ा यज्ञोपवीत तप का विनाशक होता है,अधिक मोटा यज्ञोपवीत यशनाशक और पतला यज्ञोपवीत धन की हानि करता है।
"* "पृष्ठदेशे च नाभ्याञ्च घृतं यद्विन्दते कटिम। तद्धार्यूमुपवितं स्यान्नतिलंबम न चोच्छिरतं आयुहरत्यतिक्रस्वमतिदीर्घम तपोहरम। यशोहरत्यति स्थूलमतीसूक्ष्मम धनापहम।।"
*यज्ञोपवीत का परिमाण 96 अंगुल ही क्यों ?
*1* गायत्री मंत्र के 24 अक्षर एवं 4 वेद को गुणा करने पर प्राप्त - 96 *2* वैदिक मंत्रों की संख्या के अनुपात में- कर्मकांड से संबंधित ऋचाएं - 80000 उपासना कांड से संबंधित ऋचायें-16000 कुल योग - 96000 *3* तिथि,वार,गुण आदि के आधार पर- 3 गुण,15 तिथि,7 वार,27 नक्षत्र,25 तत्व,4 वेद,3 काल एवं 12 मास का योग करने पर 96 प्राप्त होता है।
*यज्ञोपवीत में 3 सूत्र और वह त्रिवृत्त क्यों ?*
अध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक सभी क्षेत्रों में विशेष महत्व रखती है। ब्रह्मा,विष्णु,महेश - त्रिदेव भूत,वर्तमान,भविष्य - 3 काल सत्व,रज एवं तम - 3 गुण ग्रीष्म,वर्षा एवं शीत - 3 ऋतु पृथ्वी,अंतरिक्ष,भूलोक - 3 लोक इसी त्रिगुणात्मक भाव को आधार बना कर यज्ञोपवीत का त्रिगुणात्मक तंतुओं से निर्माण और उसका त्रिवृत्तकरण किया गया है। "3 सूत्रों में मानवतत्व,देवतत्व एवं गुरुतत्व निहित है।" *9 तंतुओं के 9 देवता* उपयुक्त 9 देवताओं एवं ब्रह्मा,विष्णु,महेश के प्रतिस्थापन से मानव अपने हृदय मे देवताओ के गुणों- ब्रह्मलाभ, तेजस्विता,धैर्य,स्नेह,प्रजापालन, शुचित्व,प्राणत्व आदि गुणों को धारण करते हुए अनुभव करता है कि मैने इन गुणों से परिपूर्ण और देवताओं से अधिष्ठित उपवीत को धारण कर लिया है। अब में तेजस्वी,धृतिमान एवं शुद्ध हूं। इससे मानसिक कुवृत्तियों का परिमार्जन होगा तथा मन सहित इंद्रिया विपथगामी ना होकर सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त होगी।
*ब्रह्मग्रंथि की आवश्यकता क्यों ?*
ब्रह्मग्रंथि लगाने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य प्रतिक्षण ध्यान रखे कि यह समस्त विश्व ब्रह्मा से प्रादुर्भूत हुआ है और इसीमें मानव कल्याण संनिहित है। यज्ञोपवीत के मूल में प्रणव मंत्र के साथ लगाई जाने वाली ग्रंथि उसे प्रणव के "अ+ऊ+म" इन तीनों वर्णो,सत्व,रज एवं तम इन तीनो ।गुणों तथा ब्रह्मा,विष्णु, महेश रूपी ब्रह्मांड नियामक त्रिविध शक्तियों के सामीप्य का ध्यान दिलाती रहती है। इसलिए इसे ब्रह्मग्रंथि कहा गया है। समाज मे मनुष्य को ब्रह्म के साथ अपनी कुल परंपरा को भी ध्यान में रखना होता है,अतः ब्रह्मग्रंथि के ऊपर अपने अपने कुल,गोत्र एवं प्रवर आदि के भेद से 1,3 या 5 गांठ लगाए जाने का शास्त्रीय विधान है। ये ग्रंथियां मनुष्य को अपनी कुल परम्परा से चली आ रही शास्त्र मर्यादा की रक्षा करते हुए उन पुण्यात्माओं (पितरों) का स्मरण करवाती है जिनका वह उत्तराधिकारी है। और उनकी तपस्या ओर सत्कर्मो से उसे उस कूल में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
*"द्विज सदैव ध्यान रखे कि उसमे भी "ब्रह्म" का अंश है और अंत मे उसी में लय होना है।"*
🙏🙏नर्मदे हर🙏🙏
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एस्ट्रोलॉजर प्रवीण उपाध्याय
प्रोफेशनल वैदिक एस्ट्रोलॉजर