शीतला सप्तमी और अष्टमी एवं बासौड़ा ,जानिए इस पर्व का महत्व ,शुभ मुहूर्त और पूजा विधि

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Deepika Maheshwari 14th Mar 2020

चैत्र मास की कृष्णपक्ष की सप्तमी को शीतला सप्तमी और चैत्र मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी को शीतला अष्टमी मनाई जाती है। यह त्योहार होली के बाद मनाया जाता है। कई जगह इसे बासौड़ा भी कहते हैं। इस त्योहार में शीतला माता की पूजा की जाती है और उ्न्हें बासी खाने का भोग लगाया जाता है। शीतला सप्तमी हर साल होली के सातवें दिन पड़ती है। चैत्र माह के कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथि को शीतला सप्तमी पूजा की जाती है और ठंडा भोजन किया जाता है।इसके लिए पहले दिन को बासी भोजन बनाया जाता है और सुबह शीतला माता की पूजा कर प्रसाद के रुप में खाया जाता है।कई जगहों पर शीतला को चेचक नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा उत्तर भारत में शीतला सप्तमी को बसौड़ा, लसौड़ा या बसियौरा भी कहा जाता है। मान्यता है कि माता शीतला का व्रत रखने से बीमारियां दूर होती हैं।इस दिन सुहागिन महिलाएं शीतला माता की पूजा करती हैं और अपने परिवार की सुख शांति की कामना करती हैं। इस बार शीतला सप्तमी 15 मार्च को शुरू होगी। वहीं शीतला अष्टमी 16 मार्च को है। शीतला सप्तमी 2020 रविवार तिथि 15 मार्च 2020 शीतला सप्तमी पूजा मुहूर्त - सुबह 6 बजकर 31 मिनट से शाम 6 बजकर 30 मिनट तक सप्तमी तिथि प्रारम्भ - सुबह 4 बजकर 25 मिनट से (15 मार्च 2020) सप्तमी तिथि समाप्त - अगले दिन सुबह 03 बजकर 19 मिनट तक (16 मार्च 2020) शीतला अष्टमी 2020 सोमवार 16 मार्च 2020 शीतला अष्टमी 2020 16 मार्च 03:19 बजे से शीतला अष्टमी पर पूजा का मुहूर्त -सुबह 6:46 बजे से शाम 06:48 बजे तक है। शीतला सप्तमी और अष्टमी की पूजा विधि इस दिन महिलाएं सुबह 4 बजे उठकर माता शीतला की पूजा करती हैं। सप्तमी के दिन महिलाएं मीठे चावल, गुड़ की बनी मीठी रोटी ,हल्दी, चने की दाल और लोटे में पानी लेकर पूजा करती है। शीतला सप्तमी के दिन सुबह सबसे पहले स्नान करने के बाद शीतला माता का पूजन करें। पूजा के वक्त 'हृं श्रीं शीतलायै नमः' का उच्चारण करते रहें। माता को भोग में रात के बने गुड़ वाले चावल और गुड़ की मीठी रोटी चढ़ाएं। व्रत में इन्हीं चावलों और बासी रोटी को ग्रहण करें। शीतला सप्तमी का महत्व शीतला माता ये व्रत रखने से बच्चों की सेहत अच्छी बनी रहती है। उन्हें किसी भी प्रकार का बुखार, आंखों के रोग और ठंड से होने वाली बीमारियां नहीं होती। इसके अलावा यह भी माना जाता है। शीतला सप्तमी के बाद बासी भोजन नहीं किया जाता है। यह बासी भोजन का खाने का आखिरी दिन होता है। इसके बाद मौसम गर्म होता है इसीलिए ताज़ा खाना खाया जाता है। स्वास्थ्य रक्षा का संदेश छिपा है पूजा में भगवती शीतला की पूजा-अर्चना का विधान भी अनोखा होता है। शीतला सप्तमी के एक दिन पूर्व उन्हें भोग लगाने के लिए विभिन्न प्रकार के पकवान तैयार किए जाते हैं। शीतला सप्तमी के दिन बासी पकवान ही देवी को नैवेद्ध के रूप में समर्पित किए जाते हैं। लोकमान्यता के अनुसार आज भी सप्तमी के दिन कई घरों में चूल्हा नहीं जलाया जाता है और सभी भक्त ख़ुशी-ख़ुशी प्रसाद के रूप में बासी भोजन का ही आनंद लेते हैं। इसके पीछे तर्क यह है कि इस समय से ही बसंत की विदाई होती है और ग्रीष्म का आगमन होता है, इसलिए अब यहां से आगे हमें बासी भोजन से परहेज करना चाहिए। शीतला माता के पूजन के बाद उस जल से आँखें धोई जाती हैं। यह परंपरा गर्मियों में आँखों का ध्यान रखने की हिदायत का संकेत है। माता का पूजन करने के बाद हल्दी का तिलक लगाया जाता है,घरों के मुख्यद्वार पर सुख-शांति एवं मंगल कामना हेतु हल्दी के स्वास्तिक बनाए जाते हैं। हल्दी का पीला रंग मन को प्रसन्नता देकर सकारात्मकता को बढ़ाता है,भवन के वास्तु दोषों का निवारण होता है। मां की वंदना रखेगी रोगमुक्त माँ की अर्चना का स्त्रोत स्कंद पुराण में शीतलाष्टक के रूप में मिलता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्त्रोत की रचना स्वयं भगवान शंकर ने जनकल्याण में की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा का गान करता है,साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है। इस दिन माता को प्रसन्न करने के लिए शीतलाष्टक पढ़ना चाहिए। मां का पौराणिक मंत्र 'हृं श्रीं शीतलायै नमः' भी प्राणियों को सभी संकटों से मुक्ति दिलाते हुए समाज में मान सम्मान दिलाता है। मां के वंदना मंत्र में भाव व्यक्त किया गया है कि शीतला स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। मान्यता है कि नेत्र रोग,ज्वर,चेचक, कुष्ठ रोग, फोड़े-फुंसियां तथा अन्य चर्म रोगों से आहत होने पर माँ की आराधना रोगमुक्त कर देती है,यही नहीं माता की आराधना करने वाले भक्त के कुल में भी यदि कोई इन रोंगों से पीड़ित हो तो ये रोग-दोष दूर हो जाते हैं। इन्हीं की कृपा से मनुष्य अपना धर्माचरण कर पाता है बिना शीतला माता की कृपा के देहधर्म संभव नहीं है।इनकी उपासना से जीवन में सुख-शांति मिलती है। स्वच्छता की प्रतीक शीतला मां शास्त्रों में शीतला देवी का वाहन गर्दभ बताया गया है। माँ का स्वरूप हाथों में कलश,सूप,मार्जन(झाड़ू) तथा नीम के पत्ते धारण किए हुए चित्रित किया गया है।हाथ में मार्जनी होने का अर्थ है कि हम सभी को सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। सूप से स्वच्छ भोजन करने की प्रेरणा मिलती है ,क्योंकि ज्यादातर बीमारियां दूषित भोजन करने से ही होती हैं। किसी भी रूप में नीम का सेवन,हमें संक्रामक रोगों से मुक्त रखता है। कलश में सभी तैतीस कोटि देवताओं का वास रहता है अतः इसके स्थापन-पूजन से वास्तु दोष दूर होते हैं एवं घर -परिवार में समृद्धि आती है।


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anshmaheshwari

jai mata di


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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।