गीता में स्वयं भगवान ने कहा है -
देवान्भावयतानेन ते देवा भवयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।
यज्ञों के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सबां को सम्पन्नता प्राप्त होगी । कठोपनिषद में कहा गया है - यो यदिच्छति तस्य तत् । धन-धान्य, मान-यश, संतति आदि मनोवांछित फल के साथ-साथ मोक्ष को देने वाला होता है यज्ञ । ऐतरेय ब्राह्ममण में कहा गया है - यज्ञोऽपि तस्यै जनतायै कल्पते । यज्ञ जनता के कल्याण के लिए किया जाता है ।
संक्षिप्त में कहना चाहेंगे कि यज्ञ से इहलोक में भोग और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
शास्त्रों में यज्ञ के दो भेद बताए गए हैं -
यज्ञ और महायज्ञ
यज्ञ - जो अपने ऐहिक और पारलौकिक कल्याण के लिए करवाते हैं । महायज्ञ - जो विश्व के काल्याणार्थ किया जाता है । महर्षि भारद्वाज ने इस प्रकार लिखा है - यज्ञः कर्मसु कौशलम् समष्टिसम्बन्धान्महायज्ञः । कुशलतापूर्वक जो अनुष्ठान किया जाय उसे यज्ञ कहते हैं अर्थात व्यक्तिगत कामना सिद्धि हेतु जो अनुष्ठान किया जाय उसे यज्ञ कहते हैं तथा समष्टि (सबों का) का संबंध होने से अर्थात समुह, ग्राम, राज्य, देश या विश्व आदि के कल्याण के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है उसे महायज्ञ कहते हैं । महर्षि अंगिरा ने भी कहा है - यज्ञमहायज्ञौ व्यष्टिसमष्टि सम्बन्धात् । अर्थात यज्ञ व्यक्त्गित कामना की पूर्ति के लिए और महायज्ञ समुह विशेष या विश्व के कल्याण के लिए किया जाता है ।
व्यष्टि से संबंध होने से स्वार्थ की प्रधानता आ जाती है जो यज्ञ की न्यूनता है । समष्टि से सबंध होने के कारण निःस्वार्थता की प्रधानता है जो महायज्ञ की विशेषता है ।
हम मानव अपने कल्याण के लिए कामना परक छोटे-छोटे यज्ञ-अनुष्ठान करते रहते हैं और इश्वर की कृपा से अपने मनोकामना को पूर्ण कर प्रसन्न होते हैं ।