वास्तु देवता उत्तपत्ति

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Jyotish Vimal Jain 15th Aug 2020

जाने, वास्तु देवता की उत्पत्ति कैसे हुई, कैसा है उनका स्वरूप और क्या है उनका मूल मन्त्र ? वास्तुदेवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा तथा वास्तुचक्र बनाया जाता है । वास्तुचक्र अनेक प्रकार के होते हैं । अलग-अलग अवसरों पर भिन्न-भिन्न पद के वास्तुचक्र बनाने का विधान है । वास्तु कलश में वास्तुदेवता (वास्तोष्पति) की पूजा कर उनसे सब प्रकार की शान्ति व कल्याण की प्रार्थना की जाती है। जिस भूमि पर मनुष्य या प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है । शुभ वास्तु के रहने से वहां के निवासियों को सुख-सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है और अशुभ वास्तु में निवास करने से हानिकारक परिणाम मिलते हैं । वास्तु देवता कौन हैं ? मत्स्यपुराण के अनुसार प्राचीनकाल में अन्धकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेदबिन्दु (पसीने की बूंदें) गिरे उनसे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष प्रकट हुआ जो विकराल मुंह फैलाये हुए था । अन्धकासुर के गणों का रक्तपान करने पर भी जब उसे तृप्ति नहीं हुई तो भूख से व्याकुल होकर वह त्रिलोकी का भक्षण करने को उद्यत हो गया । तब भगवान शंकर आदि देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता (वास्तुपुरुष) के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया इसलिए वह वास्तु देवता या वास्तुपुरुष के नाम से प्रसिद्ध हो गया । देवताओं ने उसे गृह निर्माण, वैश्वदेव बलि के और पूजन-यज्ञ के समय पूजित होने का वर दिया । देवताओं ने उसे वरदान दिया कि तुम्हारी सब मनुष्य पूजा करेंगे । तालाब, कुएं और वापी खोदने, गृह व मन्दिर के निर्माण व जीर्णोद्धार में, नगर बसाने में, यज्ञ-मण्डप के निर्माण व यज्ञ आदि के समय वास्तुदेवता की पूजा का विधान है । वास्तु देवता का स्वरूप (ध्यान)!!!!!!! श्वेतं चतुर्भुजं शान्तं कुण्डलाद्यैरलंकृतम् । पुस्तकं चाक्षमालां च वराभयकरं परम् ।। पितृवैश्वानरोपेतं कुटिलभ्रूपशोभितम् । करालवदनं चैव आजानुकरलम्बितम् ।। (मध्यमपर्व २।११।११-१२) अर्थात्—वास्तुगेवता श्वेत वर्ण के, चार भुजा वाले, शान्तस्वरूप, और कुण्डलों से सुशोभित हैं । हाथ में पुस्तक, अक्षमाला, वरद और अभय की मुद्रा धारण किये हुए हैं । पितरों और वैश्वानर से युक्त हैं तथा उनकी भौंहें कुटिल (तिरछी) हैं । उनका मुख भयंकर है । हाथ घुटनों तक लम्बे हैं । वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा तथा वास्तुचक्रबनाया जाता है । वास्तुचक्र अनेक प्रकार के होते हैं । अलग-अलग अवसरों पर भिन्न-भिन्न पद के वास्तुचक्र बनाने का विधान है । वास्तु कलश में वास्तु देवता (वास्तोष्पति) की पूजा कर उनसे सब प्रकार की शान्ति व कल्याण की प्रार्थना की जाती है । वास्तुदेवता का मूल मन्त्र!!!!!!!! ऋग्वेद (७।५४।१) में वास्तुदेवता का मूल मन्त्र इस प्रकार है— वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान् त्स्वावेशो अनमीवो भवान: । यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।। अर्थात्—हे वास्तुदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं , इस पर पूर्ण विश्वास करें और तदनन्तर हमारी स्तुति-प्रार्थनाओं को सुनकर आप हम सभी उपासकों को आधि-व्याधि मुक्त कर दें और जो हम अपने धन-ऐश्वर्य की कामना करते हैं, आप उसे भी परिपूर्ण कर दें, साथ ही इस वास्तुक्षेत्र या गृह में निवास करने वाले हमारे स्त्री-पुत्रादि परिवार-परिजनों के लिए कल्याणकारक हों तथा हमारे अधीनस्थ गौ, घोड़े, सभी चौपायों (वाले प्राणियों) का भी कल्याण करें । किस दिशा के कौन हैं देवता... हवा के चलने को आज भी भारत में उसे उसी दिशा का नाम दे दिया जाता है जैसे- पूर्व से चलने वाली हवा को पुरवाई इसी प्रकार अन्य दिशाओं में चलने वाली हवाओं का नाम होता है। प्रत्येक मानव जब भी चलता है किसी न किसी दिशा में ही चलता है बिना दिशा वह कभी चल ही नहीं सकता या तो वह सही दिशा में जाएगा या गलत दिशा में, गलत दिशा में चलने वाले को दिशाहीन, पथ भ्रष्ट की संज्ञा दी जाती है। फिलहाल हम बात कर रहे हैं वास्तु की दिशा और उनके देवताओं की.... - उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है। जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित होता है। - उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता हैं। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान मामले प्रभावित होते हैं। - पूर्व दिशा के देवता इंद्र हैं जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आम तौर पर सूर्य ही को इस दिशा का स्वामी माना जाता जो प्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तुनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं। जिससे सुख-संतोष तथा आत्मविश्वास प्रभावित होता है। - दक्षिण-पूर्व (अग्नेय कोण) के देवता अग्नि देव हैं जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। - दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं। जिन्हें धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियाँ व शांति प्राप्ति होती है। - दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं जिन्हे दैत्यों का स्वामी कहा जाता है। जिससे आत्मशुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एव आयु प्रभावित होती है। - पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं जिन्हें जलतत्व का स्वामी कहा जाता है। जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं। जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। - उत्तर-पश्चिम के देवता पवन देव है। जो हवा के स्वामी हैं। जिससे सम्पूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तु शास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशाएं आपको रंक से राजा बना जीवन में रस रंग भर देती हैं।


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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।

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