मेंडिकल एस्ट्रोलोजी मानव के लिए एक वरदान के समान है खासतौर से आज के युग में जब हमारा खानपान जीवन शैली सब कुछ दूषित है।
रोग का इलाज तो दूसरे नंबर पर आता है। सबसे पहले तो रोग का निदान है। ऩाडी देखकर रोग पक़डने का गुण सिर्फ आयुर्वेदाचार्यो के पास है।
ऎलौपैथी विशेषज्ञ सिर्फ लैब की रिपोर्ट पर यकीन करते है। टी.वी. पर प्रसारित कार्यक्रम *"सत्यमेव जयते"* में डॉयगनोस्टिक लैब की जो सच्चााई दिखाई गई है वह शर्मनाक थी। डब्लू.एच.ओ. की एक रिपोर्ट के मुताबिक 70 प्रतिशत भारतीय अपनी क्षमता से अधिक खर्च मेडिकल बिलों पर कर रहे हैं जिससे वो और गरीब हो रहे हैं। ऎसे में भी हमारे देश में डॉक्टर और लैब की मिली भगत के कारण "बेसिन टैस्ट" हो रहे हैं। बेसिन टैस्ट की सच्चााई यह है कि मरीज का खून टैस्ट हेतु लेकर उसे वॉस बेसिन में फेंक दिया जाता है। डॉक्टर रोग के निदान के लिए कई-कई टैस्ट कराते हैं। मेडिकल एस्ट्रोलॉजी की मदद से रोग के मूल में पहुंचा जा सकता है जो कई-कई तरह के टैस्ट से मुक्ति दिला सकता है।
रोग निर्णय के सोपान -
किन ग्रहों का विचार करना है- *फलदीपिकानुसार* रोग निर्णय के लिए जिन ग्रहों का विचार करना चाहिए वे हैं-
(1) छठे भाव में स्थित ग्रह,
(2) अष्टम भाव में स्थित ग्रह,
(3) बारहवें भाव में स्थित ग्रह,
(4) छठे भाव का स्वामी,
(5) षष्ठेश से युति कर रहे ग्रह।
षष्ठेश रोग का स्वामी है इसलिए षष्ठेश की स्थिति का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है।
*मानसागरी* में षष्ठेश के विभिन्न भावों में फल का बहुत अच्छा वर्णन किया गया है। यदि सिर्फ रोग के संदर्भ में देखा जाए तो षष्ठेश लग्नमें में क्षति वाला आरोग्य देते हैं,
द्वितीय भाव में व्याधि युक्त शरीर देते हैं,
तृतीय भाव में षष्ठेश व्यक्ति को ल़डाई-झगडे़ करने की प्रवृति देते हैं,
चतुर्थ भाव में जाने पर माता को रोगी बनाते है, पंचम भाव में पुत्र के कारण कष्ट प्राप्त होता है, षष्ठेश छठे भाव में होकर आरोग्य देते हैं, शत्रु रहित और कष्टरहित जीवन देते हैं, सप्तम भाव में षष्ठेश पत्नी से कष्ट दिलाते हैं। अष्टम के संदर्भ में ग्रहों का वर्णन भी है...।
यदि षष्ठेश शनि हो तो संग्रहणी रोग होता है। मंगल हो तो सर्प से खतरा, बुध हो तो विष दोष, चन्द्रमा हो तो शीतादि दोष, सूर्य हो तो जानवर से भय, बृहस्पति हो तो पागलपन और शुक्र हो तो नेत्र रोग होता है। नवें भाव में जाने पर षष्ठेश लंगडापन देता है। दशम में पिता से कष्ट और विरोध देता है, एकादश में शत्रु चोरादि से भय देता है और द्वादशभाव में षष्ठेश व्यक्ति को अकर्मठ बना देता है।
ग्रहों का नैसर्गिक कारकत्व - तत्व आदि -
हम ज्योतिष मंथन के माध्यम से समय-समय पर ग्रहों के नैसर्गिक कारकत्वों पर ध्यान केन्द्रित करने की बात करते रहे हैं। एक बार पुन: यही दोहरा रहे हैं। मेडिकल एस्ट्रोलॉजी में सटीक परिणाम पर पहुँचने के लिए ग्रहों के नैसर्गिक कारकत्व तत्व आदि पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है।
फलदीपिका के अनुसार सूर्य और मंगल तेज के अधिष्ठाता हैं और दृष्टि पर इनका अधिकार है। चन्द्रमा और शुक्र जल तत्व के होने के कारण रसेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं इसलिए शरीर के एन्डोक्राइन सिस्टम यानि हार्मोन ग्रंथियों पर इनका अधिकार है। बुध पृथ्वी तत्व के होने के कारण घ्राणेन्द्रिय हैं। बृहस्पति में आकाश तत्व प्रधान होने से वे श्रवणेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं। शनि, राहु और केतु वायु के अधिष्ठाता हैं इसलिए स्पर्श का विचार इनसे करना चाहिए।
ग्रहों से होने वाले संभावित रोग की विवेचना में नैसर्गिक कारकत्व के साथ-साथ काल पुरूष की कुण्डली में उस ग्रह की राशि का विचार भी करें। उदाहरण के लिए सूर्य हड्डी के नैसर्गिक प्रतिनिधि हैं इसलिए हड्डी से जुडी बीमारियां सूर्य से देखी जाती हैं। कालपुरूष की कुण्डली में सूर्य की राशि पंचम भाव में आती है जो नाभि के आसपास का क्षेत्र है। इसलिए सूर्य से नाभि प्रदेश और कोख की बीमारियां दोनों देखी जानी चाहिए। इसी तरह सूर्य पित्त का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। इसलिए यदि सूर्य से रोग निर्धारण कर रहे हैं तो इन सभी बिन्दुओं पर ध्यान रखना होगा।
राहु की दशा -
राहु भ्रम देते हैं। इसलिए जब राहु की दशा चल रही होती है तब बहुत प्रयास के बाद भी सही निदान संभव नहीं हो पाता। यदि प्रत्यन्तरदशा हो तो सही निदान के लिए थोडा इंतजार करने की सलाह दी जाती चाहिए। राहु के बाद बृहस्पति की दशा में भ्रम दूर होते हैं और स्थिति साफ होती है। यह निश्चित किया जाना चाहिए कि राहु दशा का कितना समय बाकी है। यदि थो़डा समय बाकी है और इंतजार करना चाहिए। यदि राहु दशा की अवधि अधिक हो तो राहु की पूजा पाठ और उपाय करने के बाद निदान प्रक्रिया से कुछ हद तक सही परिणाम प्राप्त किया जा सकता है।
किसी ब़डी शल्य क्रिया या किसी प्रकार की खास थैरेपी अपनाने से पहले निपुण वैध की सलाह अवश्य ली जानी चाहिए।
राहु दशा में बडे़ निर्णय से पूर्व निश्चित रूप से दो बार जांच करानी चाहिए और उसके बाद कदम उठाना चाहिए।
कुछ खास युतियां -
रोग निर्णय में कुछ खास युतियां बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। शुक्र के साथ जब भी मंगल या राहु युति करते हैं तो शुक्र के नैसर्गिक कारकत्व में वृद्धि होती है। हिस्टीरिया जैसे रोगों में यह योग पाया गया है। यह महत्वपूर्ण है कि यही युति महान कलाकार भी बनाती है और लक्ष्य प्राप्त की ऊर्जा भी देती है।
इसलिए किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले कुछ सावधानियां आवश्यक हैं। शुक्र किस भाव के स्वामी हैं और यह युति किस भाव में हो रही है, इस युति पर किन ग्रहों की दृष्टि है, इस सब बिन्दुओं पर ध्यान देकर सही निर्णय पर पहुँचा जा सकता है। बुध और शनि की युति भी महत्वपूर्ण है। प्राय: यह युति निराशाजनक प्रवृत्ति देती है। यदि इनका संबंध सप्तम या द्वादश भाव से हो तो व्यक्ति के वैवाहिक संबंधों में अजीब व्यवहार देखने को मिलता है। भारतीय परिपे्रक्ष्य में लोग इस विषय में विशेषज्ञ सलाह लेने से हिचकिचाते हैं और समस्या वैसी ही बनी रहती है। अन्य भावों में युति या संबंध स्न्रायु तंत्र से संबंधित परेशानियों का संकेत है।
बुध और राहु की युति त्वचा से जुडे़ बैक्टीरियल इंफेक्शन देती है। बुध इस युति से जितने अधिक पीड़ित होंगे रोग की तीव्रता उतनी ही अधिक होगी। जहां राहु बैक्टीरियल इंफेक्शन देते हैं वहीं केतु वायरल इंफेक्शन देते हैं। बुध और केतु की युति उनकी दशान्तर्दशा में हर्पीज़ जैसी वाइरस जनित बीमारी देती है। चन्द्रमा मन हैं। कमजोर और पीडीत चन्द्रमा व्याधियुक्त शरीर का कारण हो सकते हैं।
चन्द्रमा यदि विष घटी या मृत्युभाग में हो तो कभी ना ठीक होने वाली बीमारियां हो सकती हैं।
चन्द्रमा की पाप ग्रहों से युति मनोरोग देती है। कमजोर चन्द्रमा की युति शनि से होने पर डिप्रेशन की शिकायत देखी जाती है। व्यक्ति हालात का सामना नहीं कर पाता है और निराशा के गर्त में चला जाता है।
चन्द्रमा और राहु प्राय: स्कीजोफ्रेनिया या डिल्यूजन जैसी बीमारी देते हैं। यह बहुत खतरनाक स्थिति होती है जब व्यक्ति भ्रमित रहता हैै तो ना तो वो अपनी स्थिति किसी को समझा पाता है ना ही उसकी असली स्थिति कोई समझ पाता है। लग्न और लग्नेश का महत्व - यदि लग्न और लग्नेश बलवान हैं तो व्यक्ति में परिस्थिति से ल़डने और जीतने की क्षमता आ जाती है।
लग्न / लग्नेश बलवान हों और छठा भाव भी रोग का संकेत दे रहा हो तो व्यक्ति को सही इलाज मिलता है उसके ठीक होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। यदि कोई बीमार है और गोचर में बृहस्पति लग्न या लग्नेश को देखते हैं तो व्यक्ति के ठीक होने की संभावना बढ़ जाती है। इस लिए रोग से संबंधित किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले लग्न और लग्नेश की स्थिति का अध्ययन अवश्य कर लेना चाहिए।
गत जन्म और रोग :
*प्रश्न मार्ग* में रोग का गत जन्म के कर्मो से संबंध जो़डा गया।
प्रश्न मार्ग के अनुसार :-
1 अष्टमेश जब छठे भाव या छठे भाव के स्वामी से संबंध करता है तो रोग का कारण गत जन्म के कर्म होते हैं।
2 इसी तरह अष्टम भाव में बैठे ग्रह का संबंध यदि छठें भाव से हो तो भी रोग का कारण गत जन्म के कर्म होते हैं। 3 पंचम और अष्टम बहुत बली हों तो पिछले जन्म के बहुत से अभुक्त कर्म शेष रहते हैं और रोग का कारण बनते हैं।
4 पंचम में अधिक अष्टक वर्ग बिन्दु का होना यह संकेत है कि गत जन्म के अभुक्त कर्म इस जन्म में पीछा कर रहे हैं। इसलिए पंचम भाव में कम अष्टक वर्ग बिन्दु का होना शुभ माना जाता है।
*बृहद् पाराशर होरा शास्त्र में वर्णन है कि यदि पंचम या पंचमेश का संबंध मंगल और राहु से होगा तो पिछले जन्म में सर्प के श्राप के कारण इस जन्म में संतान हानि होगी।
गर्भ में संतान अपनी माता से नाल के माध्यम से जु़डा रहता है। इस नाल पर राहु का अधिकार है। सर्पदोष के कुछ मामलों में पाया गया है कि यह नाल बच्चो के गले में लिपट कर मृत्यु का कारण बनी। सर्पाकृति होने के कारण फैलोपियन ट्यूब पर भी राहु का ही अधिकार है। कुछ मामलों में फैलोपियन ट्यूब में इंफेक्शन या Blockage के कारण संतान ना होना पाया गया।
जेनेटिक रोग और राहु :-
हमारे शरीर में जो DNA है उसमें एक हिस्सा माता से प्राप्त होता है और दूसरा पिता से। इसी DNA में हमारा Genetic Code होता है जिससे माता-पिता की आदतें बीमारियां आदिहम तक पहुँचती हैं। DNA की सर्पाकृति है और सर्पाकृति पर राहु का अधिकार है। जेनेटिक बीमारियों में राहु की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। कई मामलों में देखा गया है कि बीमारी दो-तीन पीढ़ी तक दबी रहती है परन्तु फिर अचानक प्रकट हो जाती है। यदि तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो आप पाएंगे कि जिस पीढ़ी में बीमारी प्रकट हुई है उन कुण्डलियों में छठें-आठवें भाव पर राहु का प्रभाव अधिक है। छठे, आठवें के स्वामी या तो राहु के नक्षत्र में होंगे या छठें-आठवें में बैठे ग्रह राहु के नक्षत्र या राहु के प्रभाव में होंगे।