योग ,रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति, उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है; वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है | और जव वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है| तो उसको वाह्य जगत में व्यक्त करने में उसे अत्यंत कठिनाई होती है | लौकिक भाषा ,वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती . इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है,जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते है.. जब सिध्द योग का साधक चेतन हो जाता है, तो वह अपने सभी शरीरो को पवित्र कर लेता है। वह जंहा-जहां ध्यान लगाता है, वह धरती पवित्र हो जाती है,धरती ऎसॆ पुण्यातमाओ को पाकर धन्य हो जाती है। अपने कर्मो से, वय्वहार से, वाणी से, वह साधक चारो ओर अपार सुख बिखेरता हैै,वह सबका परममित्र बन संसार में उज्जवल कर्म करता है, अपनी मस्ती और निजानन्द में, हंसता, रोता,गाता है,उससे मिल कर हर कोई अपनेआप को सोभाग्यशाली मानता है ,सहज-सरल वह साधक सर्वत्र प्रेम का प्रसार कर सम्पुर्ण जगत को ही ईश्वरमय बना देता है। ऐसे लोग ही परमात्मा की सृष्ठी के श्रेष्ट नियामक है।