गुरु शिष्य सम्बन्ध-
गुरु दीक्षा क्या है-
दीक्षा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द दक्ष से हुई है जिसका अर्थ है कुशल होना। समानार्थी अर्थ है - विस्तार। इसका दूसरा स्रोत दीक्ष शब्द है जिसका अर्थ है समर्पण अतः दीक्षा का सम्पूर्ण अर्थ हुआ - स्वयं का विस्तार।
दीक्षा के द्वारा शिष्य में यह सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि गुरु से प्राप्त ऊर्जा के द्वारा शिष्य के अंदर आतंरिक ज्योति प्रज्ज्वलित होती है , जिसके प्रकाश में वह अपने अस्तित्व् के उद्देश्य को देख पाने में सक्षम होता है। दीक्षा से अपूर्णता का नाश और आत्मा की शुद्धि होती है।
गुरु का ईश्वर से साक्षात सम्बन्ध होता है। ऐसा गुरु जब अपनी आध्यात्मिक/प्राणिक ऊर्जा का कुछ अंश एक समर्पित शिष्य को हस्तांतरित करता है तो यह प्रक्रिया गुरु दीक्षा कहलाती है। यह आध्यात्मिक यात्रा की सबसे प्रारम्भिक सीढ़ी है। गुरु दीक्षा के उपरांत शिष्य गुरु की आध्यात्मिक सत्ता का उत्तराधिकारी बन जाता है। गुरु दीक्षा एक ऐसी व्यवस्था है जिसमे गुरु और शिष्य के मध्य आत्मा के स्तर पर संबंद्ध बनता है जिससे गुरु और शिष्य दोनों के मध्य ऊर्जा का प्रवाह सहज होने लगता है। गुरु दीक्षा के उपरान्त गुरु और शिष्य दोनों का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। गुरु का उत्तरदायित्व समस्त बाधाओं को दूर करते हुए शिष्य को आध्यात्मिकता की चरम सीमा पर पहुचाना होता है। वहीं शिष्य का उत्तरदायित्व हर परिस्थिति में गुरु के द्वारा बताये गए नियमों का पालन करना होता है।
दीक्षा कब मिलती है-
जब हमारा अंतःकरण (मन) शुद्ध हो जाता है तब दीक्षा मिलती है। शुद्ध का मतलब संछेप में समझिये जब अंतःकरण (मन) एक भोले भाले बच्चे की तरह हो जाता है, वह बच्चा न तो किसी के बारे में बुरा सोचता है न तो किसी के बारे में अच्छा सोचता है, अर्थात संसार से उस बच्चे का मन ना तो राग (प्रेम) करता है और ना तो द्वेष (दुश्मनी) करता है। जब किसी वक्ति का अंतःकरण भगवान में मन लगाकर, इस अवस्था पर पहुँच जाता है। तब वास्तविक गुरु आपके अंतःकरण को दिव्य बनायेगा। तब वास्तविक गुरु अथवा संत अथवा महापुरुष आपको गुरु मंत्र या दीक्षा देता है। अब दीक्षा का समय आया है, जब अंतःकरण शुद्ध हो गया। इससे पहले दीक्षा नहीं दी जा सकती। क्योंकि हमारा अंतःकरण उस अलौकिक शक्ति को सम्हाल (सहन)नहीं सकता। अगर कोई गुरु
अथवा महापुरुष बिना अधिकारी बने किसी को जबरदस्ती दीक्षा देदें, तो उस व्यक्ति का शरीर फट के चूर-चूर हो जाये। वह अनाधिकारी व्यक्ति सहन नहीं सकता। हमारा (माया अधीन जिव) का अंतःकरण इतना कमजोर है की उस दीक्षा (अलौकिक शक्ति/ दिव्य आनंद, दिव्य प्रेम आनंद) को सहन नहीं कर सकता। हम लोग संसार के सुख और दुःख को ही नहीं सम्हाल (सहन) कर सकते है। जैसे एक गरीब को करोड़ की लॉटरी खुल जाये, तो वह बेहोश हो जाता है, किसी की प्रेमिका प्रेमी अथवा माता पिता संसार छोड़ देते है, तो उसका दुःख भी वह व्यक्ति नहीं सम्हाल पता है। तो यह जो अलौकिक शक्ति (दिव्य आनंद) है इसे कोई क्या सम्हाल पायेगा।
ये दीक्षा अनेक प्रकार से दी जाती है। अगर वह
दीक्षा बोल के दी जाये तो उसे हमलोग गुरु मंत्र कहते है। वास्तविक गुरुओं ने अनेक तरीकों से दीक्षा दिया है, कभी कान में बोल के, आँख से देख के, गले लगा के यहाँ तक फूक मर कर दिया है। दीक्षा देना है, किसी बहाने देदें, चाहे एक घुसा मार के देदें। दीक्षा देने में यह आवश्यक नहीं है की कान से दिया जाये। गौरांग महाप्रभु ने गले लगा के दीक्षा दिया है।
दीक्षा के प्रकार-
स्पर्श दीक्षा , दृग दीक्षा , मानस दीक्षा, शक्ति , शाम्भवी , मांत्रिक दीक्षा
स्पर्श दीक्षा-
जैसे पक्षी अपने सुंदर पंखों से धीरे-धीरे शिशुओं की वृद्धि करता है, इस प्रकार की दीक्षा को स्पर्श दीक्षा कहते हैं। अर्थात् शिष्य को छूने मात्र से शिष्य में शक्तिपात करते हैं।
दृग दीक्षा-
योग्य गुरु अपने कृपा पात्र शिष्य की निष्ठा से प्रसन्न होकर अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर संकल्प करके दृग दीक्षा देते है।
उदाहरण के लिये जैसे मछली अपने बच्चों को देखने मात्र से पोषण करती है, इस प्रकार जो गुरु देखने मात्र से शक्तिपात करते हैं, उसे दृग-दीक्षा कहते हैं।
मानस दीक्षा-
मानस दीक्षा को संकल्प दीक्षा भी कहते हैं। इसमें देशकाल का व्यवधान नहीं होता। सद्गुरु चाहे जहाँ हों और शिष्य उनसे चाहे कितनी ही दूर हो, सद्गुरु अपने संकल्प मात्र से शिष्य में शक्तिपात कर देते हैं।
इसमें यह भी आवश्यक नहीं है कि शिष्य ने सद्गुरु के दर्शन किए हों या विधिवत् प्रार्थना की हो कि मुझे दीक्षित करें।
शक्ती दीक्षा-
गुरु योगमार्ग से शिष्य के शरीर में प्रवेश करके उसके अंत:करण में ज्ञान उत्पन्न करके जो ज्ञानवती दीक्षा देते हैं, वह शक्ती दीक्षा कहलाती है।
शाम्भवी दीक्षा-
गुरु के दृष्टिपात मात्र से, स्पर्ष से तथा बातचीत से भी जीव को पाश्बंधन को नष्ट करने वाली बुद्धि एवं ईश्वर के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है। प्रकृति (सत, रज, तम गुण), बुद्धि, त्रिगुणात्मक अहंकार एवं शब्द, रस, रूप, गंर्ध स्पशज़् (पांच तन्मात्राएं), इन्हें आठ पाश कहा गया है। इन्हीं से शरीरादी संसार उत्पन्न होता है। इन पाशों का समुदाय ही महाचक्र या संसारचक्र है और परमात्मा इन प्रकृति आदि आठ पाशों से परे है। गुरु द्वारा दी गई योग दीक्षा से यह पाश क्षीण होकर नष्ट हो जाता है।
मान्त्री दीक्षा-
मान्त्री दीक्षा में पहले यज्ञमंडप और हवनकुंड बनाया जाता है। फिर गुरु बाहर से शिष्य का संस्कार (शुद्धि) करते हैं। शक्तिपात के अनुसार शिष्य को गुरु का अनुग्रह प्राप्त होता है। जिस शिष्य में गुरु की शक्ति का पात नहीं हुआ, उसमें शुद्धि नहीं आती, उसमें न तो विद्या, न मुक्ति और न सिद्धियां ही आती हैं। इसलिए शक्तिपात के द्वारा शिष्य में उत्पन्न होने वाले लक्षणों को देखकर गुरु ज्ञान अथवा क्रिया द्वारा शिष्य की शुद्धि करते हैं। उत्कृष्ट बोध और आनंद की प्राप्ति ही शक्तिपात का लक्षण (प्रतीक) है क्योंकि वह परमशक्ति प्रबोधानन्दरूपिणी ही है।
गुरु दीक्षा कौन दे सकता है-
गुरु शब्द का अर्थ है जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाये। एक सम्पूर्ण जागृत गुरु, जो की सहस्त्र्सार चक्र में स्थित हो वही दीक्षा देने का अधिकारी होता है। ऐसे गुरु की पहचान उनके व्यवहार से होती है। ऐसे गुरु सबके लिए करुणामय होते है। उनका ज्ञान अभूतपूर्व होता है। जागृत गुरु अहंकार, काम, क्रोध, लोभ और मोह से दूर रहते है। वह शिष्य की किसी भी समस्या और परिस्थिति का समाधान निकालने में सक्षम होते है। ऐसे गुरु का ध्यान अत्यंत उच्च कोटि का होता है।
गुरु दीक्षा किसको दी जाती है-
शिव पुराण में भगवान् शिव माता पार्वती को योग्य शिष्य को दीक्षा देने के महत्त्व को इस प्रकार समझाते है - हे वरानने ! आज्ञा हीन, क्रियाहीन, श्रद्धाहीन तथा विधि के पालनार्थ दक्षिणा हीन जो जप किया जाता है वह निष्फल होता है।
इस वाक्य से गुरु दीक्षा का महत्त्व स्थापित होता है। दीक्षा के उपरान्त गुरु और शिष्य एक दुसरे के पाप और पुण्य कर्मों के भागी बन जाते है। शास्त्रो के अनुसार गुरु और शिष्य एक दूसरे के सभी कर्मों के छठे हिस्से के फल के भागीदार बन जाते है , यही कारण है कि दीक्षा सोच समझकर ही दी जाती है। अब प्रश्न यह उठता है कि दीक्षा के योग्य कौन होता है? धर्म अनुरागी, उत्तम संस्कार वाले और वैरागी व्यक्ति को दीक्षा दी जाती है। दीक्षा के उपरान्त आदान प्रदान की प्रक्रिया गुरु और शिष्य दोनों के सामर्थ्य पर निर्भर करती है। दीक्षा में गुरु के सम्पूर्ण होने का महत्व तो है ही किन्तु सबसे अधिक महत्व शिष्य के योग्य होने का है। क्योंकि दीक्षा की सफलता शिष्य की योग्यता पर ही निर्भर करती है। शिष्य यदि गुरु की ऊर्जा और ज्ञान को आत्मसात कर अपने जीवन में ना उतार पाये अर्थात क्रियान्वित ना करे तो श्रेष्ठ प्रक्रिया भी व्यर्थ हो जाती है। इसलिए अधिकांशतः गुरु शिष्य के धैर्य, समर्पण और योग्यता का परीक्षण एक वर्ष तक या इससे भी अधिक अवधि तक विभिन्न विधियों से करने के उपरान्त ही विशेष दीक्षा देते है। ऐसी दीक्षा मन, वचन और कर्म जनित पापों का क्षय कर परम ज्ञान प्रदान करती है।
शिष्य को किस प्रकार की दीक्षा दी जाए इसका निर्धारण गुरु शिष्य की योग्यता और प्रवृत्ति के अनुसार करता है। दीक्षा का प्रथम चरण है मंत्र द्वारा दीक्षा। जब शिष्य अपनी मनोभूमि को तैयार कर, सामर्थ्य, योग्यता, श्रद्धा, त्यागवृत्ति के द्वारा मंत्रो को सिद्ध कर लेता है तो दीक्षा के अगले चरण में पहुंच जाता है। अगला स्तर प्राण दीक्षा/ शाम्भवी दीक्षा का होता है।
कभी कभी गुरु स्वयं ही अपने शिष्य का चुनाव करते है। शिष्य का गुरु से जब पिछले जन्म से ही सम्बन्ध होता है और जागृत गुरु को इसका ज्ञान होता है, ऐसी परिस्थिति में गुरु स्वयं शिष्य का चुनाव करते है।
जब व्यक्ति की योग्यता अच्छी हो और गुरु पाने की तीव्र अभिलाषा हो तो योग्य गुरु को योग्य शिष्य से मिलाने में इश्वर स्वयं सहायता करते है। ऐसा श्री राम कृष्ण परमहंस के साथ हुआ था। उनके गुरु तोताराम को माँ काली ने स्वप्न में दर्शन देकर रामकृष्ण के गुरु बनने का आदेश दिया था।
तीसरी परिस्थिति में शिष्य अपनी बुद्धिमत्ता से गुरु की योग्यता की पहचान कर दीक्षा को धारण करता है और गुरु शिष्य की योग्यता को समझकर दीक्षा के प्रकार का निर्धारण करता है।
अच्छे शिष्य के लक्षण-
गुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास करने वाला
आज्ञाकारी।
आस्तिक और सदाचारी।
सत्य वाणी का प्रयोग करने वाला।
चपलता , कुटिलता , क्रोध , मोह , लोभ , ईर्ष्या इत्यादी अवगुणों से दूर रहने वाला।
जितेन्द्रिय।
पर निंदा , छिद्रान्वेषण , कटु भाषण और सिगरेट मद्य इत्यादि व्यसनों से दूर रहने वाला।
गुरु के सदुपदेशों पर चिंतन मनन करने वाला।
नियमों का पालन श्रद्धा और विश्वास से करने वाला।
गुरु की सेवा में उत्साह रखने वाला।
गुरु की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति दोनों परिस्थितियों में उनके आदेशों का पालन करना।
चेतना के जागरण के लिए इन तीन पक्षों का सामंजस्य अनिवार्य है-
१- शिष्य का पुरुषार्थ, श्रद्धा, विश्वास
२- गुरु की सामर्थ्य
३- दैवीय कृपा
गुरु की आवश्यकता क्यों-
गुरु की चेतना इश्वर से निरंतर संयुक्त रहने के कारण इश्वर तुल्य होती है , जबकि साधारण मनुष्य की चेतना संसार से जुडी रहने के कारण वाह्य्मुखी और अधोगामी होती है। चेतना के वाह्य मुखी और अधोगामी होने के कारण ईश्वर से हमारा संपर्क टूट जाता है जिसके कारण अविद्या का प्रभाव बढ़ जाता है। अविद्या के प्रभाव के कारण मनुष्य की प्रवृत्ति छोटी छोटी बातों में दुखी होने की, घृणा ,इर्ष्या ,क्रोध अनिर्णय और अविवेक की स्थिति से घिर जाता है। फलस्वरूप निम्न कर्मों की ओर प्रवृत होकर चेतना के स्तर से गिर कर मनुष्य योनी को छोड़कर निम्न योनियों को प्राप्त हो जाता है।
गुरु को प्रकृति और ईश्वर के नियमों का ज्ञान होने के कारण उनमे अज्ञानता के भंवर से निकलने की क्षमता होती है। वह शिष्य को धीरे धीरे ज्ञान देकर, कर्मों की गति सही करवाकर और सामर्थ्य की वृद्धि करवाकर अज्ञान के इस भंवर से निकाल कर इश्वर से सम्बन्ध स्थापित करवा देते है।
क्या हमारा विकास सृष्टि और हमारे परिवारजनों को प्रभावित करता है-
हम सभी एक चेतना के अंश है , चाहे वह कोई भी वनस्पति हो , जीव हो, नदी हो , पहाड़ पर्वत हो अथवा पशु पक्षी हो इसका अर्थ यह है कि इश्वर सृष्टि के हर कण में विद्यमान है। यह एक अलग बात है की मनुष्य पौधों और जंतुओं में चेतना का प्रतिशत भिन्न भिन्न होता है। चेतना के प्रतिशत के अनुपात के अनुसार कार्य और विचार की क्षमता प्राप्त होती है। मनुष्यों में सृष्टि के अन्य व्यक्त रूपो से चेतना का प्रतिशत अधिक होता है। इसी कारण मनुष्य को इच्छा, कर्म और ज्ञान की सामर्थ्य प्राप्त है। चेतना का स्तर मनुष्य अपने प्रयासों के द्वारा बढ़ा कर परम चेतना को प्राप्त कर सकता है। जब एक चेतना अपना विकास कर परम चेतना को प्राप्त करती है तो सकारात्मक उर्जा की सृष्टि में वृद्धि हो जाती है और विभिन्न अनुपातों में अन्य प्राणियों के विकास में सहायक होती है।
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