**क्या है पंच तत्व और तन्मात्रा साधना ?क्या है पंच तत्वों के संतुलन के पाँच प्रकार के अभ्यास?
क्या है पंच तत्वों का महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान?-
1-पंच तत्वों के द्वारा इस समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है। मनुष्य का शरीर भी पाँच तत्वों से ही बना हुआ है।पंचतत्व को ब्रह्मांड में व्याप्त लौकिक एवं अलौकिक वस्तुओं का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण और परिणति माना गया है। ब्रह्मांड में प्रकृति से उत्पन्न सभी वस्तुओं में पंचतत्व की अलग-अलग मात्रा मौजूद है। अपने उद्भव के बाद सभी वस्तुएँ नश्वरता को प्राप्त होकर इनमें ही विलीन हो जाती है।तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के किष्किंधाकांड में लिखा है ''क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा।''।यह पाँच तत्व है..क्रमश:, क्षिति यानी कि पृथ्वी, जल यानी कि पानी, पावक यानी कि आग, गगन यानी आकाश और समीर यानी कि हवा।
2-योगविद्या में तत्व साधना का अपना महत्त्व एवं स्थान है। पृथ्वी आदि पाँच तत्वों से ही समस्त संसार बना हैं। विद्युत आदि जितनी भी शक्तियाँ इस विश्व में मौजूद हैं। वे सभी इन पञ्च तत्वों की ही अन्तर्हित क्षमता है। आकृति-प्रकृति की भिन्नता युक्त जितने भी पदार्थ इस संसार में दृष्टिगोचर होते हैं वे सब इन्हीं तत्वों के योग-संयोग से बने हैं।
न केवल शरीर की, वरन् मन की भी बनावट- तथा स्थिति में इन्हीं पंचतत्वों की भिन्न मात्रा का कारण है। शारीरिक, मानसिक दुर्बलता एवं रुग्णता में भी प्राय: इन तत्वों की ही न्यूनाधिकता पर्दे के पीछे काम करती रहती है।
3-हमारे मनीषियों ने इन पंच तत्त्वों को सदा याद रखने के लिए एक आसान तरीका निकाला और कहा कि यदि मनुष्य 'भगवान' को सदा याद रखे तो इन पांच तत्वों का ध्यान भी बना रहेगा। उन्होंने पंच तत्वों को किसी को भगवान के रूप में तो किसी को अलइलअह
अर्थात अल्लाह के रूप में याद रखने की शिक्षा दी।भगवान में आए इन अक्षरों का विश्लेषण इस प्रकार किया गया है- भगवान- भ- भूमि यानि पृथ्वी, ग- गगन यानि आकाश, व- वायु यानि हवा, अ- अग्नि अर्थात आग और न- नीर यानि जल।इसी प्रकार अलइलअइ (अल्लाह)
अक्षरों का विश्लेषण इस प्रकार किया गया है- अ- आब यानि पानी, ल- लाब- यानि भूमि, इ- इला-दिव्य पदार्थ अर्थात वायु, अ- आसमान यानि गगन और ह- हरंक यानि अग्नि। इस पांच तत्वों के संचालन व समन्वय से हमारे शरीर में स्थित चेतना (प्राणशक्ति) बिजली-सी होती है।
4-इससे उत्पन्न विद्युत मस्तिक में प्रवाहित होकर मस्तिष्क के 2.4 से 3.3 अरब कोषों को सक्रिय और नियमित करती है। ये कोष अति सूक्ष्म रोम के सदृश्य एवं कंघे के दांतों की तरह पंक्ति में जमे हुए होते हैं। मस्तिष्क के कोष ...पांच प्रकाश के होते हैं और पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश) का प्रतिनिधित्व करते हैं। मूलरूप से ये सब मूल तत्व हमारे शरीर में बराबर मात्रा में रहने चाहिए।इन तत्वों का जब तक शरीर में उचित भाग रहता है तब तक स्वस्थता रहती है। जब कमी आने लगती है तो शरीर निर्बल, निस्तेज, आलसी, अशक्त तथा रोगी रहने लगता है। स्वास्थ्य को कायम रखने के लिए यह आवश्यक है कि तत्वों को उचित मात्रा में शरीर में रखने का हम निरंतर प्रयत्न करते रहें और जो कमी आवे उसे पूरा करते रहें।
5-पृथ्वी तत्व असीम सहनशीलता का द्योतक है और इससे मनुष्य धन-धान्य से परिपूर्ण होता है। इसके त्रुटिपूर्ण होने से लोग स्वार्थी हो जाते हैं। जल तत्व शीतलता प्रदान करता है। इसमें विकार आने से सौम्यता कम हो जाती है। अग्नि तत्व विचार शक्ति में सहायक बनता है और मस्तिष्क के भेद अंतर को परखने वाली शक्ति को सरल बनाता है। यदि इसमें त्रुटि आ जाए तो हमारी सोचने की शक्ति का ह्रास होने लगता है। वायु तत्व मानसिक शक्ति तथा स्मरण शक्ति की क्षमता को पोषण प्रदान करता है। अगर इसमें विकार आने लगे तो स्मरण शक्ति कम होने लगती है। आकाश तत्व आवश्यक संतुलन बनाए रखता है। इसमें विकार आने से हमारा शारीरिक संतुलन खोने लगता है।
6-पृथ्वी तत्व का केन्द्र मल द्वार और जननेन्द्रिय के बीच है इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। जल तत्व का केन्द्र मूत्राशय की सीध में पेडू पर है इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। अग्नि तत्व का निवास नाभि और मेरुदण्ड के बीच में है इसे मणिपुर चक्र कहते हैं। वायु केन्द्र हृदय प्रदेश के अनाहत चक्र में है। आकाश तत्व का विशेष स्थान कण्ठ में है, इसे विशुद्ध चक्र कहा जाता है।
कब किस तत्व की प्रबलता है इसकी परख थोड़ा सा साधना अभ्यास होने पर सरलतापूर्वक की जा सकती है।
7-पृथ्वी तत्व का रंग पीला, जल का नीला/काला, अग्नि का लाल, वायु का हरा/ भूरा और आकाश का श्वेत /ग्रे है। आँखें बन्द करने पर दिखाई पड़े तब उसके अनुसार तत्व की प्रबलता आँकी जा सकती है। जिह्वा इन्द्रिय को सधा लेने पर मुँह में स्वाद बदलते रहने की प्रक्रिया को समझकर भी तत्वों की प्रबलता जानी जा सकती है। पृथ्वी तत्व का स्वाद मीठा, जल का कसैला, अग्नि का तीखा, वायु का खट्टा और आकाश का खारी होता है। गुण एवं स्वभाव की दृष्टि से यह वर्गीकरण किया जाय तो अग्नि और आकाश सतोगुण वायु और जल रजोगुण तथा पृथ्वी को तमोगुण कहा जा सकता है।
8-शरीर विश्लेषणकर्त्ताओं रासायनिक पदार्थों की न्यूनाधिकता अथवा अमुक जीवाणुओं की उपस्थिति- अनुपस्थिति को शारीरिक असन्तुलन का कारण मानते हैं, पर सूक्ष्मदर्शियों, की दृष्टि में तत्वों का-असन्तुलन ही इन समस्त संभ्रातियों का प्रधान कारण होता है। किस तत्व को शरीर में अथवा मन क्षेत्र में कमी है उसकी पूर्ति के लिए क्या किया जाय, इसका पता लगाने के लिए तत्व विज्ञानी किसी व्यक्ति में क्या रंग कम पड़ रहा है, क्या घट रहा है यह ध्यानस्थ होकर देखते हैं और औषधि उपचारकर्ताओं की तरह जो कमी पड़ी थी, जो विकृति बड़ी थी उसे उस तत्व प्रधान आहार- विहार में अथवा अपने में उस तत्व को उभार कर उसे अनुदान रूप रोगी या अभावग्रस्त को देते हैं। इस तत्व उपचार का लाभ सामान्य औषधि चिकित्सा की तुलना में कहीं अधिक होता है।
क्या है तन्मात्रा साधना...पंच तन्मात्राओं का पंच ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्ध? ;-
1- पाँच इन्द्रियों के खूँटे से, पाँच तन्मात्राओं के रस्सों से जीव बँधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं ।परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्रायें उत्पन्न कर और उनके अनुभव के लिये शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ बनाकर, शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ सम्बद्ध कर दिया है। यदि पंचतत्व केवल स्कूल ही होते, उनमें तन्मात्रायें न होतीं तो इन्द्रियों को संसार के किसी पदार्थ में कुछ आनन्द न आता।
पाँचतत्व पाँच ज्ञानेन्द्रिय पाँचतन्मात्रा
1-1-आकाश कान' 'शब्द'
1-2-वायु त्वचा 'स्पर्श'
1-3-अग्नि नेत्र 'रूप'
1-4-जल जीभ 'रस'
1-5-पृथ्वी नासिका 'गन्ध'
2-आकाश की तन्मात्रा 'शब्द' है। वह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय हैं।
3-वायु की तन्मात्रा 'स्पर्श' का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तन्तु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उसके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।
4-अग्नि तत्व की तन्मात्रा 'रूप' है। यह अग्नि- प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आँखें ही देखती हैं।
5-जल तत्व की तन्मात्रा 'रस' है। रस का जल-प्रधान इन्द्रिय जिह्वा द्वारा अनुभव होता है, षटरसों का खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कड़ुवे, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है।
6-पृथ्वी तत्व की तमन्मात्रा 'गन्ध' को पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है।
7-इन्द्रियों में तन्मात्राओं का अनुभव कराने की शक्ति न हो तो संसार का और शरीर का सम्बन्ध ही टूट जाय। जीव को संसार में जीवन-यापन की सुविधा भले ही हो पर किसी प्रकार का आनन्द शेष न रहेगा। संसार के विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण प्रतीत होते हैं उनका एकमात्र कारण 'तन्मात्र' शक्ति है।
8-कल्पना कीजिये कि हम संसार के किसी पदार्थ के रूप में को न देख सकें तो सर्वत्र मौन एवं नीरवता ही रहेगी। स्वाद न चख सकें तो खाने में कोई अन्तर न रहेगा। गंध का अनुभव न हो तो हानिकारक सड़ाँध और उपयोगी उपवन में क्या फर्क किया जा सकेगा। त्वचा की शक्ति न हो तो सर्दी, गर्मी, स्नान, वायु- सेवन, कोमल शैय्या के सेवन आदि से कोई प्रयोजन न रह जायेगा।
क्या है रंगों की सूक्ष्म शक्ति तथा तत्व साधना?-
1-तत्व साधना उच्चस्तरीय साधना विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण विधान है। पंच तत्वों की यह साधना मनुष्य की शारीरिक और मानसिक कठिनाइयों के समाधान का एक नया मार्ग खोलती है।रंगों की शोभा सर्वविदित है, पर उनकी सूक्ष्म शक्ति की जानकारी बिरलों को ही होती है।सामान्य रंग शक्ति भी अपना प्रभाव रखती है, फिर सूक्ष्म रूप से काम करने वाली तत्वों से सम्बन्धित रंग शक्ति का तो कहना ही क्या।
2-फिल्टरों से युक्त.. नियोनआर्क लेम्प- लेसर किरणों के उपकरण- एक्सरेज की विशिष्ट धाराएँ- क्वान्टा किरणें इनर्जेटिक्स- क्वान्टम इलेक्ट्रोनिक्स आदि का प्रस्तुतीकरण सूर्य किरणों की विशेष रंग धाराओं का विश्लेषण करके ही सम्भव हो सका है। अब यह विज्ञान दिन-दिन अधिक महत्त्वपूर्ण स्तर पर उभरता चला आ रहा है।
3-तत्वों के रंगों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विज्ञानियों की मान्यता यह है कि आकाश तत्व का रंग नीला, अग्नि का लाल, जल का हरा, वायु का पीला और पृथ्वी का भूरा-मटमैला सफेद है। शरीर में जिस तत्व की कमी पड़ती है या बढ़ोत्तरी होती है उसका अनुमान अंगों के अथवा मलों के स्वाभाविक रंगों में परिवर्तन देखकर लगाया जा सकता है।
4-लाल रोशनी का उत्तेजनात्मक प्रभाव असंदिग्ध है। प्रातःकाल और सायंकाल जब सूर्योदय और सूर्यास्त की लालिमा आकाश में छाई रहती है तब पेड़-पौधा, जलचर और पक्षी आदि अधिक क्रियाशील और बढ़ते विकसित होते पाये जाते हैं। वनस्पतियों की वृद्धि किस समय किस क्रम से होती है इसका लेखा-जोखा रखने वालों का निष्कर्ष यही है कि प्रात: सायंकाल के थोड़े से समय में वे जितनी तीव्र गति से बढ़ते हैं उतने अन्य किसी समय नहीं। मछलियों की उछल-कूद इसी समय सबसे अधिक होती है। पक्षियों का चहचाहाना जितना दोनों संध्या काल में होता है उतना चौबीस घण्टों में अन्य किसी समय नहीं होता है।
5-इसी प्रकार पीला, हरा, बेंगनी, गुलाबी आदि अन्य रंगों का अपना-अपना प्रभाव होता है। त्वचा तो नस्ल के हिसाब से काली, पीली, सफेद या लाल रहती है, पर उसके पीछे भी रंगों के उतार-चढ़ाव झाँकते रहते हैं। साधारण स्थिति में त्वचा का जो रंग था उसमें तत्वों के परिवर्तन के अनुपात से परिवर्तन आ जाता है। यह हेर-फेर हाथ-पैरों के नाखूनों में, जीभ में, आँख की पुतलियों में अधिक स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है। इसलिए शरीर में होने वाले तत्वों की न्यूनाधिकता को इन्हें देखकर आसानी से समझा जा सकता है मल-मूत्र में भी यह अन्तर दिखाई पड़ता है। सन्तुलित स्थिति में पेशाब साधारण स्वच्छ जल की तरह होगा, पर यदि कोई बीमारी होगी तो उसका रंग बदलेगा।
6-डाक्टर मल-मूत्र रक्त आदि का रासायनिक विश्लेषण करके अथवा उनमें पाये जाने वाले विषाणुओं को देखकर रोग का निर्णय करता है तत्ववेत्ता अपने ढंग से जब तत्व चिकित्सा करते हैं तो यह पता लगाते हैं कि शरीर के आधार पंच तत्वों में से किसकी कितनी मात्रा घटी-बड़ी है। यह जानने के लिए उन्हें रंगों का शरीर में जो हेर-फेर हुआ है उसे देखना पड़ता है। तत्ववेत्ता मन: शास्त्रियों को अपनी दिव्यदृष्टि इतनी विकसित करनी पड़ती है कि मनुष्य के चेहरे के इर्द-गिर्द विद्यमान तेजोबलय की आभा को देख सकें और उसमें रंगों की दृष्टि से क्या परिवर्तन हुआ है इसे समझ सकें।
7-मानवीय विद्युत की ऊर्जा शरीर के हर अंग में रहती है और वह बाह्य जगत से सम्बन्ध मिलाने के लिए त्वचा के परतों में अधिक सक्रिय रहती है। शरीर का कोई भी अंग स्पर्श किया जाय उसमें तापमान की ही तरह विद्युत ऊर्जा का अनुभव किया जायेगा। यह ऊर्जा सामान्य बिजली की तरह उतना स्पष्ट झटका नहीं मारती या मशीनें चलाने के काम नहीं आती फिर भी अपने कार्यों को सामान्य बिजली की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह सम्पन्न करती है।
मस्तिष्क स्पष्टत: एक जीता जागता बिजलीघर है।
8-समस्त काया में बिखरे पड़े अगणित तन्तुओं में संवेदना सम्बन्ध बनाये रहने, उन्हें काम करने की प्रेरणा देने में मस्तिष्क को भारी मात्रा में बिजली खर्च करनी पड़ती है। उसका उत्पादन भी खोपड़ी के भीतर ही होता है ! अधिक समीपता के कारण अधिक मात्रा में बिजली उपलब्ध हो सके, इसीलिए प्रकृति ने महत्त्वपूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ सिर के साथ जोड़कर रखी हैं। आँख, कान, नाक, जीभ जैसी महत्त्वपूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ गरदन से ऊपर ही हैं। इस शिरो भाग में सबसे अधिक विद्युत मात्रा रहती है इसलिए तत्त्वदर्शी आँखें हर मनुष्य के सिर के इर्द-गिर्द प्राय डेढ़ फुट के घेरे में एक तेजोवलय का प्रकाश ..'लाल गोल घेरा' चमकता देख सकती हैं।
9-देवताओं के चित्रों में उनके चेहरे के इर्द-गिर्द एक सूर्य जैसा प्रकाश गोलक बिखरा दिखाया जाता है। इस अलकांर चित्रण में तेजोबलय (Halo)की अधिक मात्रा का आभास मिलता है। अधिक तेजस्वी और मनस्वी व्यक्तियों में स्पष्टत: यह मात्रा अधिक होती है उसी के सहारे वे दूसरों को प्रभावित करने में समर्थ होते हैं।तेजोबलय(Halo) में इन्द्र धनुष जैसे अलग-अलग रेखाओं वाले तो नहीं पर मिश्रित रंग घुले रहते हैं। उनका मिश्रण मन: क्षेत्र में काम करने वाले तत्वों की न्यूनाधिकता के हिसाब से ही होता है। तत्वों की सघनता के हिसाब से रंगों का आभास इस तेजोबलय (Halo)की परिधि में पाया जाता है।
10-पृथ्वी सबसे स्थूल और भारी है, इसके बाद क्रमश: जल, अग्नि, वायु और आकाश का नम्बर आता है। तेजोबलय की स्वाभाविक स्थिति में रंगों की आभा भी इसी क्रम से चलती है।स्थूल शरीर- स्थूल पंच तत्वों से बना है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व सर्वाविदित हैं। काय-कलेवर में विद्यमान रक्त, माँस, अस्थि, त्वचा तथा विभिन्न अंग-प्रत्यंग इन्हीं के द्वारा बने हैं। सूक्ष्म शरीर में तन्मात्राओं के रूप में यह तत्व भी सूक्ष्म हो जाते हैं। आकाश की तन्मात्रा-शब्द, वायु, का स्पर्श अग्नि का रूप, जल का रस और पृथ्वी, की गन्ध है। सूक्ष्म शरीर की संरचना अग्नि, जल आदि से नहीं वरन् सूक्ष्म तन्मात्राओं से हुई है, फिर भी उन्हें तत्व तो कह ही सकते हैं।
11-सूक्ष्म शरीर की नाड़ियों में बहने वाले प्राण प्रवाह में ज्वार भाटे की तरह तत्व तन्मात्राओं उभार आते रहते हैं लहरों की तरह उनमें से एक आगे बढ़ता है तो दूसरा उसका स्थान ग्रहण कर लेता है। अन्त:क्षेत्र में कब कौन सा तत्व बढ़ा हुआ है यह पता साधना द्वारा मन: स्थिति लगा सकती है। हर तत्व की अपनी विशेषता है उसी के अनुरूप व्यक्तित्व में भी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। प्रकृति और सामर्थ्य में हेर-फेर होता रहता है। सूक्ष्म शरीर में कब कौन सा तत्व बढ़ा हुआ है और किस तत्व की प्रबलता के समय क्या करना अधिक फलप्रद होता है ?
12-यदि इस रहस्य को जाना जा सके तो किसी महत्त्वपूर्ण कार्य का आरम्भ उपयुक्त समय पर किया जा सकता है और सफलता का पक्ष अधिक सरल एवं प्रशस्त बनाया जा सकता है। व्यक्ति की त्वचा का रंग चेहरे पर उड़ता हुआ तेजोबलय(Halo), उसकी स्वाद सम्बन्धी अनुभूतियाँ रंग विशेष की पसन्दगी को कुछ परख कर यह जाना जा सकता है कि उसके शरीर में किस तत्व की न्यूनता एवं किस की अधिकता है।जिस की न्यूनता हो उसे पूरा करने के लिए उस रंग के वस्त्रों का उपयोग, कमरे की पुताई, खिड़कियों के पर्दे, उसी रंग के काँच में कुछ समय पानी रखकर पीने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। आहार में अभीष्ट रंग के फल आदि का प्रयोग कराया जाता है। रंगीन बल्व की रोशनी पीड़ित भाग या समस्त अंग पर डाली जाती है ।
स्वर विज्ञान की प्राण-विधियाँ तथा छायोपासना ;-
1-माण्डुक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद तथा शिव स्वरोदय मानते हैं कि पंचतत्वों का विकास मन से, मन का प्राण से और प्राण का समाधि ( पराचेतना) से हुआ है।साधक योगी तत्व का पता लगाकर अपने भविष्य का पता लगा लेते हैं। इससे वे अपनी मनोदशा और क्रियाकलापों को नियंत्रित कर जीवन को बेहतर बना सकते हैं।योगी आपके छोड़े हुए सांस (प्रश्वास) की लंबाई के देख कर तत्व की प्रधानता पता लगाने की बात कहते हैं। इस तत्व से आप अपने मनोकायिक (मन और तन) अवस्था का पता लगा सकते हैं। इसके पता लगाने से आप, योग द्वारा, अपने कार्य, मनोदशा आदि पर नियंत्रण रख सकते हैं। लेकिन ये यौगिक विधि,
ज्योतिष विद्या से भिन्न है। इसकी कई विधियाँ योगी बताते हैं, कुछ चरण इस प्रकार हैं...
2-शिव स्वरोदय ग्रंथ मानता है कि श्वास का ग्रहों, सूर्य और चंद्र की गतियों से संबंध होता है।भगवान शिव कहते हैं कि हे देवि, स्वरज्ञान से बड़ा कोई भी गुप्त ज्ञान नहीं है।क्योंकि स्वर-ज्ञान के अनुसार कार्य करनेवाले व्यक्ति सभी वांछित फल अनायास ही मिल जाते हैं।माँ पार्वती को उत्तर देते हुए भगवान शिव ने कहा- ''इस संसार में प्राण ही सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा सखा है। इस जगत में प्राण से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है। इस शरीर रूपी नगर में प्राण-वायु एक सैनिक की तरह इसकी रक्षा करता है। श्वास के रूप में शरीर में प्रवेश करते समय इसकी लम्बाई दस अंगुल और बाहर निकलने के समय बारह अंगुल होता है। चलते-फिरते समय प्राण वायु (साँस) की लम्बाई चौबीस अंगुल, दौड़ते समय बयालीस अंगुल, मैथुन करते समय पैंसठ और सोते समय (नींद में) सौ अंगुल होती है। साँस की स्वाभाविक लम्बाई बारह अंगुल होती है, पर भोजन और वमन करते समय इसकी लम्बाई अठारह अंगुल हो जाती है।
3-भगवान शिव बताते हैं कि ''यदि प्राण की लम्बाई कम की जाय तो अलौकिक सिद्धियाँ मिलती हैं। यदि प्राण-वायु की लम्बाई एक अंगुल कम कर दी जाय, तो व्यक्ति निष्काम हो जाता है, दो अंगुल कम होने से आनन्द की प्राप्ति होती है और तीन अंगुल होने से कवित्व या लेखन शक्ति मिलती है। साँस की लम्बाई चार अंगुल कम होने से वाक्-सिद्धि,पाँच अंगुल कम होने से दूर-दृष्टि, छः अंगुल कम होने से आकाश में उड़ने की शक्ति और सात अंगुल कम होने से प्रचंड वेग से चलने की गति प्राप्त होती हैं।यदि श्वास की लम्बाई आठ अंगुल कम हो जाय, तो साधक को आठ सिद्धियों की प्राप्ति होती है, नौ अंगुल कम होने पर नौ निधियाँ प्राप्त होती हैं ..
4-''दस अंगुल कम होने पर अपने शरीर को दस विभिन्न आकारों में बदलने की क्षमता आ जाती है और ग्यारह अंगुल कम होने पर शरीर छाया की तरह हो जाता है, अर्थात् उस व्यक्ति की छाया नहीं पड़ती है।श्वास की लम्बाई बारह अंगुल कम होने पर साधक अमरत्व प्राप्त कर लेता है, अर्थात् साधना के दौरान ऐसी स्थिति आती है कि श्वास की गति रुक जाने के बाद भी वह जीवित रह सकता है, और जब साधक नख-शिख अपने प्राणों को नियंत्रित कर लेता है, तो वह भूख, प्यास और सांसारिक वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है।''
5-छायोपासना कर कंठ प्रदेश पर मन को एकाग्र किया जाता है।फिर उसको साधक अपलक निहारता है और उस पर त्राटक करता है।इसके बाद शरीर को ज़रा भी न हिलाते हुए आकाश में देखता है - फिर छाया की अनुकृति दिखती है।इसकी कुछ आवृत्तियों के बाद षण्मुखी मुद्रा के अभ्यास करने से चिदाकाश (चित्त का आकाश) में उत्पन्न होने वाले रंग को देखते हैं। ये जो भी रंग होता है, उस पर नीचे दी गई सारणी के हिसाब से तत्व का पता चलता है। उदाहरण के लिए अगर यह पीला हो तो पृथ्वी तत्व की प्रधानता मानी जाती है।
क्या है पंच तत्व?-
1-मानव शरीर पांच तत्वों से बना होता है; मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और शून्य। इन्हें पंच महाभूत या पंच तत्व भी कहा जाता है। ये सभी तत्व शरीर के सात प्रमुख चक्रों में बंटे हैं। सात चक्र और पांच तत्वों का संतुलन ही हमारे तन व मन को स्वस्थ रखता है।
2-यदि चेहरे पर धूमिलता छाई हो, आकर्षण क्षमता की कमी हो गयी हो, मोटापा या दुबलापन आ गया हो,ऑफिस में परिस्थितियां अनुकूल नहीं रह रही हो,पति या प्रेमी,प्रेमिका या पत्नी से सम्बन्ध ठीक नहीं रह पा रहे हो तो इसका सीधा अर्थ होता है की अग्नि तत्व न्यून हो गया है.. क्यूंकि समस्त आकर्षण का आधार है अग्नि तत्व। यदि घर में धन नहीं रुक रहा हो,काम बिगड रहे हो,खून पतला हो गया हो ,गर्भ नहीं ठहर रहा हो तो ,ये सभी विकृतियाँ जल तत्व से सम्बंधित होती हैं। इस प्रकार जीवन की सभी स्थिति के लिए इन तत्वों की विकृति ही उत्तरदायी है।
3-भूत अर्थात् जिसकी सत्ता हो या जो विद्यमान रहता हो, उसे भूत कहते हैं।महान् भूतों को महाभूत कहते हैं ।भूत किसी के कार्य नहीं होते- अर्थात् किसी से उत्पन्न नहीं होते, अपितु महाभूतों के ये उपादान कारण होते हैं ।किन्तु पंचभूत स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होते, इसलिए ये नित्य हैं ।महाभूत संसार के सभी चल-अचल वस्तुओं में व्याप्त है, अतः इन्हें महाभूत कहते हैं ।इस पृथ्वी के समस्त जीवों का शरीर और निजीर्व सभी पदार्थ पंच महाभूतों द्वारा निमिर्त हैं
4-यह हमारी सृष्टि भूतों का समुदाय है । पृथ्वी में गति वायु से तथा अवयवों का मेल एवं संगठन जल से और उष्णता अग्नि से आई है। पृथ्वी अंतिम तत्त्व है, अर्थात् उससे किसी नये तत्त्व की उत्पत्ति नहीं होती है ।यह समस्त विश्व पञ्चमहाभूतों की ही खेल है । इन पञ्चमहाभूतों का जो इन्द्रियग्राह्य विषय नहीं है, वही तन्मात्रा महाभूत है और जो इन्द्रियग्राह्य है वे ही भूत है । आत्मा, आकाश अव्यक्त तत्व है और शेष व्यक्त तत्त्व है ।
पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति और मानव जीवन पर प्रभाव ;-
1-सृष्टि का प्रारंभिक विकास क्रम यह है कि यह परमाणुओं में प्रारंभ होती है।ईश्वर जगत् का साक्षी है जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है। स्वतंत्र अवस्था में रहने के लिये परमाणु द्रव्य का अंतिम अवयव है तथा परमाणु नित्य हैं। उस एक परम तत्व से सत्व, रज और तम की उत्पत्ति हुई। यही इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटॉन्स का आधार हैं। इन्हीं से प्रकृति का जन्म हुआ।प्रकृति का पुरुष से सम्पर्क होता है तो उससे सवर्प्रथम महत्तत्त्व या महान् की उत्पत्ति होती है- महत् से अहंकार।प्रकृति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से मन और इंद्रियां तथा पांच तन्मात्रा और पंच महाभूतों का जन्म हुआ।
2-पृथ्वी, जल, तेज, वायु परमाणुओं के संयोग से बने हैं। सर्वप्रथम इन्हीं परमाणुओं से क्रिया होती है और दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक बनता है, तत्पश्चात् चतुरणुक आदि क्रम से महती पृथ्वी, महत् आकाश, महत् तेज तथा महत् वायु उत्पन्न होता है।महत्त्व या स्थूलत्व आ जाने के कारण ही इनको महाभूत कहते हैं।
3-वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रलय की स्थिति में जब परमात्मा को सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई, तब आकाश महाभूत के दो परमाणुओं में परस्पर आकषर्ण के द्वारा संयोग होने लगा । द्वयणुक की रचना हुई तथा तीन द्वयणुक के मिलने से त्रसरेणुकी निर्मित हुई ।द्वयणुक तक गुणों में सूक्ष्मता तथा भूत में अव्यक्त अवस्था रहती है अथार्त स्थूल आँखों से नहीं दिखाई देता है।त्रसरेणु में यह भूत प्रत्यक्ष-योग्यता अथार्त स्थूल आँखों से दिखाई देने वाला हो जाता है।
4-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। जब हम पृथ्वी कहते हैं तो सिर्फ हमारी पृथ्वी नहीं है।प्रकृति के इन्हीं रूपों में सत्व, रज और तम गुणों की साम्यता रहती है। प्रकृति के प्रत्येक कण में उक्त तीनों गुण होते हैं। यह साम्यवस्था भंग होती है तो महत् बनता है।
5-प्रकृति वह अणु है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता, किंतु महत् जब टूटता है तो अहंकार का रूप धरता है। अहंकारों से ज्ञानेंद्रियां, कामेद्रियां और मन बनता है। अहंकारों से ही तन्मात्रा भी बनती है और उनसे ही पंचमहाभूत का निर्माण होता है।वास्तव में, महत् ही बुद्धि है। महत् में सत्व, रज और तम के संतुलन टूटने पर बुद्धि निर्मित होती है। महत् का एक अंश प्रत्येक पदार्थ या प्राणी में बुद्धि का कार्य करता है।
6-चूँकि प्रकृति त्रिगुणात्मिका होती है अतः उससे उत्पन्न हुए महत् तत्व तथा अहंकार भी त्रिगुणात्मक होते हैं ।बुद्धि से अहंकार के तीन रूप पैदा होते हैं-
6-1-वैकारिक/ सात्विक अहंकार;- पहला सात्विक अहंकार जिसे वैकारिक भी कहते हैं विज्ञान की भाषा में इसे न्यूट्रॉन कहा जा सकता है। यही पंच महाभूतों के जन्म का आधार माना जाता है।
6-2-तैजस अहंकार ;- दूसरा तेजस अहंकार इससे तेज की उत्पत्ति हुई, जिसे वर्तमान भाषा में इलेक्ट्रॉन कह सकते हैं।तैजस अहंकार की सहायता से भूतादि अहंकार द्वारा पञ्च तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है ।
6-3-भूतादि अहंकार;-तीसरा अहंकार भूतादि है। यह पंच महाभूतों (आकाश, आयु, अग्नि, जल और पृथ्वी) का पदार्थ रूप प्रस्तुत करता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार इसे प्रोटोन्स कह सकते हैं। इससे रासायनिक तत्वों के अणुओं का भार न्यूनाधिक होता है। अत: पंचमहाभूतों में पदार्थ तत्व इनके कारण ही माना जाता है।
7-सात्विक अहंकार और तेजस अहंकार के संयोग से मन और पांच इंद्रियां बनती हैं। तेजस और भूतादि अहंकार के संयोग से तन्मात्रा एवं पंच महाभूत बनते हैं। पूर्ण जड़ जगत प्रकृति के इन आठ रूपों में ही बनता है, किंतु आत्म-तत्व इससे पृथक है। इस आत्म तत्व की उपस्थिति मात्र से ही यह सारा प्रपंच होता है।
8-यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है। वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहां तक प्रकाशित होता है, वहां से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है।
9-महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।
10-महाभूतों के गुण...गंधत्व, द्रवत्व, उष्णत्व, चलत्व गुण क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि) और वायु के होते हैं ।आकाश का गुण अप्रतिघात(रुकावट) होता है ।महाभूतों का सत्व, रज और तम से भी घनिष्ठ संबंध है ।शास्त्रों में उल्लेख मिलता है...
10-1-सत्व गुण की अधिकता वाला आकाश होता है ।
10-2-रजो गुण की अधिकता वाला वायु होता है ।
10-3-सत्व और रजोगुण की अधिकता वाला अग्नि महाभूत होता है ।
10-4-सत्व और तमोगुण की अधिकता वाला जल महाभूत होता है ।
10-5-तमोगुण की प्रधानता वाला पृथ्वी होती है ।
11-उपरोक्त विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि पंचतत्व मानव जीवन को अत्यधिक प्रभावित करते हैं।उनके बिना मानव तो क्या धरती पर रहने वाले किसी भी जीव के जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इन पांच तत्वों का प्रभाव मानव के कर्म, प्रारब्ध, भाग्य तथा आचरण पर भी पूरा पड़ता है. जल यदि सुख प्रदान करता है तो संबंधों की ऊष्मा सुख को बढ़ाने का काम करती है और वायु शरीर में प्राण वायु बनकर घूमती है। आकाश महत्वाकांक्षा जगाता है तो पृथ्वी सहनशीलता व यथार्थ का पाठ सिखाती है।यदि देह में अग्नि तत्व बढ़ता है तो जल्की मात्रा बढ़ाने से उसे संतुलित किया जा सकता है।यदि वायु दोष है तो आकाश तत्व को बढ़ाने से यह संतुलित रहेगें।
पंच तत्वों के संतुलन के पाँच प्रकार के अभ्यास ;-
नीचे कुछ ऐसे अभ्यास बताये जाते हैं जिनको करते रहने से शरीर में तत्वों की जो कमी हो जाती है उसकी पूर्ति होती रह सकती है और मनुष्य अपने स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रहते हुए दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता है।
1-पृथ्वी तत्व( Earth/Skin);-
1-पृथ्वी का स्वामी ग्रह बुध है। इस तत्व का कारकत्व गंध है। इस तत्व के अधिकार क्षेत्र में हड्डी तथा माँस आता है।इस तत्व के अन्तर्गत आने वाली धातु वात, पित्त तथा कफ तीनों ही आती हैं।विद्वानों के मतानुसार पृथ्वी एक विशालकाय चुंबक है।इस चुंबक का दक्षिणी सिरा भौगोलिक उत्तरी ध्रुव में स्थित है।संभव है इसी कारण दिशा सूचक चुंबक का उत्तरी ध्रुव सदा उत्तर दिशा का ही संकेत देता है।पृथ्वी के इसी चुंबकीय गुण का उपयोग वास्तु शास्त्र में अधिक होता है।इस चुंबक का उपयोग वास्तु में भूमि पर दबाव के लिए किया जाता है।वास्तु शास्त्र में दक्षिण दिशा में भार बढ़ाने पर अधिक बल दिया जाता है।इसी कारण दक्षिण दिशा की ओर सिर करके सोना स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना गया है।
2-पृथ्वी अथवा भूमि के पाँच गुण शब्द, स्पर्श, रुप, स्वाद तथा आकार माने गए हैं।आकार तथा भार के साथ गंध भी पृथ्वी का विशिष्ट गुण है क्योंकि इसका संबंध नासिका की घ्राण शक्ति से है। पृथ्वी तत्व में विषों को खींचने की अद्भुत शक्ति है। मिट्टी की टिकिया बाँध कर फोड़े तथा अन्य अनेक रोग दूर किये जा सकते हैं। पृथ्वी में से एक प्रकार की गैस हर समय निकलती रहती है। इसको शरीर में आकर्षित करना बहुत लाभदायक है। प्रतिदिन प्रातःकाल नंगे पैर टहलने से पैर और पृथ्वी का संयोग होता है। उससे पैरों के द्वारा शरीर के विष खिच कर जमीन में चले जाते हैं और ब्रह्ममुहूर्त में जो अनेक आश्चर्यजनक गुणों से युक्त वायु पृथ्वी में से निकलती है उसको शरीर सोख लेता है।
3-प्रातःकाल के सिवाय यह लाभ और किसी समय में प्राप्त नहीं हो सकता। अन्य समयों में तो पृथ्वी से हानिकारक वायु भी निकलती है जिससे बचने के लिए जूता आदि पहनने की
जरूरत होती है। प्रातःकाल नंगे पैर टहलने के लिए कोई स्वच्छ जगह की?
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