शनि सार

Share

Astro Manish Tripathi 03rd Feb 2019

शनिदेव आध्यात्मिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण सभी नौ ग्रहों में शनिदेव का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, शनि को न्यायाधीश का पद प्राप्त है,इस कारण से शनि ही हमारे कर्मों का शुभ-अशुभ फल प्रदान करते हैं,जिस व्यक्ति के जैसे कर्म होते हैं ठीक वैसे ही फल शनि प्रदान करते हैं। शास्त्रों के अनुसार हिन्दी पंचांग के ज्येष्ठ मास में आने वाली अमावस्या की रात में शनिदेव का जन्म हुआ था। शनिदेव को सूर्य का पुत्र माना गया है, इनकी माता का नाम छाया है,सूर्य की पत्नी छाया के पुत्र होने के कारण इनका रंग काला है,मनु और यमराज शनि के भाई हैं तथा यमुनाजी इनकी बहन हैं, ऐसा माना जाता है कि शनि का विवाह चित्ररथ (गंधर्व) की कन्या से हुआ था,यदि किसी व्यक्ति के कर्म पवित्र हैं तो शनि सुखी-समृद्धि जीवन प्रदान करते है, किसानों के लिए शनि मददगार होते हैं,गरीब और असहाय लोगों पर शनि की विशेष कृपा रहती है,जो लोग किसी गरीब को परेशान करते हैं उन्हें शनि के कोप का सामना करना पड़ता है। शनि पश्चिम दिशा के स्वामी हैं, वायु इनका तत्व है।साथ ही शनि व्यक्ति के शारीरिक बल को भी प्रभावित करता है। यदि आपका वैवाहिक जीवन नीरस है,जीवनसाथी से नही बनती या झगड़े होते हो तो समझ लीजिएगा आपका जीवन शनि से प्रभावित हो रहा है और आपकी कुंडली में शनि की स्थिति अच्छी नही है, शनि की स्थिति से भी गृहस्थ जीवन में सुख नही मिल पाता। जीवन साथी से विचार नही मिलते या जीवन साथी किसी न किसी बीमारी से पीडित रहता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण की कथा गणेशजी का जन्म होने पर सभी ग्रह उनका दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुँचे। जैसे ही शनि ने भगवान गणेशजी के चेहरे पर नज़र डाली तो उनका मस्तक कट कर धरती पर गिर गया। बाद में हाथी का सिर उनके धड़ पर लगाकर बालक गणेश को जीवित किया गया।शास्त्रों की यही बातें ज्योतिष में भी प्रतिबिम्बित होती हैं। ज्योतिष में शनि को ठण्डा ग्रह माना गया है जो बीमारी शोक और आलस्य का कारक है। लेकिन यदि शनि शुभ हो तो व्यक्ति को ऊंचाइयों तक भी ले जाता है। शनि-प्रसन्नता हेतु शनि साधना साधना कर शनिदेव को प्रसन्न और करे शनि शान्ति साधना करे साधना के नियम साधना-शनिअमावस्या शनिवार या शनि जयन्ती से आरम्भ करें। साधना-समय सूर्योदय के पूर्व या सूर्यास्त के बाद पुरुष सफेद या नीला वस्त्र करके स्त्री नीला वस्त्र धारण करके मुख की दिशा दक्षिण लकड़ी की चौकी पर सवा मीटर काला वस्त्र बिछा कर चारो किनारे पर कील लगा दे, ध्यान रहे [ बर्तन स्टील या लोहे का ही प्रयोग करे ] एक बड़ी थाली या परात में सवा किलो काला [ खड़ा ] उड़द और सवा किलो काला तिल रख लें, अब सवा सौ ग्राम सरसों का तेल उडद और तिल में मिला दें, अब पुनः एक स्टील के पात्र में शनिदेव की प्रतिमा या शनि यंत्र रख दे, अब आप शनि यंत्र या प्रतिमा पर कुंकुम केसर अष्टगंध से तिलक करे और फिर कुंकुम अष्टगंध से उस परात या थाली में "श्रीं" लिख दें अब सामाग्री सहित यंत्र या प्रतिमा स्थापित कर दे। ॐ श्री शनिदेवाय नमो नमः ॐ श्री शनिदेवाय शान्ति भव: ॐ श्री शनिदेवाय शुभम फल: ॐ श्री शनिदेवाय फल: प्राप्ति फल:। हाथ जोड़कर ध्यान करे ॐ भगभवाय विदमहे मृत्यु रूपाय धीमहि तन्नो शौरि: प्रचोदयात। ध्यान के बाद पंचोपचार विधि से शनिदेव का पुजन करें इसके बाद तिल-लड्डू गुड का भोग लगाये और ॐ स्वः भुव: ॐ स: खों खीं खां ॐ शनैश्चराय नमः या ॐ शं शनि शनैश्चराय नमः मन्त्र का अपने सुविधानुसार जप करे। शनि देव के लिये सप्तधान्य मूंगी, उड़द, गेहूं, काले-चने, जौ, धान्य "तंदुल" कंगनी आदि शनिदेवको अर्पण कर दान करें। अष्टगंध धूप अगर, छरीला, जटामासी, कर्पूर-कचरी, गुग्गल, देव दारू, गोघृत, सफ़ेद चन्दन आदि की धूप से पूजन करें। अष्टगंध अगर, कस्तूरी, कुकुम, कर्पूर, चन्दन, लौंग, देवदारु, गुग्गुल आदि अष्टगंध का प्रयोग पूजा में करें। शनिदेव की प्रंसन्नता के उपाय शनि देव के वैदिक और लौकिक अनेकों उपाये हैं।जिनके करने पर जीव को शांति प्राप्त होती है। शनि देव स्थूल भाव से चलन, वलन, निरोध, और आकुंचन पर प्रभाव होता है और शून्य भाव के अनुसार व्यान, समान, उड़ान, अपान और प्राण वायु पर प्रभाव होता है, शनि देव की जब तक दशा चलती रहे तब तक शनि को ३० मोदक का भोग लगाना या दान देना शुभ होता है। शनि देव को नारियल और पेठे की बलि देनी चाहिये। शनि गायत्री मन्त्र ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्न सौरि प्रचोदयात। शनि गायत्री मन्त्र सब से उत्तम कहा गया है। शनिदेव का तंत्रोक्त मन्त्र ॐ प्रां प्रीं प्रों स: शनये नम:। शनि देव का पौराणिक मन्त्र ॐ नीलांजणसभाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।। शनि वैदिक मन्त्र ॐ खां खीं खौं स: ॐ भूर्भव: स्व: ॐ शन्नो देवीरभिष्टय आपो भन्तु पीतये शं योरभिस्त्रवन्तु न: ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: खौं खीं खां ॐ शनैश्चराय नम: || शनिदेव सदा हमारे अंदर वायुरूप में स्थित रहते हैं प्रसन्न हो जाएँ तो तीनों तापों से मुक्ति यदि न हो तो तीन ताप मनुष्य को घेर लेते हैं शनि के स्वभाव में बदलाव ग्रहों की युति के अनुसार भी होता रहता है शनि को मंगल ही रास्ते पर लाता है,शनि वायु तो मंगल अग्नि है। अरिष्ट शनि की शान्ति के उपाय शनिवार का व्रत रखे। नीला या सफेद रंग का वस्त्र धारण करे। बाल्टी मांज कर जल भर कर पश्चिम दिशा की ओर मुख कर स्नान करे। स्नान के पूर्व सरसों के तेल की पूरे शरीर पर लगायें। 33 दिनों तक कौओ की रोटी खिलाएं। लोहा या काली खड़ी उड़द का दान करे। सरसों के तेल में अपना मुख देख कर दान करे। स्पेस वाला लोहे का रिंग मध्यमा में पहने। नीलम ( चेक करने के उपरान्त )किसी ज्योतिषी की सलाह पर ही धारण करे या जमुनियां या कटैला मध्यमा में धारण करे। शनिवार को सांयकाल पीपल वृक्ष के पास सरसों का दीपक धूपबत्ती जला कर 7 बार श्रीहनुमान चलीसा का पाठ कर स्टील के बर्तन में जल में काला तिल डाल कर पीपल पर अर्पित कर दीपक से 7 बार आरती उतार कर 7 बार पीपल की परिक्रमा करे। मंगलवार की शाम को घर में श्रीसुन्दरकाण्ड का पाठ करे। शनिवार व्रत कथा एक समय स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न को लेकर सभी देवताओं में वाद-विवाद प्रारम्भ हुआ और फिर परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई. सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुंचे और बोले, देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि नौ ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए. और कुछ देर सोच कर बोले, देवगणों! मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं. पृथ्वीलोक में उज्ज्यिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य का राज्य है. हम राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं क्योंकि वह न्याय करने में अत्यंत लोकप्रिय हैं. उनके सिंहासन में अवश्य ही कोई जादू है कि उस पर बैठकर राजा विक्रमादित्य दूध का दूध और पानी का पानी अलग करने का न्याय करते हैं. देवराज इंद्र के आदेश पर सभी देवता पृथ्वी लोक में उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे. देवताओं के आगमन का समाचार सुनकर स्वयं राजा विक्रमादित्य ने उनका स्वागत किया. महल में पहुंचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे. क्योकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान शक्तिशाली थे. किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी. तभी राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, व लोहे के नौ आसन बनवाए. धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवा कर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा, सब देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा, आपका निर्णय तो स्वयं हो गया. जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वही सबसे बड़ा है. राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा, राजन! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है. तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो. मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा, सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष रहता हूं. बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है. राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा. उसके वंश का सर्वनाश हो गया. राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा. राजा विक्रमादित्य शनि देवता के प्रकोप से थोड़ा भयभीत तो हुए, लेकिन उन्होंने मन में विचार किया, मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, ज्यादा से ज्यादा वही तो होगा. फिर शनि के प्रकोप से भयभीत होने की आवश्यकता क्या है? उसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ वहां से चले गए, लेकिन शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए. राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे. उनके राज्य में सभी स्त्री पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे. कुछ दिन ऐसे ही बीत गए. उधर शनिदेवता अपने अपमान को भूले नहीं थे. विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे. राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा. अश्वपाल ने वहां जाकर घोड़ों को देखा तो बहुत खुश हुआ. लेकिन घोड़ों का मूल्य सुन कर उसे बहुत हैरानी हुई. घोड़े बहुत कीमती थे. अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया. घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुआ तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा. तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहां गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया. राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा. लेकिन उसे लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला. राजा को भूख-प्यास लग आई. बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला. राजा ने उससे पानी मांगा. पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी. फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से बाहर निकलकर पास के नगर में पहुंचा. राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया. उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्ज्यिनी से आया हूं. राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई. सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया. सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था. राजा को उस कमरे में अकेला छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया. तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी. राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई, सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का सन्देह राजा पर ही किया, क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था. सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो. राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूंटी ने हार को निगल लिया था. इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया, राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया. कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया. राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता. इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा. शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ॠतु प्रारम्भ हुई. राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी. उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गानेवाले को बुला लाने को कहा. दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया. राजकुमारी उसके मेघ मल्हार पर बहुत मोहित हुई थी. अत:उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया. राज कुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गये. राजा को लगा कि उसकी बेटी पागल हो गई है. रानी ने मोहिनी को समझाया, बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है. फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है? राजा ने किसी सुंदर राजकुमार से उसका विवाह करने की बात कही. लेकिन राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया. आखिर राजा, रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पडा. विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे. उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा, आज! तुमने मेरा प्रकोप देख लिया. मैंने तुम्हें अपने अपमान का दण्ड दिया है. राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की, हे शनिदेव! आपने जितना दु:ख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना, शनिदेव ने कुछ सोचते हुए कहा, अच्छा! मैं तेरी प्रार्थना स्वीकार करता हूं. जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत कर के मेरी कथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी. उसे कोई दुख नहीं होगा. शनिवार को व्रत करने और चींटियों को आटा डालने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी. प्रात:काल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई. उसने मन-ही-मन शनिदेव को प्रणाम किया. राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सही सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई. तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी कह सुना. सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा. राजा ने उसे क्षमा कर दिया, क्योकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था. सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया. भोजन करते समय वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी. सबके देखते-देखते उस खूंटी ने वह हार उगल दिया. सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया. राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्ज्यिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया. उस रात उज्ज्यिनी नगरी में दीप जलाकर लोगों ने दीवाली मनाई. अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा करवाई, च्शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं. प्रत्येक स्त्री पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रत कथा अवश्य सुनें. राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए. शनिवार का व्रत करने और कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं. सभी लोग आनन्दपूर्वक रहने लगे। शनि देव उच्च एवं नीच फल कथन शनि को ज्योतिष शास्त्र में विच्छेदकारी ग्रह कहा गया है. एक ओर जहां शनि को मृ्त्यु प्रधान ग्रह माना गया है. वहीं दूसरी ओर शनि शुभ होने पर व्यक्ति को भौतिक जीवन में श्रेष्ठता भी प्रदान करते है. शनि के विषय में यह प्रसिद्ध है कि शनि अपने तुरन्त और निश्चित रुप से देते है. कई बार शनि कुण्डली में पाप प्रभाव में हों, तो शनि के फलों में देरी की संभावनाएं बनती है. ऎसे में फलों के लिये शनि व्यक्ति को अत्यधिक प्रतिक्षा तो अवश्य कराते है, परन्तु फिर भी व्यक्ति को शनि से फल अवश्य प्राप्त होते है. अगर जन्म कुण्डली में शनि की स्थिति शुभत्व हों तो, व्यक्ति इसके प्रभाव से व्यवस्थित, व्यवहारिक, घोर परिश्रमी , गंभीर स्वभाव व स्पष्ट बोलने वाला बना देता है. शनि के फलस्वरुप व्यक्ति की सोच में संकुचन का भाव आता है. शनि के सुस्थिर होने पर व्यक्ति भरपूर आत्मविश्वासी बनता है. शनि प्रबल इच्छा शक्ति देते है. जो लोग अत्यधिक महत्वकांक्षी होते है, उनमें महत्वकांक्षा का भाव शनि के प्रभाव से ही आता है. शनि व्यक्ति को मितव्ययी बनाता है. कुण्डली में शनि का संबन्ध व्यय भाव से होने पर व्यक्ति व्यय करने में अत्यधिक सोच-विचार करता है. शनि से प्रभावित व्यक्ति प्रत्येक कार्य के प्रति सावधान रहता है. शनि व्यक्ति को व्यवसाय में कुशलता देते है. इनके प्रभाव से कार्य निपुणता में वृ्द्धि होती है. शनि का प्रभाव व्यक्ति को अपने कार्यक्षेत्र में दक्ष बनाता है. सामाजिक व आर्थिक स्थिति में बदलाव करने में शनि महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. शनि व्यक्ति को त्यागपूर्ण जीवन जीने वाला बनाता है. इसके अतिरिक्त शनि का शुभ होने पर व्यक्ति विद्वान, उदार व पवित्र विचारों वाला बनता है. इनका आध्यात्म कि ओर विशेष रुप से झुकाव होता है. ऎसा व्यक्ति धर्म शास्त्रों का अध्ययन करने वाला होता है. लेखन में भी इन्हें यश व सम्मान प्राप्त होता है. शनि अशुभ होकर स्थित हों तो व्यक्ति के मित्रों की संख्या कम होती है. व्यक्ति में शक का स्वभाव होता है. इस योग का व्यक्ति अपने मन की बात किसी को नहीं बताते है. शनि कि तीन दृष्टियां कहीं गई है. जिसमें7, 3व 10 दृष्टियां है. सप्तम दृष्टि सभी ग्रहों को दी गई है. इसलिये इसे विशेष नहीं कहेगें. इसके अलावा शनि के पास तीसरी दृष्टि है. व कुण्डली के तीसरे भाव को पराक्रम का भाव कहा जाता है. यही कारण है कि शनि की तीसरी दृष्टि जिस भाव पर पडती है. व्यक्ति उस भाव से संबन्धित फलों के लिये पराक्रम दिखाता है. इसी प्रकार शनि की दशम दृ्ष्टि जिस भाव से संबन्ध बनाती है. उस भाव से संम्बन्धित क्षेत्र को आजिविका क्षेत्र बनाने की संभावनाएं शनि देते है. परन्तु जब शनि किसी की कुंडली में लग्न में हों और 7 और 10 घर में कोई ग्रह हो तो शनि के बुरे फल हो जाते हैं। शनि तुला राशि में उच्च के होते है. एक ओर जहां शनि को वैराग्य का कारक ग्रह गया है. जबकि शुक्र वैभव व भोगविलास के कारक ग्रह है. फिर शनि का शुक्र की राशि में उच्च का होना दोनों ग्रहों की विशेषताओं में विरोधाभास उत्पन्न करता है. इस के पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है कि धन-दौलत, ऎश्वर्य और भौतिक सुख- सुविधाओं की वस्तुओं जहां होती है. वहां व्यक्ति कर्म से पीछे हटता है. इस राशि में शनि का उच्च का होना व्यक्ति को इन सुखों को जीवन में बनाये रखने के लिये कर्म करते रहने की प्रेरणा देता है. यहीं कारण है कि शनि तुला राशि में गुरु के नक्षत्र के पास उच्च के होते है. तुला राशि न्याय व समानता की प्रतीक है. शनि भी न्याय-समानता के कारक ग्रह है. दोनों का संबन्ध व्यक्ति को न्यायकारी बनाता है. जब कुंडली में शनि देव के साथ सूर्य का सम्बन्ध बन जाये तो शनि का फल अच्छा नहीं होता। शनि जब अपनी नीच राशि मेष में हो तब भी शनि के फल मन्दे हो जाते हैं। उसको साढेसाती में बहुत परेशानी होती है।उस समय वो धनी मानी व्यक्ति की अकड़ भी ढीली कर उसे सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसा व्यक्ति जब तक झुकना ना सीख़ जाये तब तक शनि उसको परेशान करते हैं फिर बाद में उसे दुबारा ऊंचाइयों पर ले जाते हैं। और उसका जो भी साढेसाती समय में धन बर्बाद होता है। उससे भी ज्यादा उसे वापिस देते हैं। हकीकत में शनि एसे मास्टर हैं । जो अपने विध्यार्थी को पीट पीट के लोहे से सोना बनाते हैं। जब शनि देव अच्छे हों तो व्यक्ति को बैठ के खाने पीने के सुख।नौकर चाकर के सुख अच्छे रहते हैं ।ऐसे व्यक्ति को नौकर अच्छे और वफादार मिलते हैं। चाचा के सुख मिलते हैं चाचा से लाभ भी मिलता है।और चाचा भी पूर्ण ऐश्वर्या के साथ जीवन गुजारते अच्छा और सुंदर मकान के सुख।मशीनरी से सम्बंधित काम काज फॅक्टरी अदि के काम करते हैं। कम मेहनत में पूरा लाभ मिलता है। ऐसे व्यक्ति के लिए दुसरे लोग कमाते हैं यानी नौकर चाकर आदि। लेकिन जब शनि देव मन्दे नीच के हों और बुराई पर आ जाएँ तो मेहनत का फल नहीं मिलता बड़ी ही मुश्किल से गुजारे लायक पैसा मिलता है। मकान तक बिकवा देते हैं। नौकर चाकर धोखा देते हैं।लूट के खा जाते हैं। घर के बुजरगों और माँ के शरीर में जोड़ों में दर्द परेशानी देते हैं। जिसके कारण व्यक्ति खुद डब्बल माइंड और कन्फ्यूजन में रहता है। मकान और अन्य प्रॉपर्टी बिकती हैं। घर में क्लेश का माहौल बना रहता है। वाहन सुख नष्ट हो जाता है। अकस्मात अनजानी घटनाएं होती हैं। घर की समृद्धि नस्ट हो जाती है। परिवार और रिशतेदारो की सहायता नहीं मिलती बल्कि दुश्मन बन जाते हैं। इस तरह जातक खुद को ज्यादा समझदार समझता है। और नुकसान उठाता है। एक खास बात और होती है ऐसे समय में की सब से बिगड़ जाती है भाई बहन रिश्तेदार पर पत्नी से अच्छे सम्बन्ध बने रहते हैं। शनि देव व्यक्ति का घमण्ड तोड़ने का काम करते हैं।पर मौत नहीं देते। द्वादश भावों मे शनि का सामान्य फल जन्म कुंडली के बारह भावों मे जन्म के समय शनि अपनी गति और जातक को दिये जाने वाले फ़लों के प्रति भावानुसार जातक के जीवन के अन्दर क्या उतार और चढाव मिलेंगे, सबका वृतांत कह देता है। प्रथम भाव मे शनि शनि मन्द है और शनि ही ठंडक देने वाला है,सूर्य नाम उजाला तो शनि नाम अन्धेरा, पहले भाव मे अपना स्थान बनाने का कारण है कि शनि अपने गोचर की गति और अपनी दशा मे शोक पैदा करेगा,जीव के अन्दर शोक का दुखमिलते ही वह आगे पीछे सब कुछ भूल कर केवल अन्धेरे मे ही खोया रहता है।शनि जादू टोने का कारक तब बन जाता है, जब शनि पहले भाव मे अपनी गति देता है, पहला भाव हीऔकात होती है, अन्धेरे मे जब औकात छुपने लगे, रोशनी से ही पहिचान होती है और जब औकात छुपी हुई हो तो शनि का स्याह अन्धेरा ही माना जा सकता है। अन्धेरे के कई रूप होते हैं, एक अन्धेरा वह होता है जिसके कारण कुछ भी दिखाई नही देता है, यह आंखों का अन्धेरा माना जाता है, एक अन्धेरा समझने का भी होता है, सामने कुछ होता है, और समझा कुछ जाता है, एक अन्धेरा बुराइयों का होता है, व्यक्ति या जीव की सभी अच्छाइयां बुराइयों के अन्दर छुपने का कारण भी शनि का दिया गया अन्धेरा ही माना जाता है, नाम का अन्धेरा भे होता है, किसी को पता ही नही होता है, कि कौन है और कहां से आया है, कौन माँ है और कौन बापहै, आदि के द्वारा किसी भी रूप मे छुपाव भी शनि के कारण ही माना जाता है, व्यक्ति चालाकी का पुतला बन जाता है प्रथम भाव के शनि के द्वारा.शनि अपने स्थान से प्रथम भाव के अन्दर स्थिति रख कर तीसरे भाव को देखता है, तीसरा भाव अपने से छोटे भाई बहिनो का भी होता है, अपनी अन्दरूनी ताकत का भी होता है, पराक्रम का भी होता है, जो कुछ भी हम दूसरों से कहते है, किसी भी साधन से, किसी भी तरह से शनि के कारण अपनी बात को संप्रेषित करने मे कठिनाई आती है, जो कहा जाता है वह सामने वाले को या तो समझ मे नही आता है, और आता भी है तो एक भयानक अन्धेरा होने के कारण वह कही गयी बात को न समझने के कारण कुछ का कुछ समझ लेता है, परिणाम के अन्दर फ़ल भी जो चाहिये वह नही मिलता है, अक्सर देखा जाता है कि जिसके प्रथम भाव मे शनि होता है, उसका जीवन साथी जोर जोर से बोलना चालू कर देता है, उसका कारण उसके द्वारा जोर जोर से बोलने की आदत नही, प्रथम भाव का शनिसुनने के अन्दर कमी कर देता है, और सामने वाले को जोर से बोलने पर ही या तो सुनायी देता है, या वह कुछ का कुछ समझ लेता है, इसी लिये जीवन साथी के साथ कुछ सुनने और कुछ समझने के कारण मानसिक ना समझी का परिणाम सम्बन्धों मे कडुवाहट घुल जाती है, और सम्बन्ध टूट जाते हैं। इसकी प्रथम भाव से दसवी नजर सीधी कर्म भाव पर पडती है, यही कर्म भाव ही पिता का भाव भी होता है।जातक को कर्म करने और कर्म को समझने मे काफ़ी कठिनाई का सामना करना पडता है, जब किसी प्रकार सेकर्म को नही समझा जाता है तो जो भी किया जाता है वहकर्म न होकर एक भार स्वरूप ही समझा जाता है, यही बातपिता के प्रति मान ली जाती है,पिता के प्रति शनि अपनी सिफ़्त के अनुसार अंधेरा देता है, और उस अन्धेरे के कारणपिता ने पुत्र के प्रति क्या किया है, समझ नही होने के कारणपिता पुत्र में अनबन भी बनी रहती है,पुत्र का लगन या प्रथम भाव का शनि माता के चौथे भाव मे चला जाता है, और माता को जो काम नही करने चाहिये वे उसको करने पडते हैं, कठिन और एक सीमा मे रहकर माता के द्वारा काम करने के कारण उसका जीवन एक घेरे में बंधा सा रह जाता है, और वह अपनी शरीरी सिफ़्त को उस प्रकार से प्रयोग नही कर पाती है जिस प्रकार से एक साधारण आदमी अपनी जिन्दगीको जीना चाहता है। दूसरे भाव में शनि दूसराभाव भौतिक धन का भाव है,भौतिक धन से मतलब है, रुपया, पैसा, सोना, चाँदी, हीरा, मोती, जेवरात आदि, जब शनि देव दूसरे भाव मे होते है तो अपने ही परिवार वालो के प्रति अन्धेरा भी रखते है, अपने ही परिवार वालों से लडाई झगडाआदि करवा कर अपने को अपने ही परिवार से दूर कर देते हैं,धन के मामले मै पता नही चलता है कितना आया और कितना खर्च किया, कितना कहां से आया,दूसरा भाव ही बोलने का भाव है, जो भी बात की जाती है, उसका अन्दाज नही होता है कि क्या कहा गया है, गाली भी हो सकती है और ठंडी बात भी, ठंडी बात से मतलब है नकारात्मक बात, किसी भी बात को करने के लिये कहा जाय, उत्तर में न ही निकले.दूसरा शनि चौथे भाव को भी देखता है, चौथा भाव माता, मकान, और वाहन का भी होता है, अपने सुखों के प्रति भी चौथे भाव से पता किया जाता है, दूसरा शनि होने परयात्रा वाले कार्य और घर मे सोने के अलावा और कुछ नही दिखाई देता है। दूसरा शनि सीधे रूप मे आठवें भाव को देखता है, आठवा भाव शमशानी ताकतों की तरफ़ रुझान बढा देता है, व्यक्ति भूत,प्रेत,जिन्न और पिशाची शक्तियों को अपनाने में अपना मन लगा देता है, शमशानी साधना के कारण उसका खान पान भी शमशानी हो जाता है,शराब,कबाब और भूत के भोजन में उसकी रुचि बढ जाती है। दूसरा शनि ग्यारहवें भाव को भी देखता है, ग्यारहवां भावअचल सम्पत्ति के प्रति अपनी आस्था को अन्धेरे मे रखता है, मित्रों और बडे भाई बहिनो के प्रति दिमाग में अन्धेरा रखता है। वे कुछ करना चाहते हैं लेकिन व्यक्ति के दिमाग में कुछ और ही समझ मे आता है। तीसरे भाव में शनि तीसरा भाव पराक्रम का है, व्यक्ति के साहस और हिम्मत का है, जहां भी व्यक्ति रहता है, उसके पडौसियों का है। इन सबके कारणों के अन्दर तीसरे भाव से शनि पंचम भाव को भी देखता है, जिनमे शिक्षा,संतान और तुरत आने वाले धनो को भी जाना जाता है, मित्रों की सहभागिता और भाभी का भाव भी पांचवा भाव माना जाता है, पिता की मृत्यु का औरदादा के बडे भाई का भाव भी पांचवा है। इसके अलावा नवें भाव को भी तीसरा शनि आहत करता है, जिसमे धर्म, सामाजिक व्यव्हारिकता, पुराने रीति रिवाज और पारिवारिक चलन आदि का ज्ञान भी मिलता है, को तीसरा शनि आहतकरता है। मकान और आराम करने वाले स्थानो के प्रति यह शनि अपनी अन्धेरे वाली नीति को प्रतिपादित करता है।ननिहाल खानदान को यह शनि प्रताडित करता है। चौथे भाव मे शनि चौथे भाव का मुख्य प्रभाव व्यक्ति के लिये काफ़ी कष्ट देने वाला होता है, माता, मन, मकान, और पानी वाले साधन, तथा शरीर का पानी इस शनि के प्रभाव से गंदला जाता है, आजीवन कष्टदेने वाला होने से पुराणो मे इस शनि वाले व्यक्ति का जीवन नर्क मय ही बताया जाता है। अगर यह शनि तुला,मकर,कुम्भ या मीन का होता है, तो इस के फ़ल में कष्टों मे कुछ कमी आ जाती है। पंचम भाव का शनि इस भाव मे शनि के होने के कारण व्यक्ति को मन्त्र वेत्ता बना देता है, वह कितने ही गूढ मन्त्रों के द्वारा लोगो का भला करने वाला तो बन जाता है, लेकिन अपने लिये जीवन साथी के प्रति,जायदाद के प्रति, और नगद धन के साथ जमा पूंजी के लिये दुख ही उठाया करता है।संतान मे शनि की सिफ़्त स्त्री होने और ठंडी होने के कारण से संतति मे विलंब होता है,कन्या संतान की अधिकता होती है, जीवन साथी के साथ मन मुटाव होने से वह अधिक तर अपने जीवन के प्रति उदासीन ही रहता है। षष्ठ भाव में शनि इस भाव मे शनि कितने ही दैहिक दैविक और भौतिक रोगों का दाता बन जाता है, लेकिन इस भाव का शनि पारिवारिक शत्रुता को समाप्त कर देता है,मामा खानदान को समाप्त करने वाला होता है,चाचा खान्दान से कभी बनती नही है। व्यक्ति अगर किसी प्रकार से नौकरी वाले कामों को करता रहता है तो सफ़ल होता रहता है, अगर किसी प्रकार से वह मालिकी वाले कामो को करता है तो वह असफ़ल हो जाता है। अपनी तीसरी नजर से आठवें भाव को देखने के कारण से व्यक्ति दूर द्रिष्टि से किसी भी काम या समस्या को नही समझ पाता है, कार्यों से किसी न किसी प्रकार से अपने प्रतिजोखिम को नही समझ पाने से जो भी कमाता है, या जो भी किया जाता है, उसके प्रति अन्धेरा ही रहता है, और अक्स्मात समस्या आने से परेशान होकर जो भी पास मे होता है गंवा देता है। बारहवे भाव मे अन्धेरा होने के कारण से बाहरी आफ़तों के प्रति भी अन्जान रहता है, जो भी कारण बाहरी बनते हैं उनके द्वारा या तो ठगा जाता है या बाहरी लोगों की शनि वाली चालाकियों के कारण अपने को आहत ही पाता है। खुद के छोटे भाई बहिन क्या कर रहे हैं और उनकी कार्य प्रणाली खुद के प्रति क्या है उसके प्रति अन्जान रहता है। अक्सर इस भाव का शनि कही आने जाने पर रास्तों मे भटकाव भी देता है, और अक्सर ऐसे लोग जानी हुई जगह पर भी भूल जाते है। सप्तम भाव मे शनि सातवां भाव पत्नी और मन्त्रणा करने वाले लोगो से अपना सम्बन्ध रखता है।जीवन साथी के प्रति अन्धेरा और दिमाग मे नकारात्मक विचारो के लगातार बने रहने से व्यक्ति अपने को हमेशा हर बात में छुद्र ही समझता रहता है,जीवन साथी थोडे से समय के बाद ही नकारा समझ कर अपना पल्ला जातक से झाड कर दूर होने लगता है, अगर जातक किसी प्रकार से अपने प्रति सकारात्मक विचार नही बना पाये तो अधिकतर मामलो मे गृह्स्थियों को बरबाद ही होता देखा गया है, और दो शादियों के परिणाम सप्तम शनि के कारण ही मिलते देखे गये हैं,सप्तम शनि पुरानी रिवाजों के प्रति और अपने पूर्वजों के प्रति उदासीन ही रहता है, उसे केवल अपने ही प्रति सोचते रहने के कारण और मै कुछ नही कर सकता हूँ, यह विचार बना रहने के कारण वह अपनी पुरानी मर्यादाओं को अक्सर भूल ही जाता है, पिता और पुत्र मे कार्य और अकार्य की स्थिति बनी रहने के कारण अनबन ही बनी रहती है। व्यक्ति अपने रहने वाले स्थान पर अपने कारण बनाकर अशांति उत्पन्न करता रहता है, अपनी माता या माता जैसी महिला के मन मे विरोध भी पैदा करता रहता है, उसे लगता है कि जो भे उसके प्रति किया जा रहा है, वह गलत ही किया जा रहा है और इसी कारण से वह अपने ही लोगों से विरोध पैदा करने मे नही हिचकता है। शरीर के पानी पर इस शनि का प्रभाव पडने से दिमागी विचार गंदे हो जाते हैं, व्यक्ति अपने शरीर में पेट और जनन अंगो मे सूजन और महिला जातकों कीबच्चादानी आदि की बीमारियां इसी शनि के कारण से मिलती है। अष्टम भाव में शनि इस भाव का शनि खाने पीने औ


Like (0)

Comments

Post

Latest Posts

यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

न भारतीयो नववत्सरोSयं तथापि सर्वस्य शिवप्रद: स्यात् । यतो धरित्री निखिलैव माता तत: कुटुम्बायितमेव विश्वम् ।। *यद्यपि यह नव वर्ष भारतीय नहीं है। तथापि सबके लिए कल्याणप्रद हो ; क्योंकि सम्पूर्ण धरा माता ही है।*- ”माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या:” *अत एव पृथ्वी के पुत्र होने के कारण समग्र विश्व ही कुटुम्बस्वरूप है।* पाश्चातनववर्षस्यहार्दिकाःशुभाशयाः समेषां कृते ।। ------------------------------------- स्वत्यस्तु ते कुशल्मस्तु चिरयुरस्तु॥ विद्या विवेक कृति कौशल सिद्धिरस्तु ॥ ऐश्वर्यमस्तु बलमस्तु राष्ट्रभक्ति सदास्तु॥ वन्शः सदैव भवता हि सुदिप्तोस्तु ॥ *आप सभी सदैव आनंद और, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें*... *विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें,* ऐश्वर्य व बल को प्राप्त करें तथा राष्ट्र भक्ति भी सदा बनी रहे, आपका वंश सदैव तेजस्वी बना रहे.. *अंग्रेजी नव् वर्ष आगमन की पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं* ज्योतिषाचार्य बृजेश कुमार शास्त्री

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।

Top