राम कथा(1)

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Astro Pawan Kumar Pandey Ji 31st Aug 2020

🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷 🌷 *सोंचनीय कौन??* 🌷 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷 *सोचिअबटुनिजब्रतुपरिहरई।* *जोनहिं गुरआयसु अनुसरई।* 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷 भरत जी को सोंचनीय कौन,इसकी शिक्षा देते हुए गुरुवर वशिष्ठ को भरत के वे दिन याद आ गये! जब ये चारों भाई उनके आश्रम मे विद्याध्ययन हेतु वटुक बनकर आए थे क्या अद्भुत बटुक थे चारों भाई,दत्तचित्त होकर सिर्फ अपना लक्ष्य साधन,ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए विद्याध्ययन करना और गुरु आज्ञा का पालन,तथा गुरु सेवा! इसके अतिरिक्त इनका ध्यान कहीं नहीं जाता था तभी तो,थोड़े ही समय मे यह सारी विद्याओं मे पारंगत हो गये थे---- *गुरु गृह गये पढ़न रघुराई!* *अल्प काल बिद्या सब पाई!* और आज कन्हैयाकुमार जैसे कुछ बटुक जिन्हें विद्या तो मिली नहीं हाँ गुरुकुल मे रहते रहते अनेक भ्रष्टाचार आदि मे शामिल जरूर रहे! *बहु काल रहे बिद्या न मिली* *नारी सों नैन लड़ाइ रह्यो है!* तो, मानस प्रेमी सज्जन वृंद!! जैसे ही गुरुवर से भरत जी ने कहा गुरुवर और सोंचनीय कौन??? तो उन्होंने कहा-- *सोंचिय बटु!* क्यों?? *निज व्रत परिहरई!* तो यह जान लें कि वटु या वटुक कौन है?? वटुक ब्रह्मचर्य आश्रम का आधार स्तम्भ वह विद्यार्थी होता है जो विद्या प्राप्त करने हेतु गुरु के समक्ष, संकल्प लेकर,ब्रह्मचर्य व्रत के पालन व पूरा ध्यान विद्या अध्ययन मे ही लगाने की शपथ लेता है! मित्रों ब्रह्मचर्य का पालन करके ही विद्या के भेद को समझा जा सकता है,ब्रह्मचर्य के बिना मन एकाग्र नहीं रह सकता और बिना एकाग्र मन के विद्या का अनुसंधान असम्भव है,आज जो विद्यार्थी लफंगेबाजी मे पकड़कर कन्याओं के चक्कर मे घूमने लगते हैं साहचर्य की लालसा व लिप्सा मे उनक ध्यान सदैव अस्थिर होता है और वे अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाते और अपने साथ साथ अपने पिता के भी मान बड़ाई व धन को नष्ट कर अपना भविष्य अंधकारमय बना लेते हैं, वे निश्चित ही सोंचनीय हैं! तो किसका ब्रत टूटने की ज्यादा सम्भावना होती है गुरूजी?? तो कहा कि, *जो नहिं गुरु आयसु अनुसरई!* हे तात जो वटुक अपने गुरु की आज्ञा उनके निर्देशों की अवहेलना करते हैं! उनके ही भटकने की सम्भावना ज्यादा हो जाती है! गुरू ने आम बताया तो चेला इमली खा रहा है! तो उसका ब्रत तो भंग होना ही है! तो, जो बटुक अपने विद्याध्ययन के व्रत को त्याग कर अपना मन विषय वासनाओं व भोग विलास मे मन लगाता है और अपने गुरु के मान सम्मान तथा निर्देश,अनुदेश व आज्ञाओं का,उल्लंघन करता है, निश्चित ही उसकी दशा सोंचनीय होगी! न तो वह समय से ज्ञानार्जन ही कर सकेगा! और न ही फिर उसे गृहस्थ आश्रम का ही सम्यक् आनंद मिलेगा-- *दुविधा मे दोनों गये!* *माया मिली न राम!!* अतः अपना ब्रत त्यागने वाला,व गुरु के आदेश की अवहेलना करने वाला बटुक सोंचनीय है! आपने गुरु की आज्ञा पालन करने वाले तमाम बटुकों की एक से बढ़कर एक कहानियां सुना होगा, अतः गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले एक शिष्य की चर्चा सुनिए--- भगवान शंकर का एक शिष्य था-- रावण! पूजा तो वह शिव जी की खूब करता था पर मनता एक नहीं था!😃 वैसे ही पढ़ने मे तो बड़ा ही तेज था,पर ब्रह्मचर्य ऐसा कि जै जै,सियाराम! आप सब जानते ही हैं स्त्री प्रसंग मे ही उसने अपना समस्त वैभव नष्ट कर दिया! एक बार तो गुरूजी से गुरुमाता को ही मांग बैठा! खैर यह चर्चा भी आज नहीं करना! आज तो बस उसके द्वारा गुरु आज्ञा अवहेलना का ही एक प्रसंग लेते हैं-- एक बार शंकर जी ने रावण से कहा पुत्र तुम अपने बल का बहुत दुरुपयोग करते हो इसे अनर्गल कार्यों मे न लगाया करो! रावण ने कह तो दिया ठीक है गुरूजी! पर सोंचने लगा कि क्या करू क्या करूँ! लंका मे बैठे बैठे वह सोंचता रहा कि क्या किया जाय! उसके मन मे विचार आया कि क्यों न कैलाश पर्वत को ही उठाया जाय!😃 और वह गया,आव देखा न ताव, बस दाहिने एक हाँथ से कैलाश पर्वत को उठा लिया! *बरबस ही कैलाश पुनि लीन्हेसि जाइ उठाय!* जब कैलाश पर्वत डगमगाया तो माता पार्वती ने शिव जी से पूंछा कि भगवन यह भूकम्प कैसा?? भोलेनाथ बोले-- देवी चेला आया है!! देवी जी ने कहा कि यह कैसा चेला है जिसके आने से गुरू का ही आसन हिलने लगा?? तो शिव जी ने कहा शुकर करो कि कैलाश ही हिल रहा है,! मेरे चेले के तो चलने से पूरी धरती हिलती है!😃 *चलत दसानन डोलति अवनी!* माता ने कहा प्रभु चेला तो आपका बड़ा खतरनाक है तो कुछ करो नाथ!कुछ करो! तब भोले बाबा ने अपने अंगूठे से कैलाश को दबा दिया था और दब जाने से रावण की बड़ी दुर्गति हुई थी बड़ी मुश्किल से शिव कृपा से छूटा था! इसी प्रकार गुरुद्रुह चंद्रमा की दुर्दशा भी किसी से छुपी नहीं है! अतः--- *सोंचिअ बटु निज ब्रत परि हरई!* *जो नहिं गुरु आयसु अनुसरई!* अतः उस बटुक का जो अपने ब्रत का त्या कर के गुरुद्रुह तथा गुरु द्रोह मे लिप्त हो उसकी दशा सोंचनीय ही होती है! काकभुसुण्डि जी भी अपनी कथा बताते हुए कहते हैं-- *मानीकुटिलकुभाग्यकुजाती।* *गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती।* और गुरु द्रोह के कारण ही उन्हें अत्यंत घोर शाप दे डाला शिव जी ने,वह अलग बात है कि गुरु की सुशीलता दया भाव के कारण उनका कल्याण भी हुआ! तो ऐसा समझाने मे वशिष्ठ जी का भाव यह था कि यह पूर्ण रूपेण मेरी बात मान लेगा,और जो मै कहूँगा वही करेगा! परन्तु भरत जी ने तो प्रश्न पुनः कर दिया कि हे गुरुवर!! क्या और भी कोई है जो सोंचनीय है??? इसपर वशिष्ठ जी ने जो कहा उसकी चर्चा कल-- विषय की विद्रूपता हेतु--🌷🙏 ( *छमिहंहि सज्जन मोरि ढिठाई*) 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷 🌷सीताराम जय सीताराम 🌷 🌷सीताराम जय सीताराम 🌷 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷पवन कुमार पाण्डेय


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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।

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