रोग की प्रकृति ग्रहों के आधर पे।

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Acharya Amit Anand 06th Jul 2019

ज्योतिष के माध्यम से रोग की प्रकृति 🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺 उसका प्रभाव तथा उसके कारणों का विश्लेषण किया जा सकता है। ज्योतिष और आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का गहरा संबंध रहा है। प्राचीन काल में वैद्यों को चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ ज्योतिष विज्ञान का अध्ययन कराया जाता था, ताकि वे सम्मिलित प्रयास से रोग का निदान कर सकें। 🌻ज्योतिष शास्त्र में 12 राशियांे, 9 ग्रहों और 27 राशियों के नक्षत्रोें के माध्यम से रोग की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। कालपुरुष के विभिन्न अंगों पर राशियों का आधिपत्य बताया गया है जिसके आधार पर हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। जन्म कुंडली में स्थित प्रत्येक राशि तथा ग्रह शरीर के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस ग्रह का जिस राशि पर दूषित प्रभाव होता है उससे संबंधित अंग पर रोग के प्रभाव का पता लगाया जा सकता है। 🌻 इस संबंध मंे रोग की अवधि मंे किस ग्रह की महादशा चल रही है, ग्रह कुंडली में कौन से भाव में स्थित या दृष्ट है, ग्रह पापी है या शुभ है इन सब बातों से रोग की जानकारी प्राप्त होती है। रोग की जानकारी के लिए लग्न, चंद्र एवं सूर्य कुंडलियों का अध्ययन करना आवश्यक होता है और उसके लिए कालपुरुष को समझना भी आवश्यक होता है। 🌻 सामान्यरूप से लग्न मस्तिष्क का, चंद्रमा मन, पेट तथा इंद्रियों का और सूर्य आत्मा और हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। 1. मेष, सिंह, धनु राशियां अग्नि तत्व हैं। 2. वृष, कन्या, मकर राशियां पृथ्वी तत्व हैं। 3. मिथुन, तुला, कुंभ राशियां वायु तत्व हैं। 4. कर्क, वृश्चिक, मीन राशियां जल तत्व हैं। इन तत्वों की प्रकृति के आधार पर भी रोग की पहचान आसानी से की जा सकती है। 🌻यदि अग्नि तत्व राशियां कुंडली में दूषित हों, पाप प्रभाव में हों अथवा किसी शुभ ग्रह से दृष्ट न हों और पाप ग्रह की महादशा चल रही हो तो अनिद्रा, मूर्छा, सिर का दर्द, माइग्रेन आदि बीमारियों का संकेत देती हैं। 🌻यदि पृथ्वी तत्व राशियां कुंडली मंे दूषित हों, पाप प्रभाव में हों अथवा किसी शुभ ग्रह से दृष्ट न हों और पाप ग्रह की महादशा चल रही हो तो त्वचा एवं हड्डियों से संबंधित रोग तथा वायु विकार, गठिया, वाहन दुर्घटना आदि का संकेत देती हैं। 🌻यदि वायु तत्व राशियां कुंडली मंे दूषित हों, पाप प्रभाव में हों अथवा किसी शुभ ग्रह से दृष्ट न हों और पाप ग्रह की महादशा चल रही हो तो मानसिक विकार, तनाव, पक्षाघात, मतिभ्रम आदि का संकेत देती हैं। 🌻यदि जल तत्व राशियां कुंडली मंे दूषित हों, पाप प्रभाव में हों अथवा किसी शुभ ग्रह से दृष्ट न हों और पाप ग्रह की महादशा चल रही हो तो ट्यूमर, कैंसर, हिस्टीरिया, घबराहट आदि का संकेत देती हैं। इसी प्रकार यह भी जान सकते हैं कि ग्रहों के दूषित होने और पाप ग्रह से दृष्ट होने से एवं उनकी महादशा में कौन-कौन सी बीमारियां हो सकती हैं। 🌻यदि सूर्य दूषित हो तो मस्तिष्क रोग, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, पेट एवं नेत्र विकार, बुखार, मिरगी, सिर दर्द आदि हो सकते हैं। यदि चंद्रमा दूषित हो तो नेत्र रोग, ठंड, कफ, दमा, दस्त, मानसिक बीमारी आदि हो सकते हैं। यदि मंगल दूषित हो तो तीव्र ज्वर, चेचक, बवासीर, नासूर, साइनस, गर्भपात, लकवा, फोड़ा, गर्दन के रोग, पोलियो आदि हो सकते हैं। यदि बुध दूषित हो तो मस्तिष्क विकार, पक्षाघात, दौरे आना, हकलाहट, सुनने तथा बोलने की शक्ति का ह्रास आदि हो सकते हैं। 🌻यदि बृहस्पति दूषित हो तो पीलिया, यकृत संबंधी रोग, मोतियाबिंद, साइटिका, गठिया की बीमारी आदि हो सकते हैं। यदि शुक्र दूषित हो तो चमड़ी के रोग, कोढ़, गुप्तांग रोग, नेत्र रोग, दाद, मूत्र रोग आदि हो सकते हैं। 🌻यदि शनि दूषित हो तो दांत दर्द, पाइरिया, बहरापन, कैंसर, मूर्छा, गठिया एवं अन्य जटिल बीमारियां हो सकती हैं। यदि राहु-केतु दूषित हों तो राहु शनि के जैसे तथा केतु मंगल के जैसे रोग प्रदान करता है अथवा दोनों जिस राशि-भाव में बैठते हैं, उसके अनुरूप रोग देते हैं। सामान्यरूप से नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध तथा चंद्रमा पाप ग्रह शनि, मंगल, राहु, केतु तथा सूर्य से पीड़ित होने पर अपनी दशावधि में रोग देते हैं। इन सभी ग्रहों से होने वाले रोगों से मुक्ति पाने के लिए उपाय भी दिए गए हैं। जिन ग्रहों से संबंधित बीमारियां हों उनसे संबंधित दान, पूजा, मंत्रों के जप आदि से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए श्रद्धा, विश्वास एवं निष्ठा का होना जरूरी है। रोगी स्वयं इन उपायों का प्रयोग करे तो उसे अधिक लाभ मिलता है। स्वयं करने में सक्षम नहीं हो तो वह परिवार के किसी सदस्य से अथवा किसी योग्य ब्राह्मण से भी कार्य संपादित करा सकता है 🌻यदि मारक ग्रह की महादशा हो तो महामृत्युंजय मंत्र का जप करना श्रेस्यकर होता है और यदि अधिक ग्रह दूषित हांे तो नवग्रह यंत्र धारण करके रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। 🌻 वास्तु, आयुर्वेद एवं रोग: प्राचीन धर्म ग्रंथों में वास्तु और आयुर्वेद का गहरा संबंध बताया गया है। आयुर्वेद में तीन तरह के दोषों वात (हवा), पित्त (अग्नि) तथा कफ (जल) का विचार किया जाता है तथा इन तीनों का विश्लेषण करके ही उचित दवाओं का निर्धारण होता है। वात, पित्त और कफ अर्थात हवा, अग्नि और जल के नियमों के आधार पर लोगों के स्वभाव एवं आदतों से यह निर्धारित किया जा सकता है कि उनमें इन तत्वों मंे से किस तत्व की प्रधानता है और इसके आधार पर उपाय भी किए जा सकते हैं। 🌻वास्तुशास्त्र के अनुसार उत्तर-पश्चिम (वायव्य) दिशा हवा, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा अग्नि और उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशा जल का क्षेत्र मानी जाती है। कोई व्यक्ति यदि वात तत्व से प्रभावित है तथा अपना ज्यादा समय अपने घर या दफ्तर के उत्तर-पश्चिम (वायव्य) दिशा में बिताता है तो उसके शरीर मंे वात तत्व और ज्यादा संग्रहीत हो जाता है। इसका उसके स्वास्थ्य तथा आदतों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। वास्तु के नियमों के अनुसार स्वस्थ रहने के लिए किसी भी व्यक्ति को अपने प्रभावी तत्व के क्षेत्र में कम से कम समय बिताना चाहिए। कोई व्यक्ति किस तत्व से प्रभावित है इसकी जानकारी के लिए उसके स्वभाव का अध्ययन करना आवश्यक होता है। वात तत्व से प्रभावित व्यक्ति का स्वभाव आमतौर पर हवा की तरह, पित्त तत्व से प्रभावित व्यक्ति का स्वभाव अग्नि की तरह तथा कफ तत्व से प्रभावित व्यक्ति का स्वभाव जल की तरह होता है। वात तत्व से प्रभावित व्यक्ति को अपना ज्यादा समय दक्षिण-पश्चिम या उत्तर-पूर्व में बिताना चाहिए। ऐसा करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हो सकता है। यदि उत्तर-पश्चिम दिशा का इस्तेमाल ज्यादा करना पड़ रहा हो तो नीले, हरे तथा उजले रंगों का इस्तेमाल करके इस क्षेत्र में संतुलन स्थापित किया जा सकता है। 🌻पित्त तत्व से प्रभावित व्यक्ति को अपना ज्यादा समय दक्षिण-पश्चिम तथा उत्तर-पूर्व में बिताना चाहिए। ऐसा करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हो सकता है। यदि दक्षिण-पूर्व दिशा का इस्तेमाल ज्यादा करना पड़ रहा हो तो ठंडे रंगों जैसे नीले, हरे तथा उजले रंगों का प्रयोग करके इस क्षेत्र में संतुलन स्थापित किया जा सकता है। दक्षिण-पूर्व मंे ज्यादा समय बिताने, शयन करने से डायबिटिज और यकृत की बीमारी हो सकती हंै। इससे बचने के लिए पित्त तत्व से प्रभावित व्यक्ति को दक्षिण-पश्चिम में शयन करने की सलाह दी जा सकती है। 🌻 कफ तत्व से प्रभावित व्यक्ति आमतौर पर सुबह देर से उठता है तथा सर्दी जुकाम से पीड़ित रहता है। उसे साइनस होने की संभावना बनी रहती है और यह भी हो सकता है कि वह आलस्य तथा मोटापा से भी परेशान हो। कफ तत्व प्रभावित व्यक्ति को अपना ज्यादा समय दक्षिण-पूर्व में बिताना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि जल तत्व को अग्नि सोखती है। ऐसे में यदि किसी कारणवश उत्तर-पूर्व क्षेत्र का ज्यादा इस्तेमाल करना पड़े तो गाढ़े रंगों जैसे लाल, पीला, नारंगी आदि रंगों का इस्तेमाल कर इन दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। इस प्रकार कफ देाष का निदान हो जाएगा क्योंकि ये रंग अग्नि तत्व से संबंधित हैं। ग्रह चिकित्सा से रोग से बचाव: जातक के जन्म के समय जिस राशि में शुभ ग्रह होते हैं, शरीर का उससे संबंधित भाग सुदृढ़, निरोगी एवं पुष्ट होता है एवं जिस राशि में पाप ग्रह होते हैं शरीर के उस राशि से संबंधित भाग में रोग होता है। ग्रहों के शुभ प्रभाव मंे वृद्धि और अशुभ प्रभाव से छुटकारा पाने के लिए मंत्र, रत्न, औषधि, दान व स्नान का प्रयोग किया जाता है। मनीषियों ने इसे ग्रह चिकित्सा कहा है। इसमें मंत्र की महिमा तथा उसके प्रभाव को सर्वाेच्च प्राथमिकता दी गई है। फलित ग्रन्थों में स्थान स्थान पर इसका उल्लेख है जबकि भारतीय वाङ्मय में इस संबंध में स्वतंत्र शास्त्र रचित है। मंत्र चिकित्सा: मंत्र चिकित्सा में व्यक्ति सुप्त या लुप्त शक्ति को जागृत कर महनीय शक्ति के साथ सामंजस्य स्थापित करता है। यह गूढ़ ज्ञान ही ‘मंत्र’ कहलाता है। इसमें साधक को एक हाथ से भुक्ति तथा दूसरे हाथ से मुक्ति प्राप्त होती है। मंत्र साधना से जीवन की किसी भी समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में प्रत्येक ग्रह के नाम, मंत्र, तांत्रिक मंत्र तथा उनकी जप संख्या निर्धारित है। रत्न चिकित्सा: रत्न के द्वारा ग्रहों के अनिष्ट प्रभाव को कम करके उसके शुभ प्रभाव में वृद्धि की जा सकती है। इसलिए अनिष्ट से बचने व शुभ प्रभाव में वृद्धि के लिए रत्न धारण करने का विधान प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। सूर्य के लिए माणिक्य, चंद्रमा के लिए मोती, मंगल के लिए मूंगा, बुध के लिए पन्ना, गुरु के लिए पुखराज, शुक्र के लिए हीरा, शनि के लिए नीलम, राहु के लिए गोमेद तथा केतु के लिए लहसुनिया रत्न का प्रयोग किया जा सकता है। औषधि चिकित्सा: विभिन्न ग्रह जातक के शारीरिक व मानसिक क्षमताआंे को कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। इस निमित्त वैदिक ज्योतिष के प्रमुख अंग आयुर्वेद शास्त्र की मदद ली जा सकती है। ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए निश्चित औषधियों से स्नान ग्रह चिकित्सा का एक अंग है। इसके अलावा तीर्थ स्थानों पर औषधियुक्त जल से स्नान करने से चमत्कारी परिणाम सामने आते हैं। दान: जन्म जन्मांतरों के अर्जित कर्मों के प्रभाव से जातक को जीवन में कभी अच्छा तो कभी बुरा फल मिलता है। अशुभ कर्मों के प्रायश्चित व शुभ कर्मों के पुण्य को बढ़ाने के लिए उनके सूचक ग्रहों के अनुसार दान करने का विधान है। सूर्य: गेहूं, गुड़, लाल चंदन, गुलाब का फूल, माणिक, लाल गाय, गुलाबी वस्त्र, ताम्र पत्र, नारियल आदि दान करने चाहिए। चंद्रमा: शंख, मोती, चावल, सफेद चंदन, आटा, कपूर, घी, दही, चीनी, मिठाई, मिश्री आदि दान करने चाहिए। शनि: सरसों तेल, नीले वस्त्र, नारियल, काली उड़द, काली दाल, मूंगफली, नीलम, जूते, शनि चालीसा आदि दान करने चाहिए। मंगल: गुड़, घी, सोना, मसूर, मूंगा, मीठी रोटी, नारियल, केसर, गेहूं, लाल वस्त्र, लाल पुष्प, हनुमान चालीसा आदि दान करने चाहिए। गुरु: पीले वस्त्र, पीले खाद्य पदार्थ, कर्मकांड की किताबें, माला, विष्णु की मूर्ति, पीला कंबल, दाल आदि दान करने चाहिए। राहु: मूंगफली, काला/भूरा कंबल, काला पुष्प, नारियल, सप्त धान, गोमेद, चांदी से बना सर्प का जोड़ा आदि दान करने चाहिए। केतु: मूंगफली, काला/भूरा कंबल, काला पुष्प, नारियल, सप्त धान, लहसुनिया, चांदी से बना सर्प का जोड़ा आदि दान करने चाहिए। बुध: साग-सब्जी, पांच प्रकार के फल, केला, चीनी, हरी इलायची, हाथी दांत, सोना, पन्ना, ओनेक्स, हरा वस्त्र, हरा फूल, पंचांग, धार्मिक किताबें, दुर्गा चालीसा आदि दान करने चाहिए। शुक्र: दूध, दही, घी, शहद, आटा, चावल, सोना, हीरा, फिरोजा, सफेद पुष्प, सफेद वस्त्र, सुगंधित पदार्थ आदि दान करने चाहिए। इस प्रकार हमने देखा कि ज्योतिष एक विज्ञान है जिसमंे अन्य सभी प्रकार की जानकारी के साथ रोगोें के निदान के उपाय भी हैं और बड़े ही सरल तरीके से रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। Astrologer Amit


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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् || If the 'living' of a person results in 'living' of many other persons, only then consider that person to have really 'lived'. Look even the crow fill it's own stomach by it's beak!! (There is nothing great in working for our own survival) I am not finding any proper adjective to describe how good this suBAshit is! The suBAshitkAr has hit at very basic question. What are all the humans doing ultimately? Working to feed themselves (and their family). So even a bird like crow does this! Infact there need not be any more explanation to tell what this suBAshit implies! Just the suBAshit is sufficient!! *जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता* ? *अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।

न भारतीयो नववत्सरोSयं तथापि सर्वस्य शिवप्रद: स्यात् । यतो धरित्री निखिलैव माता तत: कुटुम्बायितमेव विश्वम् ।। *यद्यपि यह नव वर्ष भारतीय नहीं है। तथापि सबके लिए कल्याणप्रद हो ; क्योंकि सम्पूर्ण धरा माता ही है।*- ”माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या:” *अत एव पृथ्वी के पुत्र होने के कारण समग्र विश्व ही कुटुम्बस्वरूप है।* पाश्चातनववर्षस्यहार्दिकाःशुभाशयाः समेषां कृते ।। ------------------------------------- स्वत्यस्तु ते कुशल्मस्तु चिरयुरस्तु॥ विद्या विवेक कृति कौशल सिद्धिरस्तु ॥ ऐश्वर्यमस्तु बलमस्तु राष्ट्रभक्ति सदास्तु॥ वन्शः सदैव भवता हि सुदिप्तोस्तु ॥ *आप सभी सदैव आनंद और, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें*... *विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें,* ऐश्वर्य व बल को प्राप्त करें तथा राष्ट्र भक्ति भी सदा बनी रहे, आपका वंश सदैव तेजस्वी बना रहे.. *अंग्रेजी नव् वर्ष आगमन की पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं* ज्योतिषाचार्य बृजेश कुमार शास्त्री

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताआलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || Laziness is verily the great enemy residing in our body. There is no friend like hard work, doing which one doesn’t decline. *मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |* हरि ॐ,प्रणाम, जय सीताराम।राम।