रक्षा बन्धन
विश्व के परिदृश्य में रक्षाबन्धन सामाजिक एवं पारिवारिक एकबद्धता के प्रतीक के रूप में मनाया जाने वाला पर्व है । वेद-पुराण इसकी महत्ता को बताता है और इतिहास इसकी विशालता और प्रेम को दर्शता है ।
रक्षाबन्धन के विषय में स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में भी वामनावतार नामक कथा लिखा गया है ।
इसी क्रम में श्री मद्भागवत् स्कन्ध 8, अध्याय 23 के श्लोक 33 में रक्षा के विषय में कहा गया है ।
रक्षिव्ये सर्वतोहं त्वां सानुजं सपरिच्छिदम् ।
सदा सन्निहितं बीरं तत्र मां दृश्यते भवान् ।।
भविष्य पुराण में रक्षाबन्धन की कथा का वर्णन प्राप्त होता है -
देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव के पराक्रम से देवताओं के मन में भय उत्पन्न हुआ उसी समय देवताओं के राजा इन्द्र धबराकर देवगुरु बृहस्पति के पास गए और देवताओं की सारी व्यथा सुनायी । वहां देवराज इन्द्र की पत्नी भी उपस्थित थी उनहोंने भी देवगुरु से अनुरोध किया कि आप देवताओं की रक्षा करें । उसी समय देवगुरु ने रेशम के धागा को अभिमंत्रित कर इन्द्र के हाथ में बांधा । यह शुभकार्य श्रावण के पूर्णिमा तिथि को हुआ था । इन्द्र ने देवताओं की रक्षा की और दानवों को परास्त किया इसलिए उसी दिन से अटुट विश्वास हो गया कि अभिमंत्रित धागा रक्षा करने में समर्थ है और परम्पराओं से श्रावण पूर्णिमा को कुलगुरु या ब्राह्मण अपने राजा के साथ-साथ सभी वर्णों के प्रजा को भी इस तिथि को रक्षा सूत्र बांधते हैं ।
जिस मंत्र से रेशम के धागा को अभिमंत्रित कर बांधा गया था वह इस प्रकार है -
येनबद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वामपि बधनामि रक्षे मा चल मा चल ।।
अर्थात जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूँ । हे रक्षे! तुम अडिग रहना ।
यहां तक हमे समझ में आता है कि वेद-पुराण साक्षी है इस त्योहार को मनाने के लिए ।
इस त्योहार को भाई-बहन का भी पवित्र त्योहार कहा गया है । इसी तिथि को बहन अपने भाई के कलाई पर रक्षा सूत्र बांधति है और वचन लेती है कि विपरित परिस्थियों में भाई बहन की रक्षा करे साथ ही बहन ईश्वर से प्रार्थना करती है कि हमारे भाई की आयु लंबी हो ।
यह परम्परा इतिहास से हमें प्राप्त है जिसमें वर्ण, धर्म आदि का भी भेद नहीं माना गया है ।
इतिहास से लिखा है मेवाड़ की रानि कर्मावती ने अपने पति की रक्षा के लिए हुमायूं को राखी बांधा था। सिकन्दर की पत्नी के द्वारा पोरस को राखी बांधकर भाई बनाना और अपने पति को न मारने का वचन लेना । ऐसी कई घटनाओं से प्रेरित होकर हमारे समाज में इस त्योहार की पवित्रता, वचनबद्धता एवं विशालता को प्रदर्शित करता है ।
यह त्योहार वेद-पुराण से निकल कर सारे जगत में धर्म, वर्ण आदि का बोध न कराते हुए प्रेम के प्रतीक के रूप में प्रतिस्थापित हुआ है । इससे इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है ।