ज्योतिष विज्ञान के सूत्र
मेष आदि राशियाँ कालपुरुष के क्रमश : मस्तक , मुख , बाहु , ह्रदय , उदर , कटि , वस्ति ( पेंडू ), लिङ्ग , ऊरु , जानु , जङ्घा और दोनों चरण हैं।
राशी स्वामी : मङ्गल , शुक्र , बुध , चन्द्रमा , सूर्य , बुध , शुक्र , मङ्गल , गुरु , शनि, शनि तथा ग्रुरु – ये क्रमश : मेष आदि राशियोंके अधीश्वर ( स्वामी ) हैं।
वृष , मेष , धनु , कर्क , मिथुन, और मकर – ये रात्रिसंज्ञक हैं अर्थात् रात में बली माने गये हैं- ये पृष्ठभाग से उदय लेने के कारण पृष्ठोदय कहलते हैं (किंतु मिथुन पृष्ठोदय नहीं है)। शेष राशियों की दिन संज्ञा है (वे दिन में बली और शीर्षोदय माने गये हैं); मीन राशि को उभयोदय कहा गया है।
मेष आदि राशियाँ क्रम से क्रूर और सौम्य (अर्थात् मेष आदि विषम राशियाँ क्रूर और वृष आदि सम राशियाँ सौम्य) हैं।
मेष आदि राशिय़ाँ क्रम से पुरुष, स्त्री और नपुंसक होती हैं (नवीन मतमें दो विभाग हैं , मेष आदि विषम राशियाँ पुरुष और वृष आदि सम राशियाँ स्त्री हैं)।
इसी प्रकार मेष आदि राशियाँ क्रमश: चर , स्थिर और द्विस्वभाव में विभाजित हैं ( अर्थात् मेष चर , वृष स्थिर और मिथुन द्वि स्वभाव हैं, कर्क चर, सिंह स्थिर और कन्या द्विस्वभाव है । इसी क्रमसे शेष राशियोंको भी समझे)। मेष आदि राशियाँ पूर्व आदि दिशाओं में स्थित हैं ( यथा – मेष , सिंह , धनु पूर्वमें ; वृष कन्या , मकर दक्षिण में ; मिथुन , तुला , कुम्भ पश्चिममें और कर्क , वृश्चिक , मीन उत्तरमें स्थित, हैं )। ये सब अपनी – अपनी दिशामें रहती हैं।
सूर्य का उच्च मेष, चन्द्रमा का वृष , मङ्गल का मकर, बुध का कन्या, गुरु का कर्क, शुक्र का मीन तथा शनि का उच्च तुला है। सूर्य का मेष में १० अंश, चन्द्रमा का वृष में ३ अंश , मङ्गल का मकरमें २८ अंश , बुध का कन्या में १५ अंश , गुरु का कर्क में ५ अंश में शुक्र का मीन में २७ अंश तथा शनि का तुला में २० अंश उच्चांश परमोच्च है।
सूर्यादि ग्रहों की जो उच्च राशियाँ कही गयी हैं, उनसे सातवीं राशि उन ग्रहों का नीच स्थान है ।
चर में पूर्व नवमांश वर्गोत्तम है। स्थिर में मध्य (पाँचवाँ) नवमांश और द्विस्वभाव में अन्तिम (नवाँ) नवमांश वर्गोत्तम है।
तनु (लग्न) आदि बारह भाव हैं। सूर्य का सिंह , चन्द्रमा का वृष , मङ्गल का मेष, बुध का कन्या , गुरु का धन , शुक्र का तुला और शनि का कुम्भ यह मूल त्रिकोण कहा गया है। चतुर्थ और अष्टभाव का नाम चतुरस्त्र है । नवम और पञ्चम का नाम त्रिकोण है। द्वादश , अष्टम और षष्ठ का नाम त्रिक है। लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम का नाम केन्द्र है। द्विपद, जलचर, कीट और पशु – ये राशियाँ क्रमश : केन्द्रमें बली होती हैं (अर्थात् द्विपद लग्न में, जलचर चतुर्थ में, कीट सातवें में और पशु दसवें में बलवान् माने गये हैं।
केन्द्र के बाद के स्थान (२, ५,८, ११) ये ‘पणफर’ कहे गये हैं। उसके बादके ३ , ६ , ९, १२ – ये आपोक्लिम कहलाते हैं। मेषका स्वरूप रक्तवर्ण , वृष का श्वेत , मिथुन का तोते के समान हरित, कर्क का पाटल ( गुलाबी ), सिंह का धूम्र, कन्या का पाण्डु ( गौर), तुला का चितकबरा , वृश्चिक का कृष्ण वर्ण, धनु का पीत, मकर का पिङ्ग, कुम्भ का बभ्रु (नेवले) के सदृश और मीन का स्वच्छ वर्ण है। इस प्रकार मेष से लेकर सब राशियों की कान्ति का वर्णन किया गया है।
सब राशियाँ स्वामी की दिशा की ओर झुकी रहती हैं। सूर्याश्रित राशि से दूसरे का नाम ‘ वेशि ’ है ॥१२ – १३॥
( ग्रहोंके शील , गुण आदिका निरूपण — ) सूर्यदेव कालपुरुष के आत्मा , चन्द्रमा मन , मङ्गल पराक्रम , बधु वाणी , गुरु ज्ञान एवं सुख , शुक्र काम और शनैश्वर दुःख हैं।
सूर्य – चन्द्रमा राजा रानी, मङ्गल सेनापति, बुध राजकुमार, बृहस्पति तथा शुक्र मन्त्री और शनैश्वर सेवक या दूत हैं, यह ज्यौतिष शास्त्र के श्रेष्ठ विद्वानों का मत है।
सूर्यादि ग्रहों के वर्ण इस प्रकार हैं। सूर्यका ताम्र , चन्द्रमा का शुक्ल , मङ्गल का रक्त , बुध का हरित , बृहस्पति का पीत , शुक्र का चित्र ( चितकबरा ) तथा शनैश्वर का काला है। अग्नि, जल, कार्तिंकेय, हरि, इन्द्र, इन्द्राणी और ब्रह्मा – ये सूर्यादि ग्रहोंके स्वामी हैं
सूर्य , शुक्र , मङ्गल , राहु, शनि, चन्द्रमा, बुध तथा बृहस्पति – ये क्रमश : पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण, नैऋत्यकोण, पश्चिम, वायव्यकोण, उत्तर तथा ईशान कोण के स्वामी हैं।
क्षीण चन्द्रमा , सूर्य , मङ्गल और शनि – ये पापग्रह हैं – इनसे युक्त होने पर बुध भी पापग्रह हो जाता है।
बुध और शनि नपुंसक ग्रह हैं। शुक्र और चन्द्रमा स्त्री ग्रह हैं। शेष सभी (रवि, मङ्गल, गुरु) ग्रह पुरुष हैं। मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र तथा शानि – ये क्रमश : अग्नि, भूमि, आकाश, जल तथा वायु – इन तत्त्वोंके स्वामी हैं।
शुक्र और गुरु ब्राह्मण वर्ण के स्वामी हैं। भौम तथा रवि क्षत्रिय वर्ण के अधिपति हैं। शनि अन्त्यजों के तथा राहु म्लेर्च्छे के स्वामी हैं।
चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति सत्त्वगुण के, बुध और शुक्र रजोगुण के तथा मङ्गल और शनैश्वर तमोगुण के स्वामी हैं। सूर्य देवताओं के, चन्द्रमा जल के , मङ्गल अग्नि के , बुध क्रीडाविहार के, बृहस्पति भूमि के, शुक्र कोष के, शनैश्वर शयन के तथा राहु ऊसर के स्वामी हैं।
स्थूल (मोटे सूतसे बना हुआ), नवीन, अग्नि से जला हुआ, जल से भीगा हुआ, मध्यम (न नया न पुराना), सुदृढ (मजबूत) तथा फटा हुआ, इस प्रकार क्रम से सूर्य़ आदि ग्रहों का वस्त्र है। ताम्र ( ताँबा ), मणि, सुवर्ण, काँसा, चाँदी, मोती और लोहा – ये क्रमश : सूर्य आदि ग्रहों के धातु हैं। शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् और हेमन्त – ये क्रम से शनि, शुक्र, मङ्गल, चन्द्र, बुध तथा गुरु की ऋतु हैं। लग्न में जिस ग्रह का द्रेष्काण हो , उस ग्रह की ऋतु समझी जाती है।
ग्रहों की दृष्टि- सभी ग्रह अपने – अपने आश्रित स्थान से ३ , १० , स्थान को एक चरण से ; ५, ९, स्थान को दो चरण से; ४, ८, स्थान को तीन चरण से और सप्तम स्थान को चार चरण से देखते हैं। किंतु ३ , १० , स्थान को शनि, ५, ९, को गुरु तथा ४, ८, को मङ्गल पूर्ण दृष्टि से ही देखते हैं। अन्य ग्रह केवल सप्तम स्थान को ही पूर्ण दृष्ट चारों चरणों से देखते हैं।
षड वर्ग : विषम राशियों में पहले सूर्य की, फिर चन्द्रमा की होरा बीतती है तथा सम राशियों में पहले चन्द्रमा की, फिर सूर्य की होरा बीतती है।
राशि के दश अंश तक उसी राशि का द्रेष्काण होता है और उस राशि के स्वामी ही उस द्रेष्काण के स्वामी होते हैं। ग्यारह से बीसवें अंश तक उस राशि से पाँचर्वी राशि का द्रेष्काण होता है और उसके स्वामी ही उस द्रेष्काण के स्वामी होते हैं। इसी प्रकार अन्तिम दश अंश ( अर्थात् २१ से ३० वें अंश तक) उस राशि से नवम राशि का द्रेष्काण होता है और उसी के स्वामी उस द्रेष्काण के स्वामी कहे गये हैं।
विषम राशियों में पहले पाँच अंश तक मङ्गल , फिर पाँच अंश तक शनि, फिर आठ अंश तक बृहस्पति, फिर सात अंश तक बुध और अन्तिम पाँच अंश तक शुक्र त्रिंशांशेश कहे गये हैं। सम राशियों में इसके विपरीत क्रम से पहले पाँच अंश तक शुक्र, फिर सात अंश तक बुध, फिर आठ अंश तक बृहस्पति , फिर पाँच अंश तक शनि और अन्तिम पाँच अंश तक मङ्गल त्रिंशांशेश बताये गये हैं।
मेष आदि राशियों के नवमांश मेष, मकर, तुला और कर्क से प्रारम्भ होते हैं ( यथा – मेष, सिंह, धनु के मेष से; वृष, कन्या, मकर के मकर से; मिथुन, तुला और कुम्भ के तुला से तथा कर्क, वृश्चिक और मीन के नवमांश कर्क से चलते हैं ।
ढाई अंश के द्वादशांश होते हैं, जो अपनी राशि से प्रारम्भ होकर अन्तिम राशि पर पूरे होते हैं और उन-उन राशियों के स्वामी ही उन द्वादशांशों के स्वामी कहे गये हैं। इस प्रकार ये राशि, होरा आदि षड्वर्ग कहलाते हैं।