☀️ *श्रीरामचरितमानस* ☀️ *षष्ठ सोपान* *लंकाकाण्ड* *दोहा सं० ८०* *(चौपाई सं० १ से ३ तक)* *रावनु रथी बिरथ रघुबीरा ।* *देखि बिभीषन भयउ अधीरा ।।१।।* *अधिक प्रीति मन भा संदेहा ।* *बंदि चरन कह सहित सनेहा ।।२।।* *नाथ न रथ नहि तन पद त्राना ।* *केहि बिधि जितब बीर बलवाना ।।३।।* अर्थ – रावण को रथ पर और श्रीरघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गये (धैर्य जाता रहा, घबड़ा गये) । प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)। श्रीरामजी के चरणों की वन्दना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे – हे नाथ ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं । वह बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जायेगा ? 👉 यहांँ कुछ लोग यह शंका करते हैं कि 'विभीषणजी जानते तो पहले से ही थे कि श्रीरामसेना में रथ, घोड़े, हाथी इत्यादि कोई वाहन नहीं हैं, रघुनाथजी को पैदल ही युद्ध करना पड़ेगा और मेघनाद एवं कुम्भकर्ण से पैदल ही युद्ध किया भी है, तब पूर्व ही यह प्रश्न क्यों नहीं किया गया ?' विभिन्न विद्वानों ने इसका समाधान निम्न प्रकार किया है – (१) जानते तो पहले से ही थे कि सेना में एक टटुआ भी नहीं है । सरकार को पैदल ही युद्ध करना पड़ेगा, पर घर बैठे जानना दूसरी बात है और समरांगण में देखने से दूसरे ही भाव उत्पन्न होते हैं । अतः विभीषण अधीर हो उठे । खटकती तो यह बात बंदरों को भी थी, यथा – _*'रथारूढ़ रघुनाथहिं देखी । धाए कपि बल पाइ बिसेषी ।।'*_ पर वे अधीर नहीं हुए, क्योंकि उन लोगों में पैदल ही युद्ध करने की प्रथा है, (वे श्रीरामजी को पैदल ही सर्वत्र विजयी होते देख भी चुके हैं) ; परन्तु विभीषण लंकेश ठहरे, रथी की गरिमा को जानते हैं और पदाति की असुविधा का भी उन्हें सम्यक बोध है । अतएव वे अधीर हो गये । (२) विभीषणजी को विजय में संदेह कभी नहीं था । उन्होंने लंका से चलते समय पुकारकर कहा था कि _*'राम सत्य संकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि ।'*_ परन्तु उस समय सरकार को देखा नहीं था, देखने पर प्रीति बढ़ी और समर के संकट में देखकर वह प्रीति अधिक बढ़ गयी, एवं अधिक प्रीति बढ़ने पर चित्त आशंकित हो उठता है, अतएव _*'उर भा संदेहा ।'*_ (३) माधुर्य-लीला की अद्भुतता, गहनता और प्रबलता ऐसी ही है कि वह ऐश्वर्य को दबा देती है । विभीषणजी प्रभु का ऐश्वर्य भली-भांँति जानते थे । उन्होंने रावण से स्वयं कहा था कि _*'तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेश्वर कालहु कर काला ।। ब्रह्म अनामय अज भगवंता । व्यापक अजित अनादि अनंता ।।'*_ समुद्र तरने का उपाय प्रभु पूछते हैं तब भी वे कहते हैं कि _*'कोटि सिंधु सोषक तब सायक ।। जद्यपि तदपि नीति अस गाई ।'*_(५/५०) फिर वे समुद्रबन्धन, एक ही बाण से रावण के मुकुट आदि का हरण करना, महाबल कुम्भकर्ण का लीलापूर्वक वध आदि आंँखों से देख भी चुके हैं । वे ही विभीषण आज प्रभु के माधुर्य में ऐश्वर्य भूल गये । इसी तरह श्रीकौशल्याजी श्रीरामजी का अद्भुत ऐश्वर्य-स्वरूप देख चुकी हैं, उनको अलौकिक ज्ञान प्राप्त है, फिर भी उनकी माधुरी मूर्ति देखकर उनको संदेह हो जाता है वे कह उठती हैं – _*'केहि बिधि तात ताड़का मारी ।.... मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु ।'*_ इत्यादि । यह माधुर्य का प्रभाव है । अत्यन्त स्नेहवश स्नेही को प्रिय के सम्बन्ध में सदा शंका हो जाती है । श्रीकिशोरीजी की भी यही दशा उस समय हो गयी थी जब श्रीराघवजी धनुष तोड़ने के लिये रंगभूमि में चल पड़े थे । श्रीसरकार के अंगों की कोमलता और धनुष की कठोरता वे वहाँ जैसे प्रत्यक्ष देख रही थीं वैसे ही कोमलता और कठोरता विभीषणजी श्रीरामचन्द्रजी और रावण में लोचन-गोचर कर रहे हैं । प्रीति के आधिक्यवश ये भी अधीर हो गये । (४) अन्य सभी जोड़ी से भिड़े हैं, पर यहांँ विषमता देख रहे हैं कि एक अस्त्र-शस्त्र-ध्वजा-पताका सारथी आदि से सुसज्जित रथ पर सवार है और दूसरा पैदल है, कवच आदि से भी रक्षित नहीं है । इस प्रकार जोड़ी समान न देख वे सह न सके, उनसे रहा नहीं गया । ************************************* 🙏 *श्रीराम – जय राम – जय जय राम* 🙏 ************************************* 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️