अष्टम भाव से कुण्डली के बारह भाव तक
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पुरुष के गुप्तांग (जनेन्द्रियाँ) हैं तथा साझेदारी, आकर्षण, विवाह, अलगाव, जीवन साथ की मृत्यु, यश, मान, प्रतिष्ठा, मारक भाव, व्यभिचार, गुप्त रोग आदि का द्योतक है। स्त्रियों के लिए बृहस्पति तथा पुरुषों के लिए शुक्र कारक होता है। यह पश्चिम दिशा है।
अष्टम भाव:
इसे रन्ध्र भाव भी कहते हैं। यह काल पुरुष का गुप्तांग (कुल्हे) हैं तथा आयु, मृत्यु का प्रकार, संघर्ष, कठिनाईयां, ससुराल, जीवन साथी का धन, गुप्त विभाग, जीवन बीमा, रहस्य, छुपी हुई शक्तियाँ, गड़ा हुआ धन, दु:ख, दरिद्रता, पैतृक संपत्ति, मलद्वार, दीर्घ रोग, आक्रमण, रिसना, गुप्त ज्ञान आदि का द्योतक है। इस भाव का कारक ग्रह शनि है।
नवम भाव:
इसे भागय या धर्म भाव भी कहते हैं। यह काल पुरुष की जंघा है तथा भागय, पिता, धर्म, भक्ति, आस्था, निर्धनता, गुरु, उपदेश, न्याय, धार्मिक क्रिया कलाप, धार्मिक यात्राएं, उच्चतर शिक्षा, भागयोदय आदि का द्योतक है। पिता के लिए सूर्य तथा भागय के लिए बृहस्पति कारक होते हैं।
दशम भाव:
इस कर्म तथा यश भाव भी कहते हैं। यह काल पुरुष के घुटने हैं तथा व्यवसाय, यश मान प्रतिष्ठा, स्वतंत्र व्यवसाय, प्रसिद्धि राज्य कृपा, बड़े लोगों से संबंध, नौकरी या व्यवसाय में उतार-चढ़ाव, जीविका, कार्य करने की क्षमता आदि का द्योतक है। इसके कारक ग्रह सूर्य, बुध, शनि हैं। यह दक्षिण दिशा है।
एकादश भाव:
इसे लाभ भाव भी कहते हैं। यह काल पुरुष की पिण्डलियाँ हैं तथा लाभ, आय के स्त्रोत, बड़े भाई बहन, चाचा, बुआ, पुत्रवधु, स्वास्थ्य एवं सभी कामनाओं की पूर्ति का भाव है। इस भाव का कारक ग्रह बृहस्पति होता है।
द्वादश भाव:
इसे हानि लाभ व्यय भाव भी कहते हैं। यह काल पुरुष के पैर (जानु) हैं तथा विदेश यात्रा, अपव्यय, हॉस्पिटल का खर्च, रति सुख, वैश्यावृत्ति, दान देने की क्षमता, जेल बांई आँख, खर्च करने की प्रवृत्ति, मोक्ष, खुले विचार आदि का द्योतक है। रति सुख के लिए शुक्र तथा हॉस्पिटल खर्च आदि के लिए शनि तथा विदेश यात्रा के लिए राहु और मोक्ष के लिए केतु कारक ग्रह होते है।
इस प्रकार हमारे जीवन के सभी विषयों को किसी भाव विशेष से देखा जाता है। यदि हमें भाव का ज्ञान हो तो हम उस भाव से सम्बंधित विषय का ज्ञान ज्योतिष के द्वारा कर सकते है।
जन्मपत्रिका देखने के लिए कारक ग्रह और उससे भाव की गणना का बहुत महत्त्व है। जैसे : माता के लिए चंद्र और चंद्र से चतुर्थ भाव, पिता के लिए सूर्य और सूर्य से नवम, संतान के लिए गुरु और गुरु से पंचम भाव, पत्नी के लिए शुक्र और शुक्र से सप्तम भाव तथा छोटे भाई-बहनों के लिए मंगल और मंगल से तृतीय भाव। इस प्रकार भाव तथा ग्रह के सिद्धांतानुसार फल का विवेक करना चाहिए।
वाहनों के लिए शुक्र तथा शुक्र से चतुर्थ भाव, भू-संपति के लिए मंगल और मंगल से चतुर्थ भाव और शिक्षा के लिए बुध तथा बुध से पंचम भाव इस प्रकार प्रत्येक भाव एवं उसके कारक ग्रह से भावात भावम सिद्धांतानुसार विश्लेषण करना चाहिए। अस्तु!
इस प्रकार हमने ग्रहों तथा जन्मकुंडली के भावों का अध्ययन किया। किसी जन्मकुंडली के सटीक विश्लेषण के लिए हमें विभिन्न ग्रहों के बलों के मूल्यांकन की विधि का ज्ञान होना चाहिए। सबसे पहले हमें जन्मकुंडली में ग्रह का बल देखना चाहिए। यदि ग्रह बली है, तो वह अपने कारकत्व तथा जिस भाव का स्वामी है और जिन भावों को दृष्ट करता है से संबंधित शुभ फल देगा। यदि ग्रह दुर्बल है तो अपने कारकत्व और जिस भाव का वह स्वामी है उस भाव से संबंधित शुभ फल नहीं दे पाएगा।
ग्रहों के बल का जानने के लिए षडबल पद्धति से गणना द्वारा ग्रह बल निकला जाता है। ग्रन्थ जातक पारिजात में षडबल निकाले बिना ही यदि शुभ पंचक के नियमों को ध्यान में रखा जाए तो भी हम ग्रहों के बल व उनका फलित में उपयोग बखूबी कर सकते है। ग्रहों का शुभ पंचक का सूत्र निम्न प्रकार से समझ सकते है।
१. वर्गोत्तमी होना
२. उच्च राशिस्थ होना
३. मूल त्रिकोणस्थ होना
४. स्व राशिस्थ होना
५. मित्र राशिस्थ होना
उपरोक्त परिस्थतियों में ग्रहों को बलवान माना गया है। जिसके कारण वे अपने शुभ फल देने में सक्षम होते हैं। हम यहाँ पर कुछ ग्रहों के निर्बल होने के सूत्रों का प्रतिपादन कर रहे हैं।
१. अस्तंगत होना।
२. नीचस्थ होना
३. त्रिक भावों में स्थित होना
४. पापकर्तरी योग में होना
५. २२वां द्रेष्कोण तथा ६४वें नवमांश का स्वामी
६.अति शत्रु राशि में स्थित होना।
७. अशुभ षष्टयांश में होना।
इन परिस्थितियों में ग्रह निर्बल होते हैं। लेकिन इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि यदि उपरोक्त स्थिति में स्थित ग्रह यदि केन्द्रोश या त्रिकोणेश से संबंध बनाये तो भी शुभ फल सन्धाता हो जाता है।
*ज्योतिष में किस तिथी को कब-क्या निषेध है।।*
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प्रतिपदा तिथि
प्रतिपदा तिथि में गृह निर्माण, गृह प्रवेश, वास्तुकर्म, विवाह, यात्रा, प्रतिष्ठा, शान्तिक तथा वयावसायिकता पौष्टिक कार्य आदि सभी
मंगल कार्य किए जाते हैं. कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा में चन्द्रमा को बली माना गया है और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में चन्द्रमा को निर्बल माना गया है. इसलिए शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में विवाह, यात्रा, व्रत, प्रतिष्ठा, सीमन्त, चूडा़कर्म, वास्तुकर्म तथा गृहप्रवेश आदि कार्य नहीं करने चाहिए.
द्वित्तीया तिथि
विवाह मुहूर्त, यात्रा करना, आभूषण खरीदना, शिलान्यास, देश अथवा राज्य संबंधी कार्य, वास्तुकर्म, उपनयन आदि कार्य करना शुभ माना होता है परंतु इस तिथि में तेल लगाना वर्जित है.
तृतीया तिथि
तृतीया तिथि में शिल्पकला अथवा शिल्प संबंधी अन्य कार्यों में, सीमन्तोनयन, चूडा़कर्म, अन्नप्राशन, गृह प्रवेश, विवाह, राज-संबंधी कार्य, उपनयन आदि शुभ कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं.
चतुर्थी तिथि
सभी प्रकार के बिजली के कार्य, शत्रुओं का हटाने का कार्य, अग्नि संबंधी कार्य, शस्त्रों का प्रयोग करना आदि के लिए यह तिथि अच्छी मानी गई है. क्रूर प्रवृति के कार्यों के लिए यह तिथि अच्छी मानी गई है..
पंचमी तिथि
पंचमी तिथि सभी प्रवृतियों के लिए यह तिथि उपयुक्त मानी गई है. इस तिथि में किसी को ऋण देना वर्जित माना गया है.
षष्ठी तिथि षष्ठी तिथि में युद्ध में उपयोग में लाए जाने वाले शिल्प कार्यों का आरम्भ, वास्तुकर्म, गृहारम्भ, नवीन वस्त्र पहनने जैसे शुभ कार्य इस तिथि में किए जा सकते हैं. इस तिथि में तैलाभ्यंग, अभ्यंग, पितृकर्म, दातुन, आवागमन, काष्ठकर्म आदि कार्य वर्जित हैं.
सप्तमी तिथि
विवाह मुहुर्त, संगीत संबंधी कार्य, आभूषणों का निर्माण और नवीन आभूषणों को धारण किया जा सकता है. यात्रा, वधु-प्रवेश, गृह-प्रवेश, राज्य संबंधी कार्य, वास्तुकर्म, चूडा़कर्म, अन्नप्राशन, उपनयन संस्कार, आदि सभी शुभ कार्य किए जा सकते हैं.
अष्टमी तिथि
इस तिथि में लेखन कार्य, युद्ध में उपयोग आने वाले कार्य, वास्तुकार्य, शिल्प संबंधी कार्य, रत्नों से संबंधित कार्य, आमोद-प्रमोद से जुडे़ कार्य, अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले कार्यों का आरम्भ इस तिथि में किया जा सकता है.
नवमी तिथि
नवमी तिथि में शिकार करने का आरम्भ करना, झगड़ा करना, जुआ खेलना, शस्त्र निर्माण करना, मद्यपान तथा निर्माण कार्य तथा सभी प्रकार के क्रूर कर्म इस तिथि में किए जाते हैं.
दशमी तिथि
दशमी तिथि में राजकार्य अर्थात वर्तमान समय में सरकार से संबंधी कार्यों का आरम्भ किया जा सकता है. हाथी, घोड़ों से संबंधित कार्य, विवाह, संगीत, वस्त्र, आभूषण, यात्रा आदि इस तिथि में की जा सकती है. गृह-प्रवेश, वधु-प्रवेश, शिल्प, अन्न प्राशन, चूडा़कर्म, उपनयन संस्कार आदि कार्य इस तिथि में किए जा सकते हैं.
एकादशी तिथि
एकादशी तिथि में व्रत, सभी प्रकार के धार्मिक कार्य, देवताओं का उत्सव, सभी प्रकार के उद्यापन, वास्तुकर्म, युद्ध से जुडे़ कर्म, शिल्प, यज्ञोपवीत, गृह आरम्भ करना और यात्रा संबंधी कार्य किए जा सकते हैं.
द्वादशी तिथि
इस तिथि में विवाह, तथा अन्य शुभ कर्म किए जा सकते हैं. इस तिथि में तैलमर्दन, नए घर का निर्माण करना तथा नए घर में प्रवेश तथा यात्रा का त्याग करना चाहिए.
शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि
संग्राम से जुडे़ कार्य, सेना के उपयोगी अस्त्र-शस्त्र, ध्वज, पताका के निर्माण संबंधी कार्य, राज-संबंधी कार्य, वास्तु कार्य, संगीत विद्या से जुडे़ काम इस दिन किए जा सकते हैं. इस दिन यात्रा, गृह प्रवेश, नवीन वस्त्राभूषण तथा यज्ञोपवीत जैसे शुभ कार्यों का त्याग करना चाहिए.
चतुर्दशी
चतुर्दशी तिथि में सभी प्रकार के क्रूर तथा उग्र कर्म किए जा सकते हैं. शस्त्र निर्माण इत्यादि का प्रयोग किया जा सकता है. इस तिथि में यात्रा करना वर्जित है. चतुर्थी तिथि में किए जाने वाले कार्य इस तिथि में किए जा सकते हैं.
पूर्णमासी
पूर्णमासी जिसे पूर्णिमा भी कहते हैं, इस तिथि में शिल्प, आभूषणों से संबंधित कार्य किए जा सकते हैं. संग्राम, विवाह, यज्ञ, जलाशय, यात्रा, शांति तथा पोषण करने वाले सभी मंगल कार्य किए जा सकते हैं.अमावस्या इस तिथि में पितृकर्म मुख्य रुप से किए जाते हैं. महादान तथा उग्र कर्म किए जा सकते हैं. इस तिथि में शुभ कर्म तथा स्त्री का संग नहीं करना चाहिए।
*🙏🌹हरे कृष्ण🌹🙏*
पञ्चाङ्ग
भारत में ५ प्रकार से दिन लिखते हैं।
अतः यहां की काल गणना को पञ्चाङ्ग (५ अंग) कहते हैं।
5 अंग हैं-
१. तिथि– चन्द्र का प्रकाश १५ दिन तक बढ़ता है। यह शुक्ल पक्ष है जिसमें १ से १५ तक तिथि है।
कृष्ण पक्ष में १५ दिनों तक चन्द्र का प्रकाश घतता है। इसमें भी १ से १५ तिथि हैं।
२. वार– ७ वार का वही क्रम ग्रहों के नाम पर।
३. नक्षत्र– चन्द्र २७.३ दिन में पृथ्वी का चक्कर लगाता है। १ दिन में आकाश के जितने भाग में चन्द्र रहता है, वह उसका नक्षत्र है। ३६० अंश के वृत्त को २७ भाग में बांटने पर १ नक्षत्र १३ १/३ अंश का है। चन्द्र जिस नक्षत्र में रहता है, वह उस दिन का नक्षत्र हुआ।
४. योग
– चन्द्र तथा सूर्य की गति का योग कर नक्षत्र के बराबर दूरी तय करने का समय योग है। २७ योग २५ दिन में पूरा होते हैं।
५. करण– तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं।
तिथि
१. तिथि—चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना है। इसका चन्द्र और सूर्य के अन्तरांशों के मान १२ अंशों का होने से एक होती है। जब अन्तर १८० अंशों का होता है उस समय को रिणमा कहते हैं जब यह अन्तर ० (शून्य) या ३६० अंशों का होता है। उस समय को अमावस कहते हैं। एक मास में ३० तिथि कहते हैं। १५ तिथि कृष्ण पक्ष व १५ तिथि शुक्ल पक्ष में १, प्रतिपदा, २ द्वितीया, ३ तृतीया, ४ चतुर्थी, ५ पंचमी, ६ षष्ठी, ७ सप्तमी, ८ अष्टमी, ९ नवमी, १० दसमी, ११ एकादशी, १२ द्वादशी, १३ त्रयोदशी, १४ चतुर्दशी, १५ पूर्णिमा, यह शुक्ल पक्ष कहलाता है। कृष्ण पक्ष में १४ तिथि उपरोक्त नाम वाली ही होती है परन्तु अन्तिम तिथि पूर्णिमा के स्थान पर इसे अमावस्या नाम से जाना जाता है। प्रत्येक तिथि के स्वामी अलग-अलग होते हैं, जिनका क्रम निम्न प्रकार है—
तिथि प्रतिपदा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी नवमी दसमी एकादशी द्वादशी त्रयोदशी चतुर्दशी पूर्णिमाचन्द्र
स्वामी अग्नि ब्रह्मा गणेश गौरी सर्प कार्तिकेय सूर्य शिव दुर्गा यम विषवेदेव विष्णु कामदेव शिव अमावस पित्तर
तिथियों में शुभ शुभत्व के अवसर पर स्वामियों का विचार किया जाता है। तिथियों की पांच संज्ञा होती है।
(१) नंदा (२) भद्रा (३) जया (४) रिक्ता (५)पूर्णा
१-६-११ २-७-१२ ३-८-१३ ४-९-१४ ५-१०-१५-३०,अ .
वार व तिथि मेल से बनने वाले सिद्ध योग। तिथि व वार का संयोग होने से सिद्ध योग बनता है। इनमें किया गया कार्यसिद्धि प्रदायक होता है।
रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि
…………. …………. ३-८-११ जया २-७-१२ भद्रा ५-१०-१५ पूर्णा १-६-११ नंदा ४-९-१४ रिक्ता
मृत्युयोग—तिथि वार के संयोग से यह मृत्यु योग बनता है। इनमें किया गया कार्य हानि देता है।
रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि
नंदा १-६-११ भद्रा २-७-१२ नंदा १-६-११ जया ३-८-१३ रिक्ता ४-९-१४ भद्रा २-७-१२ पूर्णा ५-१०-१५
१. शुद्ध तिथि—जिस तिथि में एक बार सूर्योदय होता है उसे शुद्ध तिथि कहते हैं।
२. क्षय तिथि— जिस तिथि में सूर्योदय नहीं हो उसे क्षय तिथि कहते हैं।
३. अधिक तिथि— जिस तिथि में दो बार सूर्योदय होता है अधिक तिथि (वृद्धि तिथि) कहते हैं।
४. गण्डात तिथि—(५-१०-१५) पूर्णा तिथि समाप्ति व (१-६-११) नंदा तिथि के प्रारम्भ समय (सन्धि) को गण्डांत तिथि कहते हैं। इन दोनों तिथि के २४-२४ मिनट (कुल ४८ मिनट) को गण्डांत समय रहता है।
५. पक्षरन्ध्र तिथि—४-६-८-९-१२-१४ यह तिथियाँ पक्षरन्ध्र कहलाती है।
६. दग्धा, विष और हुताशन संज्ञक तिथियाँ—इन नाम अनुसार तिथियों में काम करने से विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।-चक्र नीचे है।
वर रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि
दग्ता संज्ञक १२ ११ ५ ३ ६ ८ ९
विष संज्ञक ४ ६ ७ २ ८ ९ ७
हुताशन संज्ञक १२ ६ ७ ८ ९ १० ११
७. मास शून्य तिथियों—चैत्र में दोनों पक्षों की अष्टमी व नवमी, बैशाख में दोनों पक्षों की द्वादशी, ज्येष्ठ में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी व शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी, आषाढ में कृष्ण की षष्ठी व शुक्ल की सप्तमी, श्रावण में दोनों पक्षों की द्वितीया व तृतीया, भाद्रपद के दोनों पक्षों की प्रतिपदा व द्वितीया, आश्विन में दोनों पक्षों की दशमी व एकादशी, कार्तिकेय में कृष्ण की पंचमी व शुक्ला की चतुर्दशी, माघ में कृष्ण की पंचमी व शुक्ला की षष्ठी, फाल्गुन में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी और शुक्ल पक्ष की तृतीया यह मास शून्य तिथि होती है। मास शून्य तिथियों में कार्य करने से सफलता प्राप्त नहीं होती।
वार
एक सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक की कलावधि को वार कहते हैं। वार सात होते हैं। १. रविवार, २. सोमवार, ३. मंगलवार, ४. बुद्धवार, ५. गुरुवार, ६ शुक्रवार, ७.
शनिवार सोम, बुध, गुरु, व शुक्र की शुभ और रवि, मंगल, शनिवार की अशुभ संज्ञा होती है। रविवार को स्थिर, सोमवार को चर, मंगल की उग्र, बुध की मिश्र, गुरुवार की लघु, शुक्र की मृदु और शनिवार की तीक्ष्ण संज्ञा होती है। जिस ग्रह के बार में जो कार्य करने के लिए बताया है। वह कार्य अन्य वारों में अभीष्ट वार की काल होरा भी करना चाहिए। जो कभी आगे बताऐंगे।
नक्षत्र
नक्षत्र ताराओं के समूह को नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्र २७ होते हैं। सूक्ष्मता से जानने के लिए प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। ९ चरणों के मिलने से एक राशि बनती है। २७ नक्षत्रों के नाम—१. अश्विनी २. भरणी ३. कृत्तिका ४. रोहिणी ५. मृगशिरा ६. आद्र्रा ७. पुनर्वसु ८. पुष्य ९. अश्लेषा १०. मघा ११. पूर्वाफाल्गुनी १२. उत्तराफाल्गुनी १३. हस्त १४. चित्रा १५. स्वाती १६. विशाखा १७. अनुराधा १८. ज्येष्ठा १९. मूल २०. पूर्वाषाढ २१. उतराषाढ २२. श्रवण २३. घ्िनाष्ठा २४. शतभिषा २५. पूर्वाभद्रपद २६. उत्तराभाद्रपद २७. रेवती।
विशेष—२८ वां नक्षत्र अभिजित माना गया है। उत्तराषाढ़ की अंतिम १५ घटियाँ और श्रवण के प्रारम्भ की चार घटियाँ मिलाकर कुल १९ घटियाँ के मान वाला अभिजित नक्षत्र होता है। यह समस्त कार्यों में शुभ माना है।
नक्षत्रों के स्वामी २८ ही होते हैं। नक्षत्रों का फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए।
अश्विनी भरणी कार्तिका रोहिणी मृगशिरा आद्र्रा पुनर्वसु पुष्य अश्लेषा मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त चित्रा
अश्विनी कुमार काल अग्नि ब्रह्मा चन्द्रमा रुद्र अदिति बहस्पति सर्प थ्पतर भग अर्यमा सूर्य विश्वकर्मा
स्वाती विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूल पूर्वाषाढ़ उत्तराषाढ़ श्रावण घनिष्ठा शतभिषा पूर्वाभद्रपद उत्तराभाद्रपद रेवती अभिजित
पवन शुक्रारिन मित्र इन्द्र निऋति जल विश्वदेव विष्णु वसु वरुण अजिकपाद अहिर्बुध्न्य पूषा ब्रह्मा
नक्षत्र संज्ञा
1). स्थिर संज्ञक— रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र स्थिर या ध्रुव संज्ञक है।
2). चल संज्ञक— पुनर्वसु, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्रों की चल या चर या चंचल संज्ञक है।
3). उग्र संज्ञक— भरणी, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों की उग्र (क्रूर) संज्ञक है।
4). मिश्र संज्ञक— कृत्तिका, विशाखा नक्षत्रों की मिश्र या साधारण संज्ञक हैं।
5). लघु संज्ञक— अश्विनी, पुष्य, हस्त, अभिजित नक्षत्र लघु या क्षिप्र संज्ञक हैं।
6). मृदु संज्ञक— मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा और रेवती की मृदु या मैत्र संज्ञक हैं।
7). तीक्ष्ण संज्ञक— आर्दा, अश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्रों की तीक्ष्ण या दारुण संज्ञक हैं।
8). अधोमुख संज्ञक— भरणी, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा, मूल, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभद्रपद नक्षत्र की अधोमुख संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों का प्रयोग खनन विधि के लिए किया जाता है ।
9).ऊर्ध्वमुख संज्ञक—आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र ऊर्ध्वमुख संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों का प्रयोग शिलान्यास करने में किया जाता है ।
10). तिर्यङ्मुख संज्ञक— अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, नक्षत्र तिर्यडं मुख संज्ञक हैं।
11). पंचक संज्ञक— घनिष्ठा के तीसरा चौथा चरण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती नक्षत्रों की पंचक संज्ञक हैं।
12). मूल संज्ञक— अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, रेवती नक्षत्र मूल संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों में बालक उत्पन्न होता है तो लगभग २७ दिन पश्चात् जब पुन: वही नक्षत्र आता है,
उसी दिन शान्ति करायी जाती है। इनमें ज्येष्ठा और गण्डांत मूल संज्ञक तथा अश्लेषा सर्प मूल संज्ञक हैं।
अन्धलोचन संज्ञक— रोहिणी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी विशाखा, पूर्वाषाढ़, घनिष्ठा, रेवती नक्षत्र अन्धलोचन संज्ञक हैं। इसमें चोरी हुई वस्तु शीघ्र मिलती हैं। वस्तु पूर्व दिशा की तरफ जाती है।
मन्दलोचन संज्ञक—अश्विनी, मृगशिरा, अश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढ़ और शतभिषा नक्षत्र मंदलोचन या मंदाक्ष लोचन संज्ञक हैं। एक मास में चोरी हुई वस्तु प्रयत्न करने पर मिलती है। वस्तु पश्चिम दिशा की तरफ जाती है।
मध्यलोचन संज्ञक— भरणी, आद्र्रा, मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजित और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र मध्यलोचन या मध्यांक्ष लोचन संज्ञक हैं। इनमें चोरी हुई वस्तु का पता चलने पर भी मिलती नहीं। वस्तु दक्षिण दिशा में जाती है।
सुलोचन संज्ञक—कृत्तिका, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाती, मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र सुलोचन या स्वाक्ष लोचन संज्ञक है। इनमें चोरी हुई वस्तु कभी नहीं मिलती तथा वस्तु उत्तर दिशा में जाती है।
दग्ध संज्ञक—वार और नक्षत्र के मेल से बनता है, इनमें कोई शुभ कार्य प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। रविवार में भरणी, सोमवार में चित्रा, मंगलवार में उत्तराषाढ़, बुधवार में घनिष्ठा, वृहस्पतिवार में उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार में ज्येष्ठा एवं शनिवार में रेवती नक्षत्र होने से दग्ध संज्ञक होते हैं।
मास शून्य संज्ञक—चैत्र में रोहिणी और अश्विनी, वैशाख में चित्रा और स्वाति, ज्येष्ठ में पुष्य और उत्तराषाढ़, आषाढ़ में पूर्वाफाल्गुनी और घनिष्ठा, श्रवण में उत्तराषाढ़ और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और रेवती, आश्विन मेंपूर्वाभाद्रपद, कार्तिक में कृत्तिका और मघा, मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा, पौष में अश्विनी, आद्र्रा और हस्त, माघ में मूल श्रवण, फाल्गुन में भरणी और ज्येष्ठा नक्षत्र मास शून्य नक्षत्र हैं।
विशेष—कार्यों की सिद्धि में नक्षत्रों की संज्ञाओं का फल प्राप्त होता है।
योग
सूर्य चन्द्रमा के संयोग से योग बनता है, इसे ही योग कहते हैं। योग २७ होते हैं।
२७ योगों के नाम—१. विष्कुम्भ २. प्रीति ३. आयुष्मान ४. सौभाग्य ५. शोभन ६. अतिगण्ड ७. सुकर्मा ८.घृति ९.शूल १०. गण्ड ११. वृद्धि १२. ध्रव १३. व्याघात १४. हर्षल १५. वङ्का १६. सिद्धि १७. व्यतीपात
१८.वरीयान१९.परिधि २०. शिव २१. सिद्ध २२. साध्य २३. शुभ २४. शुक्ल २५. ब्रह्म २६. ऐन्द्र २७. वैघृति।
योगों के स्वामी—विष्कुम्भ का स्वामी यम, प्रीति का विष्णु, आयुष्मान का चन्द्रमा, सौभाग्य का ब्रह्मा, शोभन का वृहस्पति, अतिगण्ड का चन्द्रमा, सुकर्मा का इन्द्र, घुति का जल, शूल का सर्प, गण्ड का अग्नि, वृद्धि का सूर्य, ध्रुव का भूमि, व्याघात का वायु, हर्षल का भंग, वङ्का का वरुण, सिद्धि का गणेश, व्यतीपात का रुद्र, वरीयान का कुबेर, परिधि का विश्वकर्मा, शिव का मित्र, सिद्ध का कार्तिकेय, साध्य का सावित्री, शुभ का लक्ष्मी, शुक्ल का पार्वती, ब्रह्मा का अश्विनी कुमार, ऐन्द्र का पित्तर, वैघृति की दिति हैं।
योगों का अशुभ समय—योगों का कुछ समय शुभ कार्य का प्रारम्भ करने के लिए र्विजत किया है। इन र्विजत समय में कार्य आरम्भ किया जाए तो कार्यों में बाधाएं आती हैं अत: छोड़कर ही कार्य प्रारम्भ करे।
विष्कुम्भयोगकीप्रथम३घण्टे, परिधि योग का पूर्वाद्र्ध, उत्तराद्र्ध शुभ, शूल योग की प्रथम २ घण्टे ४८ मिनट, गण्ड और अतिगण्ड की २ घण्टे २४ मिनट, व्याघात योग की ३ घण्टे १२ मिनट, हर्षल और वङ्का योग के ३ घण्टे ३६ मिनट, व्यतीपात और वैधृति योग सम्पूर्ण शुभ कार्यों में त्याज्य हैं। इन योगों के रहते इनमें इस समय को छोड़कर ही कार्य करें।
करण
तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं। करणों के नाम—१. बव
२.बालव ३.कौलव ४.तैतिल ५.गर ६.वणिज्य ७.विष्टी (भद्रा) ८.शकुनि ९.चतुष्पाद १०.नाग ११.किंस्तुघन
चरसंज्ञककरण—बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज्य, विष्टी।
स्थिरसंज्ञक करण—शकुनि, चतुष्पाद, नाग, किंस्तुघन ।
करणों के स्वामी—बव का इन्द्र, बालव का ब्रह्मा, कौलव का मित्र, तैतिल का सूर्य, गर का पृथ्वी, वणिज्य का लक्ष्मी, विष्टी का यम, शकुनि का कलि, चतुष्पाद का रुद्र, नाग का सर्प, किंस्तुघन का वायु स्वामी होते हैं।
भद्रा : विष्टी करण का नाम ही भद्रा है, प्रत्येक पंचांग में भद्रा के आरम्भ और समाप्ति का समय दिया रहता है। भद्रा में प्रत्येक शुभ कार्य करना र्विजत है। भद्रा का वास भूमि, स्वर्ग व पाताल में होता है।
सिंह-वृश्चिक-कुम्भ-मीन राशिस्थ चन्द्रमा के होने पर भद्रावास भूमि पर होता है। मृत्यु दाता होता है। मेष-वृष-मिथुन-कर्क राशिस्थ चन्द्रमा के रहने पर स्वर्ग लोक में, कन्या-तुला-धनु-मकर राशिस्थ चन्द्रमा के रहने पर भद्रा वास पाताल में होता है। यह दोनों शुभ फलदायक होती हैं।